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लज्जा (नारी पर लिखी कविता)

15 दिसम्बर 2021

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नयी नवेली खिली गुलाब सी,
                             मुख पर घूंघट पट डाली। 
हया लिहाज में झुकी खड़ी थी
                             छुई -मुई सी अलबेली  ||
लज्जा नारी की आभूषण,
                             नारी का सम्मान यही |
सोना चांदी हीरा मोती,
                         तन मन का परिधान यही ||
लज्जा की मूरति है नारी,
                         लज्जा है तो नारी है |
लाज हया बिन नारी वैसी,
                         ज्यों तलवार दो धारी है ||
लज्जा न करती भेद कोई
                       चाहे नर हो या  नारी |
झुक जाती है आंखें नर की,
                      हो जाता जीवन भारी ||
हम मानव में नर नारी है
                      बधे सामाजिक बंधन में,
 रिस्तों की तो बात निराली
                      मधुर प्रेम सम्बन्धों में          
निज सम्बन्धों में क्या लज्जा
                         लज्जा कौन सुकर्मो में
लज्जा कैसी जाति धर्म में
                         लोक लाज सत्कर्मों में                          
आओ जाने लज्जा कैसी,
                          किससे करना लाज शर्म |
क्यों झुक जाता है सिर आंखें ,
                          है कैसा यह मन का मर्म ||
मन की बातें मन ही जाने,
                          लज्जा मन का है स्वभाव |
हया ह्रदय का फूटा अंकुर,
                          शर्म सामाजिक संयम भाव ||
लज्जा कर लो उस ईश्वर से
                        मात पिता व  बन्धु समान
क्यों भेजा है हमको जग में
                        बुद्धिमान सबमें इंसान
लज्जा कोई न उस ईश्वर से!
                           देख रहा जो सुबहो शाम |
न कोई पर्दा हया शर्म का,
                             कुकर्म पाप हो रहा तमाम ||
सबमें बैठा देख रहा वो,
                            छिप न सकता कोई कहीं ,
फिर क्यों घूंघट,पर्दा कैसा,
                           हम है जब इंसान एक ही |
लज्जा है तो पाप करो न,
                           अधर्म पाप का त्याग करो |
जिस कार्य हेतु है जन्म हुआ़,
                            सकर्म जन कल्याण करो ||                                           
     
                                

                         रचनाकार-रामबृक्ष, अम्बेडकरनगर                      
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