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sandeepshukla

संदीप

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उन्मीलित नेत्रों से  

sandeepshukla

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पुस्तक के भाग

1

अमा वो आम की बागे

11 मार्च 2016
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अमा कभी ये लखनऊ बागों के लिए मसहूर हुआ करता था, जब जब गर्मियां आती तो चारबाग की दसेहरी पाने को हर हाँथ लपक उठता, तो कोई कैसरबाग़ के सफ़ेदा की डालिओं पे जी छिड़कता, ये बादशाह बाग़ के चौसो और लंगड़ों की खुसबू को क्या कहें कि जब तक कोई घर वाला तांगे से ढूँढने नही निकलता, अमा मिया हम तो घर जाने से रहे. वो

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जन प्रतिनिधियों के चुनाव का परिणाम समय पर निकलता है पर प्रतियोगी परीक्षाओं के परिणाम का समय अनिश्चित क्यूँ ?????

11 मार्च 2016
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अपना आँगन

28 मई 2016
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भोर की ब्राम्ही शीतलता जीवन को नव किशलयों का दान करने धरा पर उतरती तो जागरूक चेतना की झोली सृजन, समृद्धि और सरलता की सुवास से परिपूर्ण हो उठती. खरहरे की खर्र खर्र, मथानी की गर्र गों, व चकिया और सूप की घड़र घड़र और फटर फटर में वो चेतनाएं भी जाग उठती जो निंद्रा के वसीभूत होती. कुएं की जगत पर स्नान कराने

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