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अमा वो आम की बागे

11 मार्च 2016

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featured image अमा कभी ये लखनऊ बागों के लिए मसहूर हुआ करता था, जब जब गर्मियां आती तो चारबाग की दसेहरी पाने को हर हाँथ लपक उठता, तो कोई कैसरबाग़ के सफ़ेदा की डालिओं पे जी छिड़कता, ये बादशाह बाग़ के चौसो और लंगड़ों की खुसबू को क्या कहें कि जब तक कोई घर वाला तांगे से ढूँढने नही निकलता, अमा मिया हम तो घर जाने से रहे. वो राजे, महराजे, वजीर, दीवान से खासो आम तक जो भी इन बागीचों से एक बार गुजर जाता अमा लखनऊ का दीवाना हुए बिना नही रहता। क्या कहूँ अब तो लगता है जैसे जन्नत से दोज़ख में आ गये हो, हर तरफ ऊँचे ऊँचे अप्पार्टमेंट्स, चीं, चीं, पीं, पीं करते ये दुपहिये व् चौपहियो ने मेरे कानो की हवा तो निकाल ही दी, और कमाल की बात है इनके चलते ये चिकन का कुरता रिफ़ाहे आम कल्ब से अमीनाबाद पहुँचते पहुँचते अमा मिया पूरा काला का काला पड़ जाता है, और क्या बताएं वो चाँदी के पान दान की जगह अब तो हर कोई मोबाईल दबाये है, मेरे अजीज मुझसे एक दिन बोले छोड़ो मिया तुम भी गुजरे ज़माने की बातों को लिए बैठे हो लो ये पियो बिलकुल रियल ताजा मैंगो स्लाइस।अमा मुँह में लगाया तो लगा कि जैसे कददू का घोल सिरके में मिला के पिला दिया हो, तौबा - तौबा , छोड़ो मियां वो आम की बातें जब बेचारे वो खुसनुमा पेड़ के पेड़ स्लाइस के स्लाइस हो गए तो जूस क्या खाक निकलेगा इन मशीनों से डॉ संदीप कुमार शुक्ल
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रचनाएँ
sandeepshukla
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उन्मीलित नेत्रों से
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अमा वो आम की बागे

11 मार्च 2016
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अमा कभी ये लखनऊ बागों के लिए मसहूर हुआ करता था, जब जब गर्मियां आती तो चारबाग की दसेहरी पाने को हर हाँथ लपक उठता, तो कोई कैसरबाग़ के सफ़ेदा की डालिओं पे जी छिड़कता, ये बादशाह बाग़ के चौसो और लंगड़ों की खुसबू को क्या कहें कि जब तक कोई घर वाला तांगे से ढूँढने नही निकलता, अमा मिया हम तो घर जाने से रहे. वो

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जन प्रतिनिधियों के चुनाव का परिणाम समय पर निकलता है पर प्रतियोगी परीक्षाओं के परिणाम का समय अनिश्चित क्यूँ ?????

11 मार्च 2016
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अपना आँगन

28 मई 2016
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भोर की ब्राम्ही शीतलता जीवन को नव किशलयों का दान करने धरा पर उतरती तो जागरूक चेतना की झोली सृजन, समृद्धि और सरलता की सुवास से परिपूर्ण हो उठती. खरहरे की खर्र खर्र, मथानी की गर्र गों, व चकिया और सूप की घड़र घड़र और फटर फटर में वो चेतनाएं भी जाग उठती जो निंद्रा के वसीभूत होती. कुएं की जगत पर स्नान कराने

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