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बुन्देली लोक नाटय एक अनुशीलन’’ (शोध कार्य)

19 दिसम्बर 2023

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*पुस्तक समीक्षा:-‘‘बुन्देली लोक नाटय एक अनुशीलन’’ (शोध कार्य)*
लेखक:- डाॅ. एम.एल. प्रभाकर
प्रकाशन वर्षः- 2022    मूल्यः-1500रु. पेज-519
प्रकाशक-आशा प्रकाशन कानपुर-208002
*समीक्षक:- राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’(टीकमगढ़)*

बुन्देली लोक नाट्य पर गहन और सूक्ष्म जानकारी का खजाना-

                                  -राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ 

डाॅ. एम.एल प्रभाकर जी बड़े-बड़े ग्रंथ लिखने में सद्धिहस्त रहे उन्होंने लोक देवता दरदौल, लोकदेवता कारस देव,रतनगढ़ माता,माडुॅल, लोक कवि ईसुरी, लोकदेवता राजा जगदेव हनुमानायन आदि महाकाव्य की रचना की हैं ऐसे में यह बुन्देली लोक नाट्यः एक अनुशीलन’ एक सम्पूर्ण शोध प्रकाशित कर हम सभी बुन्देली प्रेमियों एवं बुन्देली साहित्य में अभूतपूर्व कार्य किया है। जो कि उनकी बुन्देली साहित्य कि अनुपम देन है।
                  लेखक डाॅ. एम.एल. प्रभाकर जी का यह शोध के रूप में बुन्देली साहित्य के लिए एक अनुपम देन ‘बुन्देली लोक नाट्य का अनुशीलन’ के रूप में सन् 2022 में प्रकाशित होकर आया है। 519 पेज के बृहद आकार वाला यह शोध कार्य बहुत उपयोगी है पठनीय होने के साथ-साथ वह संग्रहणीय भी हैं पाठकों को रूचिकर लगेगा।
वैसे तो बुन्देली लोक नाट्य रंगमंच बंधन मुक्त होते है, ये तो प्रकृति की खुली गोद में सम्पन्न होते है कहने का तात्पर्य यह है कि गाँव की चैपाल अथवा कहीं भी समतल मैदान में नाटक खेलने वाले एवं दर्शकगण उपस्थित हो जाते हैं। इन्हीं का एक रूप नुक्कड नाटक भी है। जो कि कहीं भी कम स्थान पर भी किया जा सकता  है। रोशनी के लिए उस समय गैसबत्ती का उपयोग किया जाता था फिर बाद में बिजली का प्रकाश प्रयोग किया जाने लगा और वर्तमान में तो लेजर बीम और आकर्षक रंगीन लाइटों से मंच सुसजिज्त रहता है।
‘बुन्देली लोक नाट्य:एक अनुशीलन’ ग्रंथ को लेखन ने दस भागों में विभाजित किया हैं।
              जिनमें पहले अध्याय के पूर्व बुन्देलखण्ड के नामकरण एवं बुन्देला राजाओं की उत्पत्ति के विषय में जानकारी दी है। जो कि इतिहासिक की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।

पहला भाग- बुन्देलखण्ड के लोक नाट्यों की पृष्ठभूमि -
इसमें राजनैकित,सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का विस्तार से वर्णन किया है। राजनैतिक परिस्थितियों के अंतर्गत बुन्देलवंश में हुए सभी 40 राजाओं की सूची एवं उनके कार्य काल का उल्लेख किया है।

