पता नहीं ,ये ज़िंदगी भी न..... कहाँ कि कहाँ ले जाती है ? इंसान सोचता कुछ है और ये न जाने कहाँ लेजाकर पटक देती है ?कितने मन से ,अपने बेटे का विवाह किया। सुंदर और पैसेवाले घर की बहु भी आई ,सब कुछ ठीक ही तो चल रहा था। बेटे की भी पसंद थी ,माँ को भी...... फिर इस ज़िंदगी को समझने में कहाँ कमी रह गयी ?ये हमारे हिसाब से नहीं चलती। ये हमें अपने हिसाब से चलाती है फिर भी हम इसकी चाल समझ नहीं पाते। ज़िंदगी तो क्या चलेगी ?जो अपनी है ,इंसान ही एक दूसरे को समझने में गलतियाँ कर बैठता है और ये समझ -समझ का ही फेर है, जो ज़िंदगी इतनी कठिन नजर आती है। बिजेंद्र को भी तो यही लग रहा था। वो घर से बाहर आ गया किन्तु उसका मन तो पीछे अपने घर में ही रह गया। जहाँ उसकी पत्नी क्रोधावेग में ,अपने घर जाने के लिए तैयार बैठी है। आज उसने उसे थप्पड़ जो लगाया है।
उसका मन अपनी गलती मानने के लिए तैयार नहीं ,गलती उस अकेले की ही नहीं वरन उसकी भी तो थी ,जिस बच्चे को उसने गिराया था उसका अकेली का नहीं था। फिर वो उसे न रखने का फैसला अकेली कैसे ले सकती है ?वो बाहर पड़ी ,ऐसे ही किसी बेंच पर बैठ गया ,गहरी साँसें लेते हुए आँखें मूंदकर चेहरे को ऊपर कर बैठ गया। विचारशून्य हो कुछ देर इसी तरह बैठा रहा ,धूप तेज थी ,उसकी गर्माहट भी किन्तु उसके अंदर जो ज्वालामुखी खौल रहा था ,उससे कम।
मोहनलाल जी ने ,एक प्रयत्न और किया अपने बेटे का घर बचाने के लिए, किन्तु सब व्यर्थ। ये कैसी महिला है ?जिसने अपने बच्चे को गिरा दिया और अपने घर को बचाने की भी कोई इच्छा नहीं। कभी -कभी किसी को समझना कितना मुश्किल हो जाता है ?कि जो वो कर रहा है या दिख रहा है ,वो सही है या जो वो दिखा नहीं रहा ,शायद उसने भी अपने लिए कुछ सोचा ही होगा ,तभी अपने इस तरह घर उजड़ने का उसे कोई ग़म नहीं। तब भी पल्ल्वी ने एक आख़िरी कोशिश करते हुए कहा -अभी बच्चे क्रोध में हैं ,जब इनका क्रोध शांत होगा ,तब इन्हे अपनी गलती का एहसास होगा। तब शायद एक -दूसरे को माफ़ कर सकें ,कुछ दिन दूर रहेंगे तो आपस का प्यार भी बढ़ेगा ,तब बहु को बुला लेंगे।
बहु के पिता ने सुना ,बोले कुछ नहीं, किन्तु उनकी बेटी बोली -अब आप मुझसे क्या उम्मीद रखते हैं ?कि मैं उसके इस गरीबखाने में दुबारा आऊंगी ,मुझे उस फोकटिया के संग नहीं रहना कहकर अपने बाप की गाड़ी में बैठ गयी। हम उसकी नजर में ,शायद अपना सम्मान खो बैठे थे। वो न ही हम से मिली ,पाँव छूना तो दूर..... उसने नमस्ते भी नहीं किया।उसके इस तरह जाने के अंदाज से ,हमें लग गया था वो वापस न आने के लिए जा रही है। उसके जाते ही घर एकदम शांत हो गया।जैसे किसी के मर जाने पर मुर्दनी सी छा जाती है।हाँ ..... मौत तो हुई है ,इस घर के ,अजन्मे चिराग़ की। दर्द था ,एक रिश्ते के चटकने का। किसी का भी कुछ भी कहने और करने का मन नहीं था। धीरेन्द्र ने भी ये सब अपनी आँखों से देखा ,पता नहीं ,इस घटना ने उसके मन पर क्या प्रभाव छोड़ा ?ये तो कुछ दिनों पश्चात पता चला।
बिजेंद्र न जाने सारा दिन कहाँ भटकता रहा ? खाना भी नहीं खाया ,एक दिन में ,कई दिनों का बीमार लग रहा था। अब तक तो वो चली गयी होगी किन्तु किसी उम्मीद से उसने इधर -उधर देखा किन्तु उसे तो जाना था वो गयी।पल्ल्वी ने उसे ,देखकर कहा -वो चली गयी ,उसने एक बार भी ,मुड़कर नहीं देखा। तू ये उम्मीद मत लगा कि वो आएगी।
मोहनलाल जी बोले -तुम्हारे इस क्रोध के कारण ,ये घर चुटकियों में बिखर गया।
