गौरैया...आजकल बहुत ही कम दिखती है शहर के मकानों की छतों पर,बालकनी में,यहां तक कि पेड़ों पर भी।उनका अस्तित्व अब लुप्तप्राय हो चुका है लगभग लगभग।कभी कभी दिख जाती हैं फुदकती हुई मेरे बरामदे में तो उनकी चहकती आवाज से मन आह्दलित हो जाता है और एक खयाल सा आता है कि काश ये भी अपने झुंड के साथ दिखतीं तो और चहकतीं।काश कि हमने इन्हें बचा लिया होता।
हम नहीं बचा पाए गौरैया को। बस वैसे ही हम नहीं बचा पा रहे स्त्रियों को,उनके अस्तित्व को,उनके स्त्रीत्व को।गौरैया तो उड़ सकती थी फिर भी अपने आपको नहीं बचा पाई।स्त्री तो उड़ भी नहीं सकती।लगभग हर स्त्री चाहे किसी भी समाज या देश की हो,उड़ने की कोशिश तो करती है पर उन्हें उड़ने से पहले ही उनके पर काट दिए जाते हैं। इक्का दुक्का ही उड़ पाती हैं पर उनकी उड़ान भी बेहद कठिन होती है। उड़ना तो छोड़िए उनके अस्तित्व तक को नकार दिया जाता है।तभी तो कई अजन्मी ही रह जाती हैं।
हम नहीं बचा पाए गौरैया को।हम स्त्रियों को तो बचा लें।