समझ नहीं आता ,ज़िंदगी भी न जाने, क्या खेल खेल रही है ? एक उम्मीद जगाती है ,दूसरे ही पल सोचने पर मजबूर भी कर जाती है या कोई एहसास दिलाती है कि वो स्वयं कुछ भी नहीं। वो नहीं खेल रहा वरन ज़िंदगी उसे अपने हिसाब से चला रही है और पल -पल एहसास भी कराती है। न समझने पर ,उसके कर्मो का लेखा -जोखा उसे यहीं पर भोगना पड़ जाता है ,वो तो फिर भी देखा जाये किन्तु कई बार उसका असर उसके साथ रहने वालों पर भी पड़ता है। सभी कीचड़ के कमल नहीं हो सकते ,कभी न कभी उस कीचड़ की छींटे आस -पास के वातावरण को भी गंदा करते ही हैं।
नीलिमा अपने मायके आने का कारण, किसी को भी, नहीं बताती किन्तु अपनी बहन चंद्रिका से अवश्य कहती है -कि मैं, अब अपने घर नहीं जाऊँगी किंतु न जाने का कारण नहीं बतलाती। उसका दिल करता, किसी से अपने दिल की बात कहे ,उसके काँधे पर सिर रखकर रो दे, किन्तु अपने को मजबूत बनाये हुए थी।अपना दुखड़ा रोये भी तो किसके सामने ? पिता से कोई उम्मीद नहीं, माँ से कहा भी तो कुछ कर नहीं सकती।इतने दिनों से ससुराल में रहकर भी तो वो ,अपने को मजबूत होने का अभ्यास ही तो कर रही थी किन्तु रिश्तों में अभी भी विश्वास बाकि था। ऐसे समय पर ही तो ,उनकी परख होती है।
चंद्रिका ने उसे समझाया- कि बिना पिता के, इस तरह तीनो बच्चों को अकेली नहीं पाल पायेगी। जिसके बच्चे हैं ,उनकी जिम्मेदारी भी उसे ही उठानी चाहिए किन्तु नीलिमा को अभी कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। अभी उसे वहां रहे तीन दिन ही हुए थे।
कितने दिनों के लिए आई है ? ये बात !पापा उसकी मम्मी से पूछ रहे थे।
मुझे क्या मालूम ?अब आई है ,तो थोड़े दिन रहने दीजिये ,अभी आये हुए उसे दिन ही कितने हुए हैं ?
मैं ये नहीं कह रहा हूँ ,मैं तो ये कहना चाह रहा था -कि इसकी ससुराल में सब ठीक तो है। कोई लड़ाई -झगड़ा या फिर दामाद से कोई अनबन तो नहीं हुई।
मुझे तो उसने कुछ भी नहीं बताया।
तुम भी कैसी माँ हो ?तुम्हें उससे पूछना चाहिए था -'घर में सब कैसे हैं ?दामाद कैसे हैं ?कितने दिनों के लिए आई है ?
अब आये न....सही मुद्दे पर, आपको ये जानना है कि जायेगी कब ? रहने दीजिये ,जब मन होगा, चली जाएगी।
क्या चली जाएगी ?तुम देख नहीं रही हो ,तीन बच्चों का खर्चा है ,दूध है ,साग -सब्ज़ी है ,और भी खर्चे हैं। उनकी बातें सुनकर ,नीलिमा के मन में ,जो अपने घर आने का उत्साह था ,ठंडा पड़ गया। वो तो सोच रही थी ,अब यहीं रहेगी किन्तु ...... उनकी बात भी ठीक ही है ,जब इनसे अपनी बेटी खर्चे नहीं उठाये गए ,तब ये मेरे बच्चों का खर्च कैसे वहन कर सकते हैं ?अपने आपको दोष देते हुए सोचती हैं - मैं ,कैसे इन लोगों पर विश्वास कर सकती हूँ ?कि मेरी किसी भी परेशानी में, मेरे साथ खड़े होंगे।मुझे यहाँ आये तीन दिन हो गए किन्तु किसी ने भी ,कारण जानने का प्रयत्न नहीं किया ,मैं कैसी हूँ ? मेरे अंदर जो बवंडर चल रहा है ,उसे कौन शांत करेगा ?किससे ,मैं अपनी परेशानी बाँट सकती हूँ ?
