नीलिमा को ,धीरेन्द्र का फोन आता है ,उसे तो आप जानते ही होंगे ! नहीं जानते हैं तो ,मैं बताये देती हूँ ,''धीरेन्द्र सक्सैना '' और कोई नहीं ,नीलिमा का होने वाला पति है। बातचीत से तो बड़े ही खुले दिल का और अपनी पत्नी को भी बराबर का सम्मान देने वाला लग रहा है। पत्नी को नीचा दिखाना ,उसे अपने से कम समझना ,शायद इन चीजों पर वह विश्वास नहीं करता है। मैंने तो अधिकतर ,अपने घर में तो क्या ? आस -पास के अंकल -आंटी को भी इसी तरह देखा है। किसी के भी मन में ,एक -दूसरे के प्रति सम्मान नहीं। रिश्तों में बंधे हैं किन्तु देखने में तो लगता है ,रिश्तों को ढो रहे हैं। धीरेन्द्र यदि अच्छे ,विचारों के हुए ,तब तो मुझे पढ़ने में मदद ही करेंगे। ये भी तो हो सकता है , नया -नया रिश्ता है ,नई -नई बात है ,मुझे ऐसे ही प्रभावित करने के लिए कह रहे हो।अनेक प्रशन निलिमा को घेरे हुए थे।
एक बार की बातचीत में ,कैसे मैं किसी निर्णय पर पहुंच सकती हूँ ? टहलते -टहलते नीलिमा धीरेन्द्र के विषय में ही सोच रही थी ,वो अपनी मनःस्थिति किसी से बाँटना भी नहीं चाहती थी। वो किसी से कुछ भी बताना नहीं चाह रही थी ,कि कहीं कोई उसकी हँसी न बना ले।
वो अपने विचारों को झटक देना चाहती है, किन्तु विचार हैं कि उसके पीछे पड़े हैं। वो किसी अन्य काम में मन लगाना चाहती है और इसी कारण अपनी मम्मी की मदद करने के बहाने उनके समीप जाती हैं ,वे उसी के किसी कार्य में व्यस्त थीं, उसे देखकर बोलीं -आ गयी ,अपनी माँ की याद...... अब तो तू चली जाएगी , तेरी बड़ी बहन भी चली गयी। अब तो मैं ,अकेली रह जाऊँगी ,कहकर वो रुआँसी हो गयीं।
उनकी आँखें नम देखकर ,नीलिमा उनके गले से लिपट गयी और बोली -मैं तो जाना ही नहीं चाहती थी ,आप ही लोग तो जबरदस्ती भेज रहे हो। वो भी किसी अनजान जगह पर,जहाँ मेरा ,अपना कोई न दिखेगा। आपके पास पापा और भाई तो हैं। मैं अकेली कैसे रहूँगी ?मैं तो ये भी नहीं जानती- कि वे लोग कैसे हैं ?मुझसे कैसा व्यवहार करने वाले हैं ?
अपनी बेटी के मन की दुविधा को समझ ,वो बेटी के दूर होने का ग़म भूलकर बोलीं -तेरे पापा ने उन्हें देखा है ,अच्छे ही होंगे ,जब मैं इस घर में ब्याहकर आई थी ,तब मैं सौलह बरस की थी ,मैं ही ,कहाँ किसी को जानती थी ?पहली बार ,तेरे पापा को फेरों पर ही देखा था। तब से अब तक तेरे पापा के संग ही हूँ ,अब यही मेरा घर बन गया।
मम्मी बात वो नहीं है ,कि आप इस घर में आये ,तब इन लोगों का कैसा व्यवहार रहा ?दादी ,चाचा और पापा का व्यवहार कैसा था ?पापा के अब तक के व्यवहार को देखकर ,तो लगता ही नहीं ,कभी आपसे ठीक से भी बातें की होंगी। पता नहीं ,हम बच्चे भी कैसे हो गए ?