दूसरा भाग- बुन्देली लोक नाट्यों का विकास- 
         इस भाग में लोक नाट्यों उद्भव के बारे में आचार्य रवीन्द्र अमर,डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, डाॅ. श्याम परमार,डाॅ. श्रीराम शर्मा,डाॅ. महेन्द्र भाणावत आदि के विभिन्न विद्वानों के विचारों का उल्लेख किया गया है। मध्यकालीन लोक नाट्य एवं आधुनिक लोक नाट्य की जानकारी देते हुए बताया है कि गद्य के क्षेत्र में लोक कथाएँ मौखिक रूप में चली रही है लेकिन आधुनिक काल में ‘जैसी करनी बैसी भरनी’’ नामक पुस्तक में श्री चतुर्वेदी जी ने कथाओं को प्रस्तुत किया है। कुण्डेश्वर (टीकमगढ़) से प्रकाशित लोकप्रिय पत्रिका ‘मधुकर’ में भी कथाएँ उचित स्थान पाती रही हैं किन्तु लोक नाट्य आधुनिक काल में भी सर्वथा मौखिक ही रहा हैं। युग के अनुरूप इनका परिवर्तन और परिमार्जन जरूर होता है। गुलाम भारत एवं स्वतंत्र भारत दोनांे कालखडों की परिस्थितियों का दिग्दर्शन इनकी विषय वस्तु रही हैं दलितों की दुर्दशा उनका शोषण, उन पर अत्याचार उनके नाटकीय जीवन का लोक चित्रण उस समय के लोक नाट्य ‘कलुआ मेहतर’ में देखा जा सकता है।

तीसरा भाग- बुन्देली लोक नाट्यों का वर्गीकरण- इस भाग में लोक नाट्यों वर्गीकरण के बारे में बताया गया है कि आधार के आधार पर बुन्देली लोक नाट्य प्रमुख रूप से बोली के आधार पर, भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर ,रंगमंच के आधार पर, लोक नाट्य के तत्वों के आधार पर,पर्व या उत्सव के आधार पर, उद्देश्यों के आधार पर,अभिनय के आधार पर, वाद्य के आधार पर एवं गायकी के आधार पर वर्गीकरण किया जा सकता है।
         डाॅ. श्याम परमार जी ने लोक नाट्यों को शिल्प एवं गायन के आधार पर वर्गीकरण किया है तो वहीं डाॅ. सतेन्द्र जी ने लोक नाट्यों की प्रवित्त के आधार पर पाँच भागों में वर्गीकृत किया हैं-नृत्य प्रधान, हास्य प्रधान, संगीत प्रधान, कथा प्रधान एवं वार्ता प्रधान। डाॅ. के.एल.वर्मा जी ने बुन्देली लोक नाट्य को पाँच भागों में बाँटा है- धार्मिक स्वांग, संस्कार परक स्वांग, सामाजिक स्वांग, मिश्रित स्वांग अािद है विभिन्न में नकलें, भाड़ों की नकलें ,नटों की नकलें, एवं नौटंकी आदि।


चौथा भाग-बुन्देली लोक नाट्यों की विषय वस्तु-
               लेखक ने बुन्देली लोक नाट्यों की विषय वस्तु के अंतर्गत पौराणिक,पात्र व वेशभूषा,वादक होली शिव रात्रि आदि विभिन्न त्यौहार पर आदि अनेक विषय हो सकते है। होली लोक नाट्य, मोरध्वज लोक नाट्य, ध्रुव लोक नाट्य,हरितालिका व्रत (तीजा) आदि अनेक लोकनाट्य को प्रकाशित किया गया हैं।

पाँचवाँ भाग-बुन्देली लोक नाट्यों में चरित्र चित्रण-
लेखक ने इस भाग में नायक पात्रों का चरित्र-चित्रण, नारी(नायिका) पात्रों का चरित्र चित्रण,अन्य पात्रों का चरित्र चित्रण,विदूषक,चित्रण शिल्प आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गयी है।

छटवाँ भाग-बुन्देली लोक नाट्यों में संवाद योजना-
लेखक ने इस भाग में बुन्देली लोक नाट्यों में संवाद योजना के अंतर्गत संवाद के विविधरूप, संवादों की भाषा संवादों की नाट्कीयता,संवादों में प्रभावशीलता आदि के बारे में अच्छी जानकारी दी है।

सातवाँ भाग-बुन्देली लोक नाट्यों में अंकित संस्कृति-
इस अध्याय में बुंदेली लोक नाट्यों में अंकित संस्कृित में