नीलिमा को ,अपनी नई ज़िंदगी में प्रवेश करने से ड़र लग रहा है ,यही ड़र वो अपनी माँ को बताती है ,उसके ड़र को देखकर ,उसकी मम्मी पार्वती उसे समझा तो देती है किन्तु स्वयं ,ज़िंदगी के तीस बरस पीछे चली जाती है। जब उसने एक झलक नीलिमा के पिता को देखा था। दोनों भाई उनके घर मेहमान बनकर गए थे और तभी उससे विवाह तय हो गया। विवाह तो हो गया किन्तु उसे ,तो अपने गांव से बाहर निकलने का, पहली बार मौका मिल रहा था। इससे पहले वो कभी भी ,अपने गांव से बाहर ही नहीं गयी थी। गुजरात के उस गांव में बाहर से पर्यटक आते और वहां की फोटो लेते और उन लोगों की भी लेते। उन्हें बहुत अच्छा लगता कि हममें अवश्य ही कोई विशिष्ट बात है ,तभी हमारी फोटो ले रहे हैं। कभी -कभी कमाई भी हो जाती।
गुजरात राज्य वैसे तो बहुत सुंदर स्थान है किन्तु बाहर से आने वालों के लिए ही दर्शनीय है ,जो लोग वहीं रह रहे हैं ,उनके लिए तो रोजी -रोटी की तलाश में ,इधर -उधर भटकना ही लिखा है। उनके लिए तो प्रतिदिन का कार्य है ,उनके लिए सभी दिन एक जैसे लगते हैं। ऊपर से गरीबी भी पैर फैलाये थी। इतने सुंदर राज्य में रहकर भी, वो आनंद नहीं उठा पाते थे। आनंद उठाने के लिए ,तो पर्यटक आते थे। आज वो भी अपने राज्य से निकलकर किसी दूसरे राज्य में जा रही थी। वो स्थल उसके लिए ,दर्शनीय होगा ,वो मासूम सी बच्ची बड़ी सी रेलगाड़ी में बैठी और खिड़की से बाहर के नजारे देखने लगी। आज वो पहली बार रेलगाड़ी में बैठी थी। अपने माता -पिता से बिछुड़ने का दुःख तो था किन्तु बाहर की दुनिया को देखने की खुशी भी थी। उसे तो लग रहा था , जैसे अपने देश से निकलकर ,दूसरे देश में जा रही है।
रेलगाड़ी धीरे -धीरे अपने स्थान से खिसकने लगी ,वो लोग भी ,उसके समीप ही आकर बैठ गए। पार्वती ने ,अपना थैला अपनी गोद में रख लिया और बाहर की तरफ भागते पेड़ों का मजा लेने लगी। बड़ी -बड़ी इमारतें, जिनको वो पीछे छोड़ती जा रही थी। आज तो उसने नए कपड़े भी पहने थे ,एक दो और भी कपड़े उसके थैले में थे। सुहाग की चीज़ के नाम पर ,उसके पास एक चाँदी का ढोलना था। उसकी माँ की और भी चीज़ें थीं किन्तु उसके बाप और इस आदमी ने उतारने को कह दिया। तब वो सोचने लगी -जिससे मेरा ब्याह हुआ है ,इसे क्या कहकर पुकारूंगी ? पार्वती ने एक नजर उसकी तरफ देखा ,वो बैठा हुआ ऊँघ रहा था ,उसका भाई भी सामने की सीट पर ही बैठा था। मेरी बा ने ,मुझे ऐसे ही इनअनजान लोगों के संग भेज दिया किन्तु कितने दिनों के लिए ,ये भी नहीं बताया ? अब तक तो सारी बहनें उठ गई होंगी ,बापू भी तो ,भेड़ों को लेकर निकल गया होगा। क्या उन्हें भी मेरी याद आ रही होगी ? यह सब सोचकर उसकी आँखें नम हो गयीं।
शायद कोई स्टेशन आ गया था। चाय -चाय की आवाज आ रही थी ,मेरे बिन्द ने भी आँखें खोलीं ,अपने भाई से बातें की। तब मुझसे पूछा -कुछ खाना है ,भूख तो मुझे बहुत लगी थी किन्तु झिझक के कारण ,नहीं, में गर्दन हिला दी। उसके भाई को मैंने कहते सुना -इससे क्या पूछना ?जा कुछ खाने को ले आ...... भूख तो हमें भी लगी है और चाय भी........ वो उठकर बाहर गया। मैं खिड़की से बाहर देखती रही ,बहुत सारी चीज़ें दिख रही थीं किन्तु किसी अजनबी से कैसे कहूँ ? वो आया और चाय भजिया लाया एक कागज़ की पुड़िया मुझे भी थमा दी। वो भजिया बहुत ही अच्छी लगी और मैं चाय भी फ़टाफ़ट पी गयी। मुझे देखकर ,दोनों मुस्कुराये ,शायद इसीलिए मैंने तो मना किया था और अब सब खा गयी। तभी उसका भाई बोला -और भी कुछ खाना है तो बता दीजिये। तब मैंने एक चीज़ की तरफ ,इशारा किया ,वो रंग -बिरंगी खट्टी -मीठी गोलियाँ थीं।