चुप कर ! अभी से इतना सब सोचने की आवश्यकता नहीं ,बस इतना सोच ! किसी अच्छे घर में तेरा विवाह हो रहा है। उस घर को अपनाना ,सभी लोग एक जैसे नहीं होते ,ये जरूरी नहीं जो परेशानी अथवा दुः ख हमने देखा ,तब तुम्हारी ज़िंदगी भी ऐसे ही बीतेगी। सबके अपने -अपने कर्म हैं ,अपना -अपना नसीब है। हम तो पढ़े भी नहीं थे ,तुम तो पढ़ी -लिखी हो। हो सके तो ,आगे भी अपनी पढ़ाई जारी रखना।'' ज़िंदगी में कई बार अच्छे भविष्य के लिए ,अच्छे परिणाम के लिए ,कई तरह के समझौते करने पड़ जाते हैं। कई बार मजबूरी भी हो जाती है किन्तु तुम अपनी पढ़ाई जारी रखना और उसका लाभ भी उठाना। अपनी समझदारी से ही घर चलाना ,घर तोड़ने में नहीं जोड़ने में ही भलाई है।यदि मैं तेरे पापा से लड़ती ,तब न ही इस घर की इज्जत ,कहीं रह पाती और न ही मेरा जीवन...... कहाँ जाती मैं ? तुम लोगों को धक्के खिलाती। आज तुम पढ़ी -लिखी एक सम्मानित परिवार की बेटियां हो। किसी अच्छे ही परिवार की शान बनोगी।
यदि मैं तुम्हारे पापा का विरोध करती ,मुझे घर से बाहर निकाल देते ,मैं क्या मजदूरी करके तुम्हारा पेट पालती ?इसीलिए जीवन में जो भी ,करो समझदारी से करना ,जोश में नहीं !! पार्वती ने नीलिमा को समझाया। नीलिमा, माँ की बात सुनकर ,चुपचाप चली गयी ,अब पता नहीं ,वो क्या सोच रही होगी ? किन्तु नीलिमा ने अपने मन का उद्वेलन ,अपनी माँ को बता कर उन्हें ,अवश्य ही झकझोर दिया।
नीलिमा तो बाहर चली गयी किन्तु पार्वती तीस बरस पहले ,गुजरात के ,अपने गांव में चली गयी। गरीबी थी ,किन्तु वो अपने माता -पिता के संग खुश थी उन्हीं के साथ ,रहती थी।तीन -चार बेटियों पर एक भाई था। बाप पीता भी था। वो भी ,छोटे -मोटे कोई भी कार्य करके दो पैसे कमा लेती थी। अपने बापू की सहायता ही कर देती थी किन्तु उसका लड़की होना ही ,जैसे उसके लिए सजा थी। लोगों को कहते सुना है -स्त्री जननी होती है ,माँ होती है ,प्रकृति का रूप है किन्तु वो ही स्त्री जब किसी के घर में लड़की रूप में जन्म लेती है ,तो अभिशाप बन जाती है। एक गरीब घर की लड़की होना भी अभिशाप है ,कितनी पीढ़ियाँ चली गयीं ?किन्तु औरत को अपने को साबित करने के लिए अमीर हो या ग़रीब तैयार रहना ही पड़ता है। घर के ख़र्चे और मेरा और मेरी दो -तीन बहनों का होना ही, मेरे पिता के लिए दारू पीने का अच्छा बहाना था।
हम बहनें कैसी भी हों ?किन्तु हमारे सभी के रंग ,दूध से सफेद थे कोई भी देखता तो नजर हटती नहीं थी ,जैसे -जैसे जवान होने लगीं। लोगों की नजरें भी ,हमारा पीछा करने लगीं। हम तो अपनी भेड़ों को पालते और उन्हें लेकर बाहर निकल जातीं किन्तु अब बापू ने बाहर जाने से ,इंकार किया। कभी -कभी हमारी माँ हमें देखकर ,रो देती ,उसके रोने का कारण हम नहीं जान पाए। जब मैं सौलह बरस की हुई ,तब बापू एक दिन ,दो लम्बे -तगड़े ,दो अजनबियों को लेकर आये। उन्होंने बताया -ये हमारे मेहमान हैं ,हमारे घर खाना खाया और अपने होटल चले गए।
अगले दिन वो लोग ,फिर से हमारे घर आये ,मुझे अजीब नजरों से तौल रहे थे ,जैसे-' किसी बलि के बकरे' को निहारते हैं जिसका परिणाम ये हुआ -बापू ने बतलाया ,उनमें से एक मुझसे ,विवाह करना चाहता है। तब मैंने उस लड़के को गौर से निहारा। वो एक सांवले रंग का ,लंबा तगड़ा नौजवान था। बापू ने बताया था ,-ये बहुत पैसे वाला है ,बड़ी नौकरी करता है। जहाँ भी जाएगी ,खुश रहेगी। मैंने माँ से कहा भी ,पता नहीं ये अजनबी कौन है ?कहाँ ले जायेगा ?मैं ऐसे ही किसी अनजान के संग कैसे चली जाऊँ ?
