पार्वती ''जो नीलिमा की माँ है ,वो नीलिमा के ड़र को दूर करने के लिए , उसे समझाती हैं किन्तु स्वयं अपनी ज़िंदगी के तीस बरस पीछे पहुंच जाती है। जब उसे गुजरात के एक गांव से ,पहली बार यहाँ लाया गया। उस रात्रि वो बहुत डर गयी थी ,जब उसके बिंद यानि पति ने रात्रि के लिए ,एक होटल का कमरा लिया और वो उस कमरे में उसके संग अकेली थी। उसका दिल पता नहीं क्यों ?धक -धक की तेज आवाज से अपनी रफ़्तार पकड़ रहा था उसके जीवन में ,ऐसा पहली बार था ,जब वो अपने परिवार से अलग किसी ग़ैर मर्द के साथ ,अकेले में थी। उसे कुछ अटपटा सा लग रहा था। माँ ने उसे समझाया था -जैसा भी पाहुने सा कहें ,उनका कहना मानना ''कहने को तो ब्याह हो गया किन्तु अभी तक पार्वती के लिए ,उस आदमी का उसके जीवन में कोई महत्व ही नहीं था। ज़िंदगी जैसे भी उसे चला रही थी ,चल रही थी किन्तु अब भी दुविधा में थी। अभी भी उसे वो आदमी ग़ैर मर्द ही लग रहा था।
कमरा बंद हो जाने पर वो ,सिहर उठी ,पता नहीं ,अब ये क्या कहने लगे ? उसने कहा -आओ ,यहाँ बैठो ! पार्वती उसके पलंग से दूर ,एक कुर्सी पर जा बैठी। अभी भी उसके हाथ में अपने सामान का थैला था। उसने कहा -इस थैले को ,वहाँ मेज पर रख दो !
पार्वती ने वो थैला ,बहुत ही सावधानी से मेज पर रखा और वापस जाकर उसी कुर्सी पर बैठ गयी। वो बहुत देर तक मुझे ,यूँ ही देखता रहा ,मुझे शर्म आ रही थी ,मेरी नजरें झुकी जा रही थीं।
उसने फिर से कहा -क्या तुम्हारी माँ ने ,तुमसे कुछ कहा था ?
''हाँ ''में मैंने गर्दन हिलाई।
क्या कहा था ?उत्सुकता से उसने पूछा।
बिंद सा का कहना मानना।
और क्या कहा ?
''नहीं ''में मैंने फिर से गर्दन हिलाई।
तब मेरा कहा मान कर यहाँ आकर बैठो। उसने पलंग की तरफ इशारा करते हुए कहा।
मैं बहुत देर से अपने हाथों की अँगुलियों से खेल रही थी ,और इसी तरह बैठी रही।
उसकी आवाज़ फिर से उस शांत कमरे में गूँजी ,क्या रात भर इसी तरह बैठी रहोगी ,कहा मानो मेरा और इधर आओ !आदेशात्मक लहज़े में कहा।
मैं अपने स्थान से उठी और पलंग के एक कोने पर जा बैठी ,अभी भी मेरी अँगुलियाँ चल रही थीं अब उस पलंग की चादर से खेलने लगी।
तुम्हें मैं पसंद तो हूँ उसने प्रश्न किया।
मैंने उसे नजरभर देखा ,और नजरें नीची कर लीं ,मन ही मन सोच रही थी -तब तो किसी ने पूछा भी नहीं कि ये आदमी पसंद है या नहीं। माँ ने इतनी परेशानियाँ गिनवाईं ,ऊंच -नीच बताई ,मुझे तो किसी ने कुछ भी कहने का मौका ही नहीं दिया ,न ही मुझसे पूछा। तभी फिर उस आवाज से मेरा ध्यान टूटा।
तुमने जबाब नहीं दिया !
आप अच्छे हैं ,आपने मुझे कपड़े दिलवाये ,अच्छा -अच्छा खाना खिलाया। रेलगाड़ी से घुमाया ,मैंने आज तक ऐसी जगह नहीं देखी।
बस...... इसीलिए अच्छा हूँ।
और क्या किया ? बस इतना ही तो किया ,पार्वती ने मुँह बनाकर कहा । अब तक उसकी धड़कनों की रफ़्तार भी थोड़ी धीमी हो गयी थी और ड़र भी कम हो गया था।
क्यों ?? क्या तुमसे विवाह नहीं किया ?
