इंस्पेक्टर विकास खन्ना ,प्रभा से नीलिमा के विषय में जानकारी चाहता है। प्रभा तो अपने लिए कहानी ढूंढ़ रही थी, किन्तु उसने इस तरह बारीक़ी से कभी पूछा ही नहीं। विकास ने उसे बताया -किस तरह नीलिमा से जानकारी लेनी है ?उधर नीलिमा उन बातों को स्मरण कर व्यथित हो जाती है ,जब उसने पहली बार चम्पा को अपने पति की बांहों में देखा था। उस रात्रि वो बहुत रोई थी, इसी कारण वो...... किसी को भी बिना बताये , अपने घर भी चली गई थी। वहाँ उसने किसी को भी कुछ नहीं बताया ,किन्तु घरवालों से भी ,उसे सहयोग की उम्मीद न रही।उसके पापा का व्यवहार जैसे पहले था ,वैसे ही अब भी था ,उन्होंने कभी यह जानने का प्रयास ही नहीं किया -कि मेरी ज़िंदगी कैसी गुजर रही है ?
माता -पिता, बच्चों के लिए सोचते और करते हैं ,बच्चों के लिए नहीं ,बेटों के लिए ही सोचते हैं। किन्तु हमारा त्याग नहीं देखा ,बेटी अपनी जड़ों को छोड़कर ,दूसरे स्थान पर अपनी जड़ें जमाती है ,चाहे वो मिटटी उसके अनुकूल हो या नहीं। वे हमें पालते हैं ,तब उनके मान -सम्मान के लिए हम भी तो ,अपने को बदलते हैं ,अपनी माँ की ममता का त्याग करते हैं ,पिता का की छाया देखी तो है, किन्तु उसका कभी एहसास नहीं हो पाया सोचते हुए उसने एक गहरी श्वांस ली।
चंद्रिका दीदी ने ही समझाया ,यहाँ इन लोगों से कोई उम्मीद मत लगाना ,जिसके बच्चे हैं ,उसकी ज़िम्मेदारी भी तो बनती है। तुम कैसे ?अकेले सम्पूर्ण उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले सकती हो। यदि कोई बात है ,भी तो..... इस तरह से तो तुम उसे आज़ाद कर रही हो। न ही घर -परिवार की ज़िम्मेदारी, न ही रिश्तों का ड़र वो तो मनमर्जी के लिए , आजाद है। तब धीरेन्द्र के बुलाने पर , अपने बच्चों की खातिर ,,अपने मन को समझाया और पुनः वापिस अपने घर में आ गयी।
वो धीरेन्द्र और चम्पा के रिश्ते से अनजान बनी रहती है ,जिसका उन दोनों ने भरपूर लाभ उठाया ,जब नीलिमा ठीक हो गयी ,तब उसने चम्पा को रात्रि में आने से इंकार कर दिया। अपने घर में वो शांति बने रहने देना चाहती थी क्योंकि वो अथर्व की बीमारी को लेकर भी तो परेशान थी।
मम्मा क्या सोच रही हो ?उसके पीछे से आकर ,उसकी बेटी कल्पना ने उसके गले में अपनी बाहें डालते हुए पूछा -कुछ नहीं ,अपने अतीत की परछाइयों से बाहर आते हुए उसने कहा। अच्छा ये बताओ ! तुमने खाना खाया या नहीं।
नहीं, अभी तो आई हूँ ,तभी मैंने देखा ,आप आज यहीं हो ,क्या आज आप अपने दफ्तर नहीं गयीं ?
गयी थी ,बेटा ! किन्तु आज मन नहीं लगा तो आ गयी।
क्यों ,क्या हुआ ?आपकी तबियत तो ठीक है ,कहते हुए ,उसने नीलिमा के माथे पर हाथ रखा ,अपनी बेटी के इस स्पर्श से ही ,नीलिमा का सम्पूर्ण दर्द और बेचैनी समाप्त हो गयी। हँसते हुए बोली -मेरी बड़ी 'बी 'मैं बिल्कुल ठीक हूँ। चलो ,खाना खाते हैं।
प्रभा ,विकास के जाने के पश्चात ,अब उसके तरीक़े से सोच रही थी ,किन्तु अब उसे इस बात का बुरा लग रहा था जिस महिला की छवि उसकी नजरों में आज है ,जिसके कारण वो एक उपन्यास लिखने के लिए प्रोत्साहित हुई ,कहीं वो धूमिल न हो जाये। किन्तु मैं एक लेखक भी तो हूँ ,सच्चाई की तह तक जाना ,तब उस पर लिखना, उसका अलग ही अनुभव होगा। तब वो अपनी मम्मी से पूछती है ,मम्मी एक महिला है ,वो आज बड़ी मेहनत कर रही है ,अपने बच्चों को अच्छे से पाल -पोस रही है किन्तु हो सकता है ,उसका कोई अलग ही अतीत हो। जिसको दुनिया न जानती हो ,तब क्या ऐसे में उसका वो अतीत सामने लाना चाहिए ?वो अच्छा भी हो सकता है ,बुरा भी।
तुम जानना चाहती हो ,ये अलग बात है ,हर व्यक्ति का एक अलग अतीत हो सकता है ,ये जो भी महिला आज के समय में ,तो उसकी एक अच्छी सोच ,अच्छे कर्म चल रहे हैं। हो सकता है ,कई बार परिस्थितियां आदमी को बुरा बनने पर मजबूर कर देती हैं ,जैसा वो होता नहीं। इंसान ही तो है ,वरना वो भगवान न बन जाये। गुनाह ,जब माना जाता है , उसने जो कुछ भी किया जानबूझकर किया या फिर उन्हें बार -बार दोहरा रहा हो।
ऐसे थोड़े ही न होता है ,गुनाह तो गुनाह होता है ,चाहे एक बार किया हो या बार -बार किया जाये। ये उस समय की परिस्थितियों पर निर्भर करता है , वो कब और कैसे किया गया ?
मैं देख रही हूँ ,तुम पर इंस्पेक्टर साहब की संगत का असर बहुत शीघ्रता से पड़ रहा है।
क्या मम्मी !आप भी न कुछ भी कहते रहते हो। अब मैं अपना जो उपन्यास लिखूंगी ,उस पहलू को भी ध्यान में रखकर लिखूंगी।
तुम्हें जैसा लिखना है, लिखो ! किन्तु उसको लिखने में तुम्हें सुखानुभूति का एहसास हो ,तुम्हें ये न लगे मैंने अपने किरदार के साथ सही नहीं किया ,या ऐसा नहीं होना चाहिए था।
मम्मी !आप भी न मेरे साथ रहकर ,अच्छा -अच्छा सोचने लगी हो।
माँ हूँ तुम्हारी ,क्या ये बात मुझे बतानी पड़ेगी ?कहकर वो वहां से चलीं गयीं।
प्रभा अपने दिवान पर बैठकर ,अपने शब्दों को लैपटॉप की स्क्रीन पर उकेरने लगी।
खिड़की के सामने पेड़ पर ,न जाने कितने जुगनू झिलमिला रहे हैं ? ये जुगनू नहीं ,नीलिमा की आँखों से जुदा हुए ,उसके अश्रु हैं ,जो इस अँधेरे में झिलमिला रहे हैं। उसके दिल का दर्द ,इन आंसुओं का रूप लेकर बहता जा रहा है। कब तक ,वो इस दर्द को सहती रहेगी ? अपने आप से ही प्रश्न करती है ,क्योंकि उसका दुःख बाँटने वाला तो कोई नहीं। ये दुनिया कितनी बड़ी है ?किन्तु इस दुनिया में उसका अपना कौन है ?जिससे उसका दर्द बाँट ले।
दर्द का सैलाब है कि बढ़ता जा रहा है ,उसकी अपनी माँ ही तो है ,जो उसे समझ सकती है किन्तु माँ भी उसके हिस्से में नहीं ,वो भी तो बंट चुकी है मेरे हिस्से में तो वो भी नहीं। मेरी ज़िंदगी दिखने में कितनी सुंदर नजर आती है ?किन्तु ये सुंदरता खोखली है। दिखता कुछ है ,नजर कुछ आता है ,मेरे इन आंसुओं की तरह ,ये बह तो यहाँ रहे हैं किन्तु मुझे उस वृक्ष पर क्यों नजर आ रहे हैं ? इस दुनियावी जंगल में वो नितांत अकेली है।
उफ़..... कितना दर्द है ?कहकर प्रभा थोड़ी परेशान हो जाती है। क्या औरत के दिल को ,कभी ये मर्द जाति समझ भी पायेगी ? सोचते हुए ,वो लिखना बंद कर देती है। तब वो किसी को फोन करती है।