छोड़ आया वो शहर जहाँ आत्मा बस्ती थी।
लिपटे पुराने चादरों में ख्वाहिशें पलती थीं।
टूटी सड़क पे चलते, न दर्द थे न आह थे।
बस हर कोई समझते, खुद को बादशाह थे।
जिसके मिज़ाज़ थे भरे आशिक़ी के शौक से
छोड़ के घर-बार सारा आते गाँधी-चौक पे।
लड़कर-मिले, मिलकर-लड़े एक अपनी आन में
खेल कम झगड़े बड़े, बस होते थे मैदान में।
होली-दिवाली में सदा, छलकते ज़ाम रात में
थे ये मुनासिब ही नहीं झगडे न हो बारात में!
हद हुई शिवरात्रि की, वो दिन भी क्या वाह थे
गाँववाले देखते, दो लड़कों के विवाह थे।
जो भी है, जैसा भी है स्वगाँव तो स्वगाँव है
आनन्द ही, आनन्द सी लगती धुप-छाँव है।
#अमिराज_कुमार_आनन्द