shabd-logo

भस्म

5 अक्टूबर 2021

27 बार देखा गया 27

सोचता ही रहा जिन्दगी भर सदा

हर महफ़िल में मेरी लगी साख है

क्या बचाऊ बनाऊं मैं संचित करूँ

कुछ बचा ही नहीं राख ही राख है

डोली उठाकर चले सब सगे

कुछ  आगे  चले कुछ पीछे लगे

जिस घर को बनाता रहा मैं सदा

आज माटी में उसका मिला पाख है

क्या बचाऊ बनाऊं मैं संचित करूँ

कुछ बचा ही नहीं राख ही राख है

ये आज कैसी अजब सी बारात है

सूर्य निकला नही रात ही रात है

कोई हँसता नही है ठहाको के संग

न  जाने  अयेसी  क्या  बात है

जिन्दगी ने मुझे अलबिदा कह दिया

मौत स्वागत का थाल सजाए खडी

यमदूतो से अब है हुआ सामना

मिलेगी  नही  अब  घड़ी  दो घड़ी

रो रहे हैं सुबक कर मेरे सब सगे

जिनको भर जिन्दगी डांटता मैं रहा

आज संग हैं उसी बृक्ष की डालिया

जिनको भर जिन्दगी काटता मैं रहा

मैं हूँ दूल्हा बना सब बराती मेरे

आज  मित्रो की मेरे  नम आँख है

क्या बचाऊ बनाऊं मैं संचित करूँ

कुछ  बचा  ही  राख ही राख है

शोलों में घिरकर बदन ये जला

कोई कैसे बचाता मुझे फिर भला

मेरी अकड और पकड़ सब जली

छोड़ तनहा मुझे भीड़ भी है चली

शान्त शोले हुए भस्म मेरी उडी

आत्मा  मेरी  जा  प्रभू  से  जुड़ी

समाहित हुआ हूँ अब राम में

कलश में भरी अब मेरी राख है

क्या बचाऊ बनाऊं मैं संचित करूँ

कुछ बचा ही नहीं राख ही राख है

उदयबीर सिंह गौर

खमहौरा

बांदा

उत्तर प्रदेश

9793941034

उदयबीर सिंह गौर की अन्य किताबें

निक्की तिवारी

निक्की तिवारी

बहुत बहुत अच्छा लिखा आपने

6 अक्टूबर 2021

आलोक सिन्हा

आलोक सिन्हा

बहुत सुन्दर सराहनीय रचना

5 अक्टूबर 2021

उदयबीर सिंह गौर

उदयबीर सिंह गौर

5 अक्टूबर 2021

हृदय की अनन्त गहराइयों से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सिन्हा जी

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए