पार्वती के बेटी तो हुई ,किन्तु तरुण का व्यवहार बदलने लगा। जब वो अपनी लड़की के संग होती ,तो वो झुंझला जाता। ये कैसी विडंबना है ? एक आदमी को औरत की चाह होती है किन्तु जब उसी के घर में ,एक कन्या जन्म लेती है ,तब उसे अच्छा नहीं लगता। भोग के लिए औरत की चाह होती है किन्तु उसका रक्षक पालनहार नहीं बनना चाहता। पार्वती ने तो अपने को ,समय के अनुसार ढाल लिया। उसकी न ही कोई किसी से शिकायत ,न ही इच्छा !वो तो जैसे ,अपनी ज़िम्मेदारियों को पूर्ण कर रही थी। इस घर से उसे जो भी सुविधाएँ मिल रही थीं ,उनके बदले उसने किसी से उम्मीद न करना ,किसी से कुछ न कहना और समय के बहाव की तरह ही बहती जा रही थी। परिवार के साथ ही , रहते हुए भी निर्लिप्त थी।
किसी को कहने से ,कुछ लाभ भी तो नहीं था, जिसको जो करना है ,वो करेगा ,उसे रोक नहीं सकती। क़िताबी ज्ञान तो कम था किन्तु ज़िंदगी हर पल ,कुछ नए एहसास कराती और कुछ न कुछ सीखने को मिल ही जाता। शिक़वा करे भी तो, किससे ?''सभी अपने लगते हैं किन्तु साथ कोई नहीं''। उसने तो बस ,अपने जीवन का उद्देश्य बनाया, प्रसन्न रहना और अपनी बच्ची को पालना। इस उम्र में भी इतनी समझदारी ,कोई कह नहीं सकता ,कि सत्रह -अट्ठारह वर्ष की होगी अथवा उसे समझौतों ने समझदार बना दिया। समझदारी उम्र से नहीं ,जीवन के अनुभवों से स्वतः आ जाती है। कई बार ,कोई भी रास्ता न दिखने पर भी आदमी समझदार हो ही जाता है। कारण कोई भी हो ,पार्वती के पास तो ये सभी कारण उसे समझदार बनाने के लिए काफी थे।
जब बड़ी दो बरस की हुई ,तब छोटी भी ,उसके अंदर कुलबुलाने लगी। अबकि बार भी ,वो दाई आई थी ,और माँ की डांट भी बहुत पड़ी। तू फिर नहीं दिखाई दी ,कहाँ चली गयी थी ?तू क्या सोचती है ?जब तू नहीं होगी ,तो क्या ,बच्चे नहीं होंगे ?
वो मुस्कुराकर बोली -आपको मेरी आवश्यकता ,बच्चे को परखने की थी ,पोता है या पोती ! बस यही जानना था। क्या करोगी ?ये सब जानकर !जो उस उपरवाले ने दिया है ,ख़ुश होकर या फिर अपनी झोली फैलाकर लो ,ये तो उसका प्रसाद है ,उसके कार्य में क्यों ख़लल डालती हो ?
अब तू हमें समझायेगी ,हमें क्या करना है ,क्या नहीं ?जो तेरा काम है ,तू उसे कर....... समझी !
एक बात पूछूँ !!यदि ये बहु न होती ,तब आप अपने दोनों बेटों से ही ,वंश बेल कैसे आगे बढ़ातीं ?
ये न होती तो कोई और आती ,कहकर वो अपनी ही बात पर मुस्कुरा दीं या फिर दाई के शब्दों का भाव समझकर भी नहीं समझने का अभिनय किया।
ये औरत जात ही ,अपनी खुद की दुश्मन बनी रहती है ,खुद के लिए ही नहीं खड़ी हो पाती है। पुरुष को पैदा करके भी ,उसके सामने कमजोर बनी रहती है। उसकी भोग्या बनती है किन्तु अपने ही अस्तित्व को नकारती है। ऐसी नारी जाति का ऊपरवाला ही है ,तभी वो है। दाई का बुदबुदाना सुनकर उन्हें लगा ,ये बहु के समीप ही बैठी है। कहीं बहु को कोई उल्टी -सीधी पट्टी न पढ़ा दे।
तब पार्वती से बोलीं -तू अंदर जा ,अपना काम देख और समय पर दवाई और भोजन करना । तब दाई की तरफ देखकर बोलीं -अब तू बता !अबकि बार तो बेटे के लक्षण दिख रहे हैं या नहीं।
आजकल कुछ पता नहीं चल पाता ,आजकल की बहुएं भी तेज हो रही हैं। ऐसे ही कोई बहाना बनाकर बोली -ठाकुरसाहब की बहु को मैंने बताया -''पोती के लक्षण दिख रहे हैं किन्तु उसके पोता हुआ। ''उन्होंने बहु को बहुत ही परेशान रखा ,जब पोता हुआ ,मुझे भी चार बातें सुनने को मिलीं। अब मैं किसी की बद्दुआ नहीं लेती। अब मेरी नजर भी तो ,कमज़ोर होती जा रही है ,जो भी होगा ,अच्छा ही होगा। जितनी अनुभवी और चालाक वो दाई बनने की कोशिश कर रही थी। पार्वती की सास भी तो ,ज़िंदगी को जी चुकी थी। उन्होंने भी अपनी ज़िंदगी में न जाने किन -किन को देखा है ? अनुभव भी दाई से कम नहीं था ,वो ताड़ गयीं थीं कि दाई अपने बचाव के लिए झूठ बोल रही है। वो बोली -अब हमें तेरी कोई आवश्यकता नहीं ,तू जा !हम देख लेंगे ,हमें क्या करना है ? जब वो उठकर जाने लगी ,तब बोलीं -अपनी आँखों पर चश्मा लगवा लेना ,तेरी आँखें कमज़ोर हो गयीं हैं न......
