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अंधेर नगरी का छठा दृश्य

19 अक्टूबर 2021

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(गोबर्धन दास को पकड़े हुए चार सिपाहियों का प्रवेश)

गो. दा. हाय बाप रे! मुझे बेकसूर ह फांसी देते हैं। अरे भाइयों, कुछ तो धरम विचारों! अरे मुझ गरीब को फांसी देकर तुम लोगों को क्या लाभ मिलेगा? अरे मुझे छोड़ दो। हाय हाय (रोता है और छुड़ाने की कोशिश करने लगा)

1 सिपाही: अबे, चुप रह-राजा हुकुम भला नहीं टल सकता है? यह तेरा आखिरी दम है, राम का नाम ले-बेफाइदा क्यों शोर करता है? चुप रह-

गो. दा.: हाय! मैं ना सुना, अरे, इस नगर का नाम ही अंधेर नगरी और राजा का नाम चौपट्ट है तब बेचने की कौन आशा है। अरे, इस नगर में ऐसा कोई धर्मात्मा नहीं है जो फकीर को बचावै। गुरु जी, कहां हो? बचाओ-गुरुजी-गुरुजी- (रोता है, सिपाही लोग उसे घसीटते हुए ले चलते हैं.)

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रचनाएँ
भारतेंदु हरिषचंद्र की 'अंधेर नगरी'
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बनारस में बंगालियों और हिन्दुस्तानियों ने मिलकर एक छोटा सा नाटक समाज दशाश्वमेध घाट पर नियत किया है, जिसका नाम हिंदू नैशनल थिएटर है। दक्षिण में पारसी और महाराष्ट्र नाटक वाले प्रायः अन्धेर नगरी का प्रहसन खेला करते हैं, किन्तु उन लोगों की भाषा और प्रक्रिया सब असंबद्ध होती है। ऐसा ही इन थिएटर वालों ने भी खेलना चाहा था और अपने परम सहायक भारतभूषण भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र से अपना आशय प्रकट किया। बाबू साहब ने यह सोचकर कि बिना किसी काव्य कल्पना के व बिना कोई उत्तम शिक्षा निकले जो नाटक खेला ही गया तो इसका फल क्या, इस कथा को काव्य में बाँध दिया। यह प्रहसन पूर्वोक्त बाबू साहब ने उस नाटक के पात्रों के अवस्थानुसार एक ही दिन में लिख दिया है। आशा है कि परिहासप्रिय रसिक जन इस से परितुष्ट होंगे। इति।

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