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अंधेर नगरी का पहला दृश्य

2 अक्टूबर 2021

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(महन्त जी दो चेलों के साथ गाते हुए आते हैं)

सब: राम भजो राम भजो राम भजो भाई।

राम के भजे से गनिका तर गई,

राम के भजे से गीध गति पाई।

राम के नाम से काम बनै सब,

राम के भजन से दोनों नयन बिनु

सूरदास भए कबिकुलराई।

राम के नाम से घास जंगल की,

तुलसी दास भए भजि रघुराई।।

महन्त: बच्चा नारायण दास! यह नगर तो दूर से बहुत ही सुंदर दिखाई देता है, देख, कुछ भिच्छा उच्छा मिलै तो ठाकुर जी को भोग लगै। और क्या।

ना. दा: गुरु जी महाराज! नगर तो नारायण के आसरे से बहुत ही सुंदर है जो सो, पर भिक्षा सुंदर मिलै तो बड़ा आनन्द होय।

महन्त: बच्चा गोवर्धन दास! तू पश्चिम की ओर से जा और नारायण दास पूरब की ओर जाएगा। देख, जो कुछ सीधा सामग्री मिलै तो श्री शालग्राम जी का बालभोग सिद्ध हो।

गो. दा: गुरू जी! मैं बहुत सी भिच्छा लाता हूं। यहां लोग तो बड़े मालवर दिखलाई पड़ते हैं। आप कुछ चिन्ता मत कीजिए।

महंत: बच्चा बहुत लोभ मत करना। देखना, हां।

लोभ कभी नहीं कीजिए, यामै नरक निदान।।

(गाते हुए सब जाते हैं।)

Shivansh Shukla

Shivansh Shukla

वाह 😮😮😮

2 अक्टूबर 2021

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रचनाएँ
भारतेंदु हरिषचंद्र की 'अंधेर नगरी'
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बनारस में बंगालियों और हिन्दुस्तानियों ने मिलकर एक छोटा सा नाटक समाज दशाश्वमेध घाट पर नियत किया है, जिसका नाम हिंदू नैशनल थिएटर है। दक्षिण में पारसी और महाराष्ट्र नाटक वाले प्रायः अन्धेर नगरी का प्रहसन खेला करते हैं, किन्तु उन लोगों की भाषा और प्रक्रिया सब असंबद्ध होती है। ऐसा ही इन थिएटर वालों ने भी खेलना चाहा था और अपने परम सहायक भारतभूषण भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र से अपना आशय प्रकट किया। बाबू साहब ने यह सोचकर कि बिना किसी काव्य कल्पना के व बिना कोई उत्तम शिक्षा निकले जो नाटक खेला ही गया तो इसका फल क्या, इस कथा को काव्य में बाँध दिया। यह प्रहसन पूर्वोक्त बाबू साहब ने उस नाटक के पात्रों के अवस्थानुसार एक ही दिन में लिख दिया है। आशा है कि परिहासप्रिय रसिक जन इस से परितुष्ट होंगे। इति।

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