वो समझ गयीं थीं ,अबकी बार भी लड़की ही होगी। पता नहीं ,उन्होंने क्या सोचा होगा ?पार्वती को कपड़े धुलने को देतीं ,कभी पोछा ,कभी बर्तन पिछली बार की तरह ,अबकि बार आराम करने नहीं दिया। सोचा हो -अधिक कार्य करने से ,शायद मेरा गर्भपात हो जाये। कभी -कभी लाड़ दिखाने लगतीं, बड़ी बेटी या तो दादी के पास रहती या फिर मेरे पास। अपने पापा को देखकर तो ड़र जाती किन्तु अब थोड़ा उनके साथ खेलने भी लगी या फिर उन्हें मुझसे हमदर्दी हो गयी। जब दूसरी बेटी आई ,दूध सी सफेद ,प्यारी सी गोलू -मोलू सी थी।
किन्तु इस बार तरुण बोले -तुम इसी तरह बेटियाँ पैदा करती रहीं तो वो दिन दूर नहीं ,जब मैं भी तुम्हारे बाप की तरह हो जाऊँगा।
ये शब्द मेरी सास यानि उनकी माँ ने भी सुने ,बोलीं -ठीक ही तो कह रहा है ,माँ -बाप का घर छोड़ दिया किन्तु मुझे तो लगता है ,अपनी माँ पर ही गयी है ,जैसे उसके तीन -चार लड़कियां थी ,ये भी हमारा घर ऐसे ही भरने वाली है। हर कोई उससे और उसकी बेटियों से कटा -कटा सा रहता। बड़ी बेटी तो पिता के मन में थोड़ी जगह बना भी पाई ,शायद वो पहला बच्चा थी , किन्तु दूसरी नीलिमा को तो देखते भी नहीं थे। जैसे उसने पैदा होकर कोई गलती कर दी हो।दोनों ही पढ़ने जाने लगीं ,बड़ी छोटी का ख्याल रखती।
अबकि बार तो बेटा ही होना था ,इस बार दाई ने देखा ,तो बिना पूछे ही बोली -छोटी वाली भाग्यवान है ,बाप की तरक्क़ी हुई और अब देखना भाई लेकर आएगी।
सास ने चिढ़कर कहा - तुझे तो दीखता नहीं था।
हाँ ,जहाँ भी कुछ मुझे ग़लत होता दीखता है ,वहाँ मैं नहीं देख पाती। आज मुझे साफ नजर आ रहा है ,ये अपना भाई लाएगी ,आज तो दादी ने भी ,पोती को नजरभरकर देखा और उससे बोलीं -जा फ्रॉक पहनकर आजा ,तुझे बाहर घुमाकर लाऊंगी। दादी की ऐसी प्यारभरी बाते सुनकर ,नीलिमा दौड़ते हुए अंदर गयी और फ्रॉक पहनकर बाहर आ गयी। आज पहली बार दादी ,उससे प्यार से बोली थी और उसे आइसक्रीम भी खिलाकर लाई। उसने घर आकर अपनी मम्मी को सब कुछ बताया ,उसकी प्रसन्नता देखकर पार्वती की आँखों में आंसू आ गए। औलाद के लिए माँ क्या नहीं कर गुजरती ? पार्वती भी सब कुछ सहन करते हुए ,अपनी बेटियों की परवरिश कर रही थी।
क्या अबकी बार दाई सही थी? क्या पार्वती के बेटा हुआ या फिर से तीसरी बेटी उसके घर आयेगी ? क्या उसके पति और सास का व्यवहार बदला? जानने के लिए पढ़िये - ऐसी भी ज़िंदगी