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अंधेर नगरी का पांचवा दृश्य

19 अक्टूबर 2021

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(गोवर्धन दास गाते हुए आते हैं)

(राग काफी)

अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा।।

नींच ऊंच सह एकहि ऐसे। जैसे भडुए पंडित तैसे।।

कुल मरजाद न मान बड़ाई। सबैं एक से लोग बुलाई।।

जात पाँत पूछै नहिं कोई। हरि को भजे सो हरि को होई॥

सांचे मारे मारे डाल। छली दुष्ट सिर चढ़ि चढ़ि बोलैं॥वेश्या जोरू एक समाना। बकरी गऊ एक करि जाना॥

प्रगट सभ्य अन्तर छलहारी। सोइ राजसभा बलभारी ॥

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भारतेंदु हरिषचंद्र की 'अंधेर नगरी'
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बनारस में बंगालियों और हिन्दुस्तानियों ने मिलकर एक छोटा सा नाटक समाज दशाश्वमेध घाट पर नियत किया है, जिसका नाम हिंदू नैशनल थिएटर है। दक्षिण में पारसी और महाराष्ट्र नाटक वाले प्रायः अन्धेर नगरी का प्रहसन खेला करते हैं, किन्तु उन लोगों की भाषा और प्रक्रिया सब असंबद्ध होती है। ऐसा ही इन थिएटर वालों ने भी खेलना चाहा था और अपने परम सहायक भारतभूषण भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र से अपना आशय प्रकट किया। बाबू साहब ने यह सोचकर कि बिना किसी काव्य कल्पना के व बिना कोई उत्तम शिक्षा निकले जो नाटक खेला ही गया तो इसका फल क्या, इस कथा को काव्य में बाँध दिया। यह प्रहसन पूर्वोक्त बाबू साहब ने उस नाटक के पात्रों के अवस्थानुसार एक ही दिन में लिख दिया है। आशा है कि परिहासप्रिय रसिक जन इस से परितुष्ट होंगे। इति।

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