अमा वो आम की बागे
अमा कभी ये लखनऊ बागों के लिए मसहूर हुआ करता था, जब जब गर्मियां आती तो चारबाग की दसेहरी पाने को हर हाँथ लपक उठता, तो कोई कैसरबाग़ के सफ़ेदा की डालिओं पे जी छिड़कता, ये बादशाह बाग़ के चौसो और लंगड़ों की खुसबू को क्या कहें कि जब तक कोई घर वाला तांगे से ढूँढने नही निकलता, अमा मिया हम तो घर जाने से रहे. वो