डर......
क्या होता है ये डर...!
अपनों को खोने का डर....
अकेले होने का डर....
भीड़ में रहने का डर.....
हर तरफ़ डर....।
किससे डरते हैं हम... हम डरते हैं खुद से..। हम औरत हैं... और ये डर हमें विरासत में मिला हैं...।
हम जब माँ के पेट में होतें हैं ना तब से ही हम डरना शुरू कर देते हैं...।
गर्भ में बैठकर डरती हैं की हम पैदा होंगी या नहीं....!
बाहर आती हैं तो डरती हैं हमें बराबर प्यार मिलेगा या नहीं..!
बस में चढ़ती हैं तो लोगों के छुने से डरती हैं...।
भीड़ में होतीं हैं तो दुपट्टे के सरकने से डरती हैं..।
सुनसान सड़क पर होतीं हैं तो उन वहशी निगाहों से डरती हैं..।
कुछ बोल दिया तो रिश्तों के टुटने से डरती हैं....।
अपनी पूरी जिंदगी हम सिर्फ डर में गुज़ार देतीं हैं....।
आखिर क्यूँ......??
जवाब साधारण सा हैं.... क्योंकि हम औरत हैं....।
जमाना चाहें लाख तरक्की कर ले पर सच आज भी वहीं हैं.... औरत कभी मर्दो की बराबरी नहीं कर सकतीं...। इसका सबसे बड़ा कारण हम खुद हैं.... क्योंकि हम डरती हैं.... हमारे भीतर ये डर इतनी हद तक घर कर गया हैं की हम खुद आजाद होने से डरती हैं...। हमने खुदने अपने आप को एक दिवार में एक पिंजरे में कैद करके रख दिया हैं... हम खुद नही चाहतीं बाहर खुले आसमान में उड़ना.... क्यूँ....!!
क्योंकि हम डरती हैं..।
आखिर कैसे इस डर को खत्म कर सकतीं हैं हम..?
क्या आप के पास हैं कोई जवाब...?