एक नजर अपनी ज़िंदगी पर डालती है। दीदी, ठीक ही कह रही थी ,क्या सही है ,क्या गलत कुछ समझ नहीं आ रहा। कभी लगता है ,सभी अपने ही तो हैं ,मेरा भरा -पूरा परिवार है किन्तु जब साथ खड़े होने की उम्मीद करती हूँ तो अपने को अकेला पाती हूँ। धीरेन्द्र कैसा भी है ? जो भी करेगा ,अपने परिवार और अपने बच्चों के लिए ही करेगा , उसकी जिम्मेदारी बनती भी है कि अपने परिवार का बोझ उठाये।
कितने मन और अधिकार से वो यहाँ आई थी ?किन्तु अपनापन तो पहले भी नहीं था ,अब तो लगता है -जो अधिकार वो इस घर पर समझती थी ,वो उसका भ्रम निकला।उसे डर था ,जब धीरेन्द्र को उसके बेटे की बीमारी के विषय में पता चलेगा , पता नहीं ,उसका क्या 'रिएक्शन 'होगा ? उसकी माँ के कथनानुसार तो' मैंने अपनी माँ की तरह ही बेटियों की लाइन लगा दी है। उनके इन्हीं तानों से बचने के लिए ही तो ,परेशानी होने के बावजूद भी ,मैं अलग घर में खुश थी। उन्होंने भी मेरे साथ ,क्या -क्या नहीं किया ?मेरे साथ कितना भेदभाव करती थीं ?जब हम सहते रहते हैं ,लगता है ,यही ज़िंदगी है या ज़िंदगी का हिस्सा ही है किन्तु जब उस वातावरण से बाहर आते हैं। तब एहसास होता है ,हम कितने ग़लत जा रहे थे ? हम सही होकर भी, गलत के विरुद्ध आवाज नहीं उठा पाते हैं क्योकि अपने रिश्ते ही तो हैं ,अपनों से लड़ा भी नहीं जाता। अपने विषय में सोचने का मौका ही नहीं मिलता, उन्हीं के बनाये नए -नए षड्यंत्रों में फंसे रहते हैं। इतना पैसा होने के बावजूद भी ,उन्होंने मुझे नौकरानी बना दिया था। मेरे कपड़े मशीन में भी नहीं धुलते ,जैसे मैं कोई अछूत हूँ। घर के अन्य सदस्यों के कपड़े, मैं ही उसी मशीन में धोती किन्तु मैं अपने कपड़े नहीं धो सकती थी। पहले तो मैं कुछ समझ नहीं पाई कि वो ऐसा क्यों कर रही हैं ?बाद में ज्ञात हुआ ,उन्हें तो मैं पसंद ही नहीं थी।
अपने रिश्ते ही न जाने क्या -क्या सिखा देते हैं ? कहने भर को अपने हैं ,इसी तरह मेरे पापा..... मम्मी चाहकर भी कुछ नहीं कर पाती। मायके का या ससुराल का सुख क्या होता है ? मैं शायद कभी जान नहीं पाऊँगी। हर जगह हर समय अपने हिस्से की लड़ाई लड़नी होती है। ये लड़ाई मुझे ही कुछ अधिक लड़नी पड़ रही है या फिर सभी इस तरह लड़ाई लड़ते हैं। अकेलेपन ने उसे बुरी तरह घेर लिया ,मन का दर्द आँसुओं में बदल बह जाना चाहता है किन्तु नीलिमा ने उसे गाल तक आते ही पोंछ दिया। एक गहरी श्वास लेते हुए ,मन ही मन बुदबुदाती है ,वे तो पराये थे ,उन पर कोई अधिकार भी नहीं ,ये तो मेरा अपना घर है ,कहने को तो ये भी मेरे अपने हैं इन दोनों घरों के बीच में ,मैं कहाँ हूँ ?अपने आपसे प्रश्न करती है। तभी मम्मी की आवाज से उसका ध्यान जैसे भंग हो जाता है।
नीलिमा ओ नीलिमा !
क्या हुआ ?आती हूँ।
देख ,इधर आ !
नीलिमा के समीप आते ही ,बोलीं -तेरे बेटे को देखकर लग रहा है ,ये आम बच्चों की तरह ,नहीं लग रहा है ,इसे जरा डॉक्टर को दिखा।
हाँ ,मैंने दिखाया था। अभी और कुछ दिन ठहरने के लिए कहा है।
क्या तू जानती है ?
हाँ ,मम्मी !आप भी क्या बात करती हो ? मेरा बेटा है ,क्या मैं नहीं जाँनूगी ?
उधर धीरेन्द्र भी परेशान था ,दो बेटियों के पश्चात उसके बेटा हुआ उसे लेकर नीलिमा अचानक अपने घर लेकर क्यों चली गई ?
क्या निलिमा का अपने घर आने का यही कारण है या कुछ और है? आखिर उसने धीरेंद्र को कुछ भी क्यों नहीं बतया? जानने के लिए पढ़ते रहिये - ऐसी भी ज़िंदगी