मैं तो उसकी हरकतों को, इतने दिनों से नजरअंदाज ही तो कर रहा था किन्तु आज तो उसने सीमा ही लाँघ दी। कहती है - उसे माँ नहीं बनना ,आप ही बताओ ! ऐसा कौन सी औरत चाहेगी ? ये तो एक न एक दिन होना ही था। अब भी बर्दाश्त करता ,तब वो कोई और ऐसी हरक़त करती , बातें होतीं। जिसे जाना होता है ,वो जाकर ही रहता है। आप लोगों ने उसे और उसके बाप को कितना समझाया ? किन्तु किसी के भी समझ में कुछ नहीं आया। यदि उसे रुकना होता ,तो बहाना भी कर सकती थी कि वो नहीं आये ,या उनसे मिल कर ही जाना है या अभी नहीं जा रही। सबसे बड़ी बात..... वो उन्हें फोन करके बुलाती ही नहीं। अपने घर की बात घर में ही रहने देती ,मुझसे रूठती ,बात नहीं करती किन्तु जाने का नाम ही नहीं लेती। बिजेंद्र का ये तर्क सुनकर पल्ल्वी और मोहनलाल जी चुप हो गए। इस समय उन्हें अपने बेटे के तर्क सही लग रहे थे।
ऐसी बातें छुपती कहाँ हैं ? धीरे -धीरे सम्पूर्ण कॉलोनी को पता चल गया। सक्सेना जी की बहु घर छोड़कर ही चली गयी। पल्ल्वी ने बात को बहुत साधा और बताया कि कुछ दिनों के लिए अपने मायके गयी है ,उसे उम्मीद थी- कि शायद वो वापस आ जाये। दीपावली आ रही है ,इस बहाने से बहु के मायके फोन लगाया। पहले तो किसी ने फोन उठाया भी..... तो जब मालूम हुआ कि उसकी ससुराल से फोन है तब फ़ोन काट दिया। देखो जी !ये कैसे लोग हैं ?अपनी बेटी की गलती होने पर भी ,उन्होंने उसी का समर्थन किया। ऐसे माँ -बाप अपनी बेटी का घर क्या बसायेंगे ?जो उसकी गलतियों पर पर्दा डाल दें ,उन्हें तो समझाना चाहिए कि अपने घर को कैसे संभालना है ? घर में कुछ ऊँच -नीच हो जाये तो अपने तरीके से संभाले। साथ खड़े हों किन्तु घर तोड़ने का न ही सोचें न ही सोचने दें। उन्हें तो स्वयं ही फोन करके बात करनी चाहिए कि इसे अपने घर ले जाएँ और उसे भी समझायें ,कि अपने घर जाये किन्तु उन लोगों ने एक बार भी फोन नहीं किया। बच्ची के परिवार से ज्यादा उनका अहंकार बड़ा है।
पल्ल्वी ने त्यौहार की ख़ातिर उनके घर फिर से फोन किया ,इस बार बहु ने ही फोन उठाया और बोली -क्यों बार -बार फोन कर रही हैं ? एक बारी में समझ नहीं आता।
बहु तुम्हें नहीं लगता ,अब तुम्हें अपने घर आ जाना चाहिए ,बात को जितना भी ज्यादा बढ़ाओगे ,बढ़ेगी। अब त्यौहार आ रहे हैं ,अब तो अपने घर आ जाओ !
ये चिंता आपको क्यों हो रही है ?जिसने गलती की है ,उसने तो एक बार भी फोन नहीं किया। वो फोन करता ,मुझसे क्षमा याचना करता ,तब मैं सोचती - मुझे आना है या नहीं।
हम तो बड़े हैं ,उसके माँ -बाप हैं ,जब हम कह रहे हैं ,तो क्या वो हमसे बड़ा है ?आओ !त्यौहार के दिन अपना घर सम्भालो ,रिश्ते इस तरह यूँ ही नहीं तोड़े जाते।
मुझे मत समझाइये ,जाइये ! पहले अपने उस बिगड़े हुए लड़के को समझाओ और मेरा समय बर्बाद मत करो !कहकर उसने फ़ोन काट दिया ,पल्ल्वी को बड़ी बेइज्जती महसूस हुई ,वो बहु को तो क्या वो किसी को भी फोन न करती वो तो अपने परिवार के मान के लिए ,उसने फोन किया किन्तु बहु के ऐसे जबाब सुनकर ,तुनककर बोली -भाड़ में जाये ,जिसे अपने घर के मान -सम्मान ,अपने पति ,बड़ों का भी सम्मान नहीं ,उसे अब इस घर में नहीं बुलाऊंगी ,अब वो आना भी चाहे ,तो भी नहीं बुलाऊंगी।
दोस्तों बहुत ही दुःख होता है ,जब ज़िंदगी की या ज़िंदगी की सच्चाइयों से जुडी कहानी को लोग कम पसंद करते हैं या उतना सहयोग नहीं दे पाते जितना उन्हें देना चाहिए। जबकि फॉलो करने में ,प्रोत्साहन देने में उनका कोई पैसा खर्च नहीं हो रहा फिर भी उतना सहयोग प्राप्त नहीं हो रहा ,जिन पाठकों ने अपना समय और सहयोग मेरी कहानियों को दिया है ,उनका तहेदिल से आभार !आगे क्या हुआ, पढ़ते रहिये -ऐसी भी ज़िंदगी