कुछ समझ नहीं आता ,जीवन में कब ,क्या घटित हो जाये ? जीवन को समझने के फेर में अच्छे - अच्छे चले गए ,बस इसको समझना नहीं है ,इसको एन्जॉय करना है।'' धीरेन्द्र ने अपने दोस्तों को अपना दृष्टांत दिया।आज धीरेन्द्र और नीलिमा के बेटे का 'नामकरण संस्कार 'जो है। इसी ख़ुशी में आज उसने अपने सभी दोस्तों और रिश्तेदारों को भी बुलाया। उसके एक -दो दोस्त को तो अंदाजा हो भी गया था कि वो अपने ही घर की नौकरानी चम्पा से संबंध बनाये हुए है।
प्रतिक ने उसे समझाया भी ,कि तू अब तीन बच्चों का बाप बन गया है ,ये सब छोड़ दे ,अपनी जिम्मेदारियों पर ध्यान दे।
तब धीरेन्द्र ने उसे ,अपनी ज़िंदगी जीने का और उसको समझने का अंदाज बतलाया।
तू तो मजे करता रह ,हमारी भी तो सेटिंग करा ,तपन ने होठों पर अपनी जीभ फेरते हुए कहा। एक बात है ,दावत तो तूने शानदार की है।
धीरेन्द्र का जो भी कार्य होता है ,शानदार ही होता है।
मन ही मन उसने उसे घूरा ,वो कहना तो बहुत कुछ चाहता था किन्तु ये माहौल ही ऐसा था ,सब अपनी दुआएं उसके बेटे के लिए लेकर आये थे ,ऐसे में कुछ भी कहना भी सही नहीं था। धीरेन्द्र बचपन से ही पैसे में पला -बढ़ा ,मनचाहा व्यय किया, पढने के पश्चात नौकरी लगी। उससे पहले ही कॉलिज की सबसे हसीन लड़की उसे मिली ,जिससे उसने प्यार किया। हालाँकि उससे विवाह नहीं हो पाया किन्तु विवाह जिससे भी हुआ वो भी सुंदरता में कम नहीं थी। बाहरी तौर पर देखा जाये तो उसकी ज़िंदगी बहुत ही शानदार लगती है। किन्तु यदि उसकी ज़िंदगी में झाँका जाये तो ,खोखलेपन के सिवा वहां कुछ नहीं था किन्तु जलने वालो को उसके ग़म नहीं दिखते उसके जीवन का खोखलापन नहीं दिखता। जिसे वो जीने का तरीक़ा कह या समझ रहा है। उसकी नजरों में ही तो सही है ,किन्तु उससे जलनेवालों के लिए यही काफी है।
वो तो अपनी ही दुनिया में मस्त रहना चाहता है ,न ही किसी की सुनता है ,न ही किसी की बातों की उसे परवाह है। तभी तो माता -पिता ने भी उसे ,इसीलिए ही तो अलग किया था ताकि वो अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए ,उनका अच्छे से निर्वहन कर सके। किन्तु ऐसा लगता है ,उसे तो जैसे 'आग से खेलने की आदत है। '' वो ये नहीं जानता ,ये क्षणभर की ख़ुशियाँ उसे ''खून के आंसू ''भी रुला सकती हैं। इन सबसे बेपरवाह वो अपने बेटे का' नामकरण संस्कार 'मना रहा है। आगे आने वाली ज़िंदगी में क्या घटने वाला है ? कोई नहीं जानता ,धीरेन्द्र भी नहीं जानता कि पलभर में क्या हो जाये ?इसीलिए वो हर उस पल को जीना चाहता है ,जो उसे खुशियां दे। बेटे का नाम 'अथर्व 'रखा गया।
सबका आशीर्वाद उसे मिला ,तभी पड़ोस की एक महिला ने ,जो लगभग जीवन के चालीस पार कर चुकी होगी।नीलिमा से बोली -नीलिमा देखो ! मुझे बच्चे की हरकतें ,आम बच्चे की तरह नहीं लग रहीं ,जब देखते है तो एक ही तरफ को देखता रहता है।
नहीं दीदी !सब सही है ,अभी आपको भ्र्म हो रहा है ,अभी सवा महीने का ही तो है ,जैसे -जैसे बड़ा होगा सब सही होगा।