गाड़ी फिर से चल दी ,मुझे भी नींद आ गयी।शायद किसी स्टेशन के आने पर , मुझे नींद से उठाया और चलने के लिए कहा गया। मैंने अपना थैला उठाया और उनके पीछे -पीछे हो ली। उस शहर में ,चारों तरफ लाइटें जल रही थीं ,बहुत जगमगाहट थी लोगों का पहनावा भी अलग था। वे लोग भी मुझे ऐसे ही देख रहे थे ,जैसे मैं उनको देख रही थी। कई बार इच्छा हुई कि पूछूं -ये कौन सी जगह है ?किन्तु अपने को रोक लेती।पढ़ी -लिखी भी नहीं थी ,जो उस जगहों पर लिखे को पढ़ लेती। गुजराती में भी नहीं लिखा था ,वो थोड़ा पढ़ लेती थी। स्टेशन से बाहर आकर हम रिक्शे में बैठे और ये लोग एक बडी सी दुकान पर गए। इतनी बड़ी दुकान थी या किसी का घर ,मैं घूम -घूमकर चारों तरफ देख रही थी किन्तु जब मैंने देखा कि लोग यहाँ से कपड़े खरीद रहे हैं ,तब मैं समझ गयी। ये कपड़ों की दुकान ही है। पहले अंदर घुसते हुए भी डर लगा रहा था ,कहीं इनका पत्थर गंदा न हो जाये किन्तु जब ये लोग अंदर गए ,तब मैं भी पीछे -पीछे हो ली।
इन लोगों ने ,वहाँ कार्य कर रही एक महिला से कुछ कहा और वो मुझे एक कमरे में ले गयी। मेरे कपड़े उतारकर उसने ,उनके लिए कपड़ों को पहनने को कहा।
नहीं...... म्हारे तो ये ई कपड़े चोखे हैं। मैं अपणे कपड़े न तारूँगी।
उसने बाहर जाकर उन लोगों से बातचीत की और वापस आकर बोली -जहाँ तुम जा रही हो ,वहां ये कपड़े नहीं पहने जाते। तुम अपने कपड़े अपने पास रखो ,कोई तुमसे तुम्हारे कपड़े नहीं लेगा। मैंने अपनी चोली -घाघरा उतारा और सलवार -कुर्ती पहनी। मेरे कपड़ों में ,साड़ी भी थी किन्तु मुझे वो पहननी नहीं आती थी ,उस महिला ने स्वयं पहनाने के लिए कहा भी, किन्तु मैंने मना कर दिया। मेरे रंगीन घाघरा -चोली मेरे ही थैले में रख दिए। मैं अपने मैके की धरोहर लेकर बाहर आ गयी। मुझे देखकर ,वो दोनों चौंक गए किन्तु मैं उनके चौंकने का कारण जब समझी ,जब मैंने चप्पल पहनते समय ''आदमक़द आईने ''में अपने को देखा। मैं अपने को ही नहीं पहचान पाई। उसके पश्चात हमने खाना खाया रात्रि हो चुकी थी। अब मैं थोड़ी खुल भी गयी थी मैंने पूछा -ये म्हारे को ,कठै ले आये।
अब हम दिल्ली में हैं ,अभी हमें और भी आगे जाना है। मैं भाई से पूछता हूँ ,रात्रि में यहीं रहना है ,या चलना है ,मेरे देवर सा ने कहा। वो दूसरा व्यक्ति और कोई नहीं मेरे बिंद का ही भाई था।
उसने पूछा -भाई साहब !क्या घर चलें ? या यहीं होटल में टिकना है। पहले तो वो चुप रहा ,फिर मेरी तरफ देखकर बोला - आज की रात्रि होटल में ही रह लेते हैं ,घर के लिए सुबह जल्दी निकल जायेंगे। उन्होंने एक कमरा नहीं दो कमरे लिए ,एक कमरे में, मैं अपने बिंद के साथ थी। इस तरह किसी अनजान अजनबी के साथ ,अलग कमरे में , दिल पता नहीं क्यों ?अपने आप ही धड़कने लगा ,शायद किसी अनहोनी की आशंका से पहले ही डर रहा था।
पार्वती का दिल किसी अंजान व्यक्ति के साथ होटल के कमरे में इस तरह उसका दिल धड़कना स्वभाविक था या उसकी अश्नका निर्मूल थी? आखिर ये दो अंजान व्यक्ति पार्वती यानी निलिमा की माँ को कहाँ ले जा रहे थे? क्या उनका उद्देश्य सही था या कोई और बात थी,? जानने के लिए पढ़ते रहिये- ऐसी भी ज़िंदगी