शरद ऋतु
घनी सी ओस हर कली पे, बुझ गई अब प्यास है।नरम से घास कह रहे हैं, पाँव की तलाश है।झुकी कमर निकल पड़े, सुबह की धूप के तले।जवान हाथ-पैर सब, रजाई में ही बस मले।उठो भई, अब तुम भी क्यों शरद ऋतु गँवा रहे।बिन रजाई ओढ़े ही, सब पक्षी चहचहा रहे।ज़मीं से आसमा तलक की, बुझ चुकी सब प्यास है।मना ले तू दिल को "आनन्द" जो