''हाँ '' किया ,वो तो सभी का होता है ,मेरी सखी का भी हुआ था किन्तु उसके बिन्द ने उसे कहीं घुमाया नहीं और उसे माँ बना दिया। तुम अच्छे हो ,मुझे घुमाया। वो अब तक आपसे तुम पर आ गयी थी।
तुम्हें घूमना पसंद है ! किन्तु माँ बनना नहीं और क्या पसंद है ?कितना पढ़ी हो ?
एक -दो बार पढ़ने गयी थी किन्तु बापू सा ने मना किया।
पढ़ना चाहोगी !
उसने फिर से ,''हाँ ''में गर्दन हिलाई।
ठीक से ,ऊपर पैर रखकर बैठो ! अब तुम्हें इसी पलंग पर सोना है ,उसके इतना कहते ही वो एकदम से खड़ी हो गयी। क्या हुआ ?मैं तो तुम्हारा बिंद हूँ न !अपने बिंद का कहा मानो।
अब मैं अपने घर कब जाउंगी ?
अभी तो तुम अपनी ससुराल भी नहीं पहुँची ,कहते हुए उसने मेरा हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचा। मैं उसके ऊपर तो नहीं ,किन्तु उसके बराबर में गिर गयी। घबराहट में फिर से उठ बैठी।
क्या तुम्हारी सहेली ने नहीं बताया ? पति के पास उसके समीप सोते हैं।
नहीं...... वो तो रो रही थी ,उसका पति अच्छा नहीं था।
मैं तो अच्छा हूँ ,अभी तुमने कहा।
''हाँ ''अच्छे तो हो...... कुछ सोचते हुए ,उसने बात बीच में ही रोक दी।
आओ !करीब तो बैठो !
नहीं ,मैं उस कोने पर सो जाऊंगी ,कहकर वो पलंग के एक कोने में सिमटकर लेट गयी। तरुण ने उसे नज़रभर देखा। मासूम सी,सहमी सी वो उसे अच्छी लग रही थी ,उसका दिल चाहा ,उसे अपने आगोश में ले ले ,दिल में ये विचार आते ही ,वो उसकी तरफ बढ़ा। वो झट से ,पलंग से उठ खड़ी हुई और बोली -मेरे क़रीब मत आना ,तुमने घुमाया ,कपड़े दिलवाये इसका मतलब तुम मेरे नजदीक आने के लिए कर रहे थे। मैं इतनी भी भोली नहीं ,मैं जानती हूँ ,आदमी एक लड़की के क़रीब आते हैं और कुछ न कुछ तो करते ही हैं जिससे वो जीवनभर रोती है। मुझे ऐसी मत समझना।उसकी बातों से तरुण को तनिक क्रोध आया -कैसी लड़की है ?
अपने क्रोध पर नियंत्रण करते हुए ,उसने समझाना चाहा ,ये तुमसे किसने कहा ? तुम्हारी माँ और बापू भी तो बिंद -बिंदनी हैं।
हैं तो क्या ?मैंने अपनी माँ को कई बार रोते देखा है।
तरुण पढ़ा -लिखा समझदार व्यक्ति था ,नौकरी करता था। उसके एक बहन और उसे मिलाकर दो भाई हैं। पिता के चले जाने के पश्चात ,उसी ने अपनी पढ़ाई भी की और काम करके घर भी चलाया। ज़िंदगी ने उसे बहुत कुछ सिखाया ,ज़िंदगी के उतार -चढ़ाव पार करते हुए वो आगे बढ़ता गया और उसकी उम्र भी बढ़ती गयी।अब तो ,घर परिवार में सब ठीक -ठाक चल रहा था किन्तु अब माँ को उसके विवाह की चिंता सताने लगी और वो चाहती थी- कि छोटे से पहले मेरे बड़े का विवाह हो जाये किन्तु बिरादरी में ,अधिक उम्र के और काले लड़के से विवाह करने को कोई भी लड़की तैयार नहीं हो रही थी क्योंकि तरुण जंचता भी नहीं था। तब किसी ने गुजरात से लड़की लाने का सुझाव दिया। वहां के लोग ,कुछ धन में अपनी लड़की दे देते हैं इसीलिए तरुण अपने भाई के साथ वहाँ गया था। पार्वती का पिता ,ये नहीं चाहता था कि पार्वती की माँ को या पार्वती को कुछ भी पता चले इसीलिए उसने विवाह का नाटक सा करवाया था।
क्या पार्वती को उसकी ज़िंदगी का ये राज पता चल पायेगा? कि जो उसका बिंद बना हुआ है जिसने उससे विवाह किया है वो उसे उसके पिता से खरीद कर लाया है । आगे उनके रिश्ते में क्या - क्या बदलाव आयेंगे? जानने के लिए पढ़ते रहिये -ऐसी भी ज़िंदगी