माँ ने समझाया -तू अच्छी जगह चली जाएगी तो तेरी बहनों की किस्मत भी चमक जाएगी। यहाँ रहेगी तो, किसी न किसी दिन अपनी इज्जत गंवा बैठेगी ,ब्याहकर चली जायेगी तो कम से कम इज्ज़त की ज़िंदगी तो गुज़ार लेगी। हम न भी मिले ,तो मैं यहीं से खुश हो लूंगी कि मेरी बेटी सम्मानित ज़िंदगी जी रही है। यहाँ के भी किसी लड़के ने ब्याह किया ,तब भी वो ज़िंदगी नहीं मिल पायेगी। माँ की बेबसी देख !!!! उसने ब्याहकर लिया। देखने में तो ये लोग ,पढ़े -लिखे लग रहे थे ,समझदार भी ,मेरी तो उम्र भी कम थी, पता नहीं ,मेरे पति की क्या उम्र रही होगी ?ये तो मुझे आज भी नहीं पता चला किन्तु जिसने भी मुझे देखा ,उसी ने कहा -बच्ची ही है अभी।
मुझे अपने परिवार से बिछुड़ने का दुःख तो था अपनी बहनों को भी समझाया ,माँ का कहा मानना ,तंग मत करना , आख़िरी बार अपने परिवार को नजर भर देखा। जब मैं इनके संग ,खड़ी हुई, तब लगा जैसे -किसी ऊँट के साथ खड़ी हूँ। मैंने नजर उठाकर ,ऊपर देखा ,मैं तो उनके कूल्हों से थोड़ा ऊपर ही आ रही थी। ये जोड़ी मुझे किसी भी तरह नहीं जँची किन्तु माँ -बापू ने जोड़ा है ,तो ठीक ही होगा। मुझे अपने ब्याह से ज्यादा तो दूसरी जगह देखने की लालसा थी। मेरा बचपन तो गर्मी ,धूल -मिटटी से जुड़ा था।जो मिला पहन लिया ,खा लिया। अपनी तो जैसे कोई इच्छा ही नहीं थी। उसी ज़िंदगी में मस्त ,बाहर से पर्यटक घूमने भी आते तब वो लोग हमें देखते ,हमारा पहनावा ,हमारे जीवन को जानने का प्रयत्न करते किन्तु हम उन लोगों से मनोरंजन करते। उनके पहनावे को देखकर ,मुस्कुराते और वे हमारी मुस्कुराहट की तस्वीर निकालते। हमें तो कभी लगा ही नहीं, कि हम इन लोगों से कम हैं। उनसे कम होते तो वे हमारी तस्वीर नहीं, हम उनकी तस्वीर ले रहे होते।
निलिमा की माँ अपनी ज़िंदगी के तीस बरस पीछे चली गयी, उनकी ज़िंदगी में आगे क्या हुआ ,जानने के लिए पढ़ते रहिये - ऐसी भी ज़िंदगी