सब कर्मों का ही लेखा -जोखा होता रहता है ,कुछ कर्मों का प्रभाव अपने परिवार पर भी पड़ता है और जब बालक संसार में आता है ,तो वो भी तो कुछ लिखवाकर ही आता है।बात आई - गयी हो गयी। सबके लिए खाने का भी इंतजाम था। सभी ने खाना खाया और आशीर्वाद देकर चले गए। दोनों पति -पत्नी भी प्रसन्न थे ,उस समय तो नीलिमा ने अपनी पड़ोसन को ,यह कहकर कि उसका भ्रम है, कहकर टाल दिया किन्तु अपने मन को नहीं समझा सकी क्योंकि उसने उससे पहले भी तो दो बेटियाँ पाली हैं। पड़ोसन के टोकने पर उसका ही भ्रम उसे यकीन में बदलता नजर आया। मन ही मन वो परेशान तो हो रही थी किन्तु अपना दुःख किसी से कहना भी नहीं चाहती थी।
एक दिन बच्चों के डॉक्टर के पास भी गयी तो, उसने भी बताया अभी देखो ! समय के साथ इसमें क्या बदलाव आते हैं ,वरना इसका इलाज़ करना होगा।
धीरेन्द्र पर लोगो का काफी कर्ज़ा चढ़ गया था ,मांगने वाले तो मांगेंगे ही, किसी ने सच ही कहा है -'तेते पांव पसारिये ,जेति लाम्बी सोेर। ''किन्तु ये कहावत धीरेन्द्र पर सही नहीं बैठती। उसने तो जैसे कुछ सोचा ही नहीं ,और अब तो नीलिमा को भी खुले हाथ से व्यय करने की आदत बन गयी। बचपन में कठोर नियंत्रण में रही ,सास -ससुर के साथ भी थोड़ा संभलकर रही किन्तु अब तो'' अपना करना ,अपना खाना। '' कम उम्र में ज़िम्मेदारियों के साथ -साथ गृहस्थी और ऊपर से खुला हाथ। घर की ऊंच -नीच समझाने वाला कोई नहीं।
नीलिमा के अस्पताल का खर्चा ,चम्पा के साथ अय्याशी का खर्चा और अब इस 'नामकरण समारोह 'का व्यय ,दिन ब दिन खर्चे बढ़ते जा रहे हैं। कोशिश भी की कि अबकि बार संभलकर चलना है किन्तु हाथ तंग होता ही गया। अब तो वे दोस्त भी ,उससे चिढ़ने लगे जो कभी उसके पैसों पर अय्याशी करते थे ,अब उसे देखकर अपना रास्ता बदल लेते हैं। कभी बीमारी ,कभी पढ़ाई कुछ न कुछ कारण बन ही जाता जिनका पैसा लिया ,उन्हें नहीं दे पाता। नीलिमा ने अपने बच्चे की बीमारी को अभी तक उससे छिपाये रखा ,वो नहीं चाहती थी ,कि अभी धीरेन्द्र को कुछ भी पता चले क्योंकि जो ख़ुशी उसे मिली है ,उससे इतनी जल्दी दूर होना नहीं चाहती थी। अपने मन को भी अभी समझा ही रही थी।
एक दिन अचानक ,नीलिमा अपने घर[मायके ] पहुंच गयी। सभी हैरान थे ,कोई सूचना नहीं ,अचानक ही धावा बोल दिया। माँ अपनी बेटी को देखकर बहुत प्रसन्न हुई ,बेटी के आने से घर में जैसे रौनक आ गयी। बेटियाँ भी मामा के यहाँ आकर प्रसन्न थीं। नाना से बात करने का प्रयास करतीं किन्तु नाना ने ऐसी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। बड़ी बहन चंद्रिका भी उससे मिलने आई ,अपने घर भी बुलाया और उससे पूछा -कितने दिनों के लिए आई है ?
अब तो मैं यहीं रहूंगी और यहीं रहकर अपनी बच्चियों को पालूँगी।
नीलिमा की बात सुनकर ,चंद्रिका के हाथ से चाय गिरते -गिरते बची ,वो आश्चर्य से बोली -ये तू क्या कह रही है ?
,हाँ सही तो कह रही हूँ ,अब मैं नहीं जाउंगी। हाँ, दी... यहीं रहकर अपने बच्चों को पालूंगी।
क्या ,तेरे और धीरेन्द्र के बीच झगड़ा हुआ है ?
क्या दीदी ! क्या मैं अपने घर में नहीं रह सकती ?
तू समझ नहीं रही है ,जो मैं तुझे समझाना चाह रही हूँ।
मैं , समझना भी नहीं चाहती। ऐसी क्या बात है जो निलिमा अपनी बहन से छुपा रही है? क्या उसके पापा निलिमा को उसके तीन बच्चों के साथ उस घर में रख लेंगे? जानने के लिए पढ़िये ऐसी भी ज़िंदगी