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गुलाब और कांटे

4 दिसम्बर 2021

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कविता-गुलाब और कांटे

कांटों में पला बढ़ा जीवन
संग पत्ते बीच हरे-भरे,
कली से खिल कर फूल बना,
एक चुभ जाता
जो छूता मुझे,
एक रंग भरा
संग मेरे रंगों के,
वे सरल कठोर भले दोनों,
आज खुशबू तो मेरे बिखरे,|
मैं हूं गुलाब,
वीरों के पथ पर,
किसानों के पग पर,
वर-वधू के रथ पर
शहीदों के मज़ार पर
महा पुरुषों के गले में पड़ा,
प्रेमी के मन में खिला,
यह स्वभाव भले मेरा
एहसान भला कैसे भूलूं,
उनसे ही रूप मेरे निखरे ||
मैं क्षुधा शांत कर न सकूं,
मैं अलग-अलग को एक करु,
संस्कृति-सभ्यता का प्रतीक,
जगह जगह बदला स्वरूप,
जैसे मेरे रंगों के रूप,
पहचान बना उन कांटों से,
कोई कुछ कहे,
समझे,न समझे,
अपनापन अपनों से
तोड़ो न कभी रिस्ते गहरे ||

                                
                              रचनाकार-रामबृक्ष, अम्बेडकरनगर


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