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गद्दार ( कहानी दूसरी क़िश्त )

22 मार्च 2022

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( “ गद्दार “   ) दूसरी क़िश्त 

*अब तक * ( मुकुंद ने भारत छोड़ो आन्दोलन में  अपनी भागीदारी  दर्ज कराने अपने हाकी के भविष्य की तिलांजली देकर अंग्रेजी शासन के प्रति अपना विरोध प्रकट करना अपना दायित्व  समझा)

अब मुकुंद पूरी तरह से आंदोलन में भाग लेने में ही व्यस्त रहने लगा । इस कारण कई बार ज़ेल भी जाना पड़ा लेकिन उसकी सोच और हौसलों पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा । इस तरह पांच छय साल गुज़र गये । 15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हो गया । 15  दिनों तक सारे भारत वासी आज़ादी के ही नशे में डूबे रहे , ख़ुशियां मनाते रहे । इसके बाद रफ़्ता रफ़्ता सभी लोग अपने अपने कामों में व्यस्त होते गये । मुकुंद के पिता प्रमोद पाटकर जी दुर्ग ज़िले के ग्राम उतई में रहते थे। उनके पास 2 एकड़ खेती की ज़मीन थी । जिसके सहारे मुश्क़िल से पेट भरने लायक अनाज पैदा होता था । वहीं मुकुंद का इन्ट्रेस्ट खेती बाड़ी में बिल्कुल नहीं था । इसलिए वह दुर्ग में एक सेठ की दुकान में मुनीम का काम करने लगे । साल भर में उसकी शादी हो गई और अगले एक साल में उन्हें पुत्र धन की प्राप्ति हो गई । मुकुंद ने अपने बच्चे का नाम अरूण रखा । अरूण यानी अरूण पाटकर । वैसे तो परिवार की गाड़ी ठीक ठाक चल रही थी । पर मुकुंद को अपना काम नीरस लगने लगा था । उसका मन सिर्फ़ हाकी पर टिका था । अत: एक दिन वह मुनीम के पद त्याग करके एक स्कूळ में पीटीआई का पद ज्वाइन कर लिया । भले उस स्कूळ में मुकुंद को तन्ख़्वाह पहले वाले काम की तुलना में कम मिलती थी ,पर काम उसके मन का था । उसे बच्चों को हाकी के अलावा बहुत सा्रे अन्य खेल खिलाने की ज़िम्मेदारी मिली थी । इस काम में उसे बेहद ख़ुशी मिलती थी । वह अपने काम को बड़े ही लगन से अन्जाम देने लगा । उस स्कूल में वह बच्चों को बैडमिन्टन , फ़ुटबाल , टेबल टेनिस , खो खो , कबड्डी के साथ साथ हाकी खेलने सिखाता रहा । उसने सोच लिया था कि यहां हाकी की ऐसी टीम तैयार करूंगा जो सारे भारत में अपना और इस प्रदेश का नाम हाकी के दायरे में सथापित करेगा । समय और भाग्य ने साथ दिया तो भारतीय टीम को दुर्ग से हाकी के इतने राष्ट्रिय खिलाड़ी दूंगा कि आगे वाले कई बरसों तक बिना दुर्ग के खिलाड़ी के कोई भी राष्ट्रीय हाकी टीम तैयार नहीं हो  पायेगी । वह बड़ी शिद्दत से अपने काम में जुट गया । चार पांच बरसों में इसका परिणाम भी दिखने लगा । उसके स्कूल की टीम छत्तीसगढ की सर्र्वश्रेष्ट हाकी टीम बन गई । 
अब मुकुंद के सुपुत्र  अरुण   की उम्र भी 7  वर्ष हो गई थी । वह भी अपने पिता के संग हाकी के मैदान में जाने लगा ,। वैसे तो उसके पैरों को देखने पर थोड़े नुक्श का आभास होता था। वह चलते वक्त थोड़ा लचक कर चलता था । पर दौड़ते वक्त उसकी लचक छू-मंतर हो जाती थी । वह किसी भी अच्छे धावक को दौड़ में हराने का हौसला रखता था । 2/3 सालों के प्रश्क्ष्ण के बाद उसके खेल में भी ग़ज़ब का सुधार दिखने लगा । वह जिस टीम में भी होता उस टीम की जीत सुनिश्चित हो जाती थी । उसके स्किल के बहुत सारे कारण थे पर उसमें से एक मुख़्य कारण था । अपने पिता मुकुंद से प्राप्त जिन्स । मुकुंद अपने पुत्र अरूण कि प्रतिभा को देखकर बह्त ख़ुश होता । उसे विश्वास होने लगा था कि उसका पुत्र एक न एक दिन हाकी ओलंपिक में देश का परचम फ़हरायेगा। उसे कभी कभी ये मलाल होता था कि वह ख़ुद कभी भी ओलंपिक में नहीं जा सका । इसका कारण तो उसके सारे दोस्त यार जानते थे कि मुकुंद अपनी बुलंदी के समय हाकी को त्याग कर गांधी जी के आव्हान पर असहयोग आन्दोलन में कूद गया था । जिसके कारण उसे ब्रिटिश राज में उसे न कोई सरकारी प्रओत्साहन मिली न ही कोई सरकारी नौकरी दी गई । इसलिए जीविका के लिए एक प्रायवेट स्कूल में वह पीटीआई का पद स्वीकार कर स्कूली बच्चों को खेलने केलिए प्रेरित करने का काम करते रहा । उसे तनख़्वाह भी बहुत कम मिलती थी लेकिन घर का ख़र्चा जैसे तैसे चल ही जाता था। 
एक दिन मुकुंद पाटकर जी स्कूल से अपने घर आ रहे थे कि उन्हें किसी अन्जान ट्रक वाले उन्हें ने रौंद दिया । मौक़े पर ही उसकी मृत्यु हो गई । उनके परिवार में सिर्फ़ 2 सदस्य ही रह गये । स्वर्गीय मुकुंद की पत्नी नीलम  और उसका पुत्र अरूण । अब घर चलाने के लिए अरूण की माता जी को उसी स्कूल में आया का काम मिल गया । जिस स्कूळ में मुकुंद जी पीटीआई का काम करते थे । अरूण की अब उचित देखभाल करने वाला कोई नहीं था । पर अरूण ने यह ठान लिया था कि वह हाकी के खेल में ही अपना मुकाम बनायेगा। और एक न एक दिन वह ओलंपिक टूर्नामेन्ट में भारतीय हाकी टीम का सदस्य बन कर दिखायेगा । 
समय गुज़रता गया । अरूण अपनी प्रक्टिस शिद्दत से करते रहा । कभी अकेले ही ,  कभी मुह्ल्ले के लड़कों के साथ तो कभी अपने पुराने स्कूळ के विद्ध्यार्थियों के साथ । 16 बरस के अरूण की पढाई अब छूट चुकी थी । वह पढाई में कमज़ोर था , साथ ही उसका मन सिर्फ़ हाकी खेलने में ही लगा रहता था। वह 8 वी की परीक्षा पास नहीं कर पाया था । उसके पुराने स्कूल वाले उसे स्कूल की हाकी टीम की तरफ़ से मैचेस खेलने के लिए स्टूडेन्ट्स के रूप में शामिल करते थे । अरूण के भरोसे ही इस स्कूल की टीम पिछले 4 सालों से दुर्ग संभाग का विजेता बनी हई थी। हाकी के जानकार लोग अक्सर कहते थे कि जब तक अरूण उस स्कूळ की हाकी टीम का सदस्य है तब तक उस स्कूळ की हाकी टीम को कोई नहीं हरा सकता । धीरे धीरे अरूण की प्रतिभा की रौशनी ज़िला स्तर से होते हुए संभागीय स्तर और राज्य स्तर तक पहुंच गई । उसकी प्रतिभा की चमक को जान कर मद्ध्य प्रदेश हाकी एसोशियेशन ने उसे एक अच्छा आफ़र देकर अपनी टी्म में शामिल कर लिया । उसे टीम में शामिल करने के पूर्व एसोशियेशन के कर्ता धर्ताओं ने उसके खेल को मानिटर किया । संतुष्ट होने के बाद ही उसे टीम का ड्रेस पहनने के लिए दिया गया । टीम में शामिल करने के बाद अरूण को प्र्देश के अन्य खिलाड़ियों के साथ ग्वालियर कैंप में प्रशिक्षण दिया जाने लगा । ग्वालियर में उसके खेल को देखकर प्र्शिक्षक भी चकित थे कि कैसे एक हाड़ मांस से बना श्ख़्स इतनी तेज़ी , फ़ूर्ती और चपलता के साथ कैसे हाकी खेल पाता है । जबकि उसके पैरों में भी कुछ नुक्श है । जब प्रशिक्षकों को यह पता चला कि अरूण राष्ट्रीय स्तर के हाकी खिलाड़ी मुकुंद पाटकर का सुपुत्र है तो उसके प्रति एक साफ़्ट कार्नर सबके मन में विकसित हो गया । वैसे तो वर्तमान में मद्ध्य प्रदेश की हाकी टीम में एक से एक दिग्गज खिलड़ी थे । लेकिन अरूण ने बहुत कम समय में खुद को सबसे बेहतर सिद्ध कर दिया । कुछ महीनों बाद उसे एंम.पी. टीम का कैप्टन बना दिया गया । उसके नेतृत्व में 6 महीने के अन्दर एम.पी. टीम ने अलग अलग टीमों से लगभग 10 मैचेस खेले और उन सभी 10  मैचों में उसकी टीम विजेता रही ।         
                    1 महीने बाद झांसी में राष्ट्रीय स्तर का टुर्नामेन्ट था । जिसमें लगभग 20 टीमें भाग लेने वाली थी । इसी टुर्नामेन्ट के दौरान राष्ट्रीय टीम के लिए खिलाड़ियों का चयन भी होना था । अब तक पिछले 10 सालों से इस टुर्नामेन्ट को या तो पंजाब की टीम जीतती आ रही थी या फिर उत्तर प्रदेश की टीम । वास्तव में उन दोनों टीमों में 3/4 अन्तराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी थे । जो एक दो बार ओलपिक भी खेल कर आ चुके थे ।
टुर्नामेन्ट 1 सितंबर को प्रारंभ हुआ । मद्ध्य प्र्देश की टीम पहले 4 राऊंड के मैचेस आसानी से जीत गये । अगला मैच उनका झारखंड से हुआ । उस मैच को एमपी टीम 9/6 से हार गई । लेकिन इस हार के पीछे एक बड़ा कारण रेफ़्रियों की पार्शिलिटी थी । पता नहीं दोनों रेफरियौं  ने क्यूं झारखंड का फ़ेवर किया । दर्शक गण ने रेफ्रियों के विरुद्ध बहुत आवाज़ उठाई पर सारी आवाज़ को अनुशासन के नाम से दबा दिया गया । अरूण ने इन 5 मैचों में 12 गोल किये थे । यह अब तक का रिकार्ड था । किसी अन्य खिलाड़ी ने पिछले 10 वर्षों में इस टुर्नामेन्ट में 10 से ज्यादा गोल नहीं किये थे । अंतत: फ़ायनल का मैच पंजाब और उत्तर प्र्देश के बीच ही हुआ। और पंजाब की टीम 1 /0 से फ़ायनल की विजेता बनी । 
इस टुर्नामेन्ट के दौरान दर्श्कों के जुबान पर एक ही खिलाड़ी का नाम था । वह नाम था दुर्ग शहर का निवासी“ अरूण पाटकर “। अधिकान्श हाकी प्रेमी दर्शक मान रहे थे कि अरूण पाटकर का चयन राष्ट्रिय टीम के लिए होगा ही । पर चयन की प्रक्रिया  के दौरान पंजाब ,यूपी और झारख़ंड की नामी टीमों के नामी खिलाड़ी और कोचेस दबाव बनाकर अपनी अपनी टीम से 3 /3 खिलाड़ियों को राष्ट्रिय टीम में शामिल करवा लिया । इसके अलावा 5 खिलाड़ी अन्य राज्यों से चयनित हुए । अब सिर्फ़ एक खिलाड़ी का चयन होना बाक़ी था । अधिकान्श लोगों को उम्मीद थी कि अरूण क चयन होना ही चाहिए । अरूण को भी अपने खेल , अपनी प्रतिभा के कारण भरोसा था कि उसे भी राष्ट्रीय टीम में जगह मिलेगी ही । इसके अलावा उसने अपने स्वर्गीय पिता मुकुंद पाटकर जी से वादा किया था कि मैं एक दिन भारत की राष्ट्रीय हाकी टीम का हिस्सा बनकर दुनिया में आपका नाम करूंगा । लेकिन जब 15 खिलाड़ियों का नाम उजागर किया गया तो उस लिस्ट से अरूण का नाम गायब था । उसे दरकिनार कर दिया गया था । तर्क यह दिया गया कि अरूण के पैरों में कुछ ऐसा नुक्श है कि ऐसा नुक्श अंतराष्ट्रीय  स्तर के मैचों में चलेगा नहीं और हमारी टीम की हार का कारण बन सकता है ।

( क्रमशः )
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गद्दात कहानी
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मुकुंद पाटकर हाकी का राष्ट्रीय स्टार का खिलाड़ी है। उसका चयन ओलम्पिक टूर्नामेंट के लिये हो जाता है। उस समय देश मे अंग्रेजो का शासन था । वहीं गान्धी जी के भारत छोड़ो आन्दोलन में अपनी भागीदारी दर्ज कराने ओलम्पिक जाए मना कर दिया और अपने कैरियर मे विराम लगा डाला। जिसके कारण कुछ लोग उसकी तारीफ करने लगे तो कुछ लोग उसे उलाहना देने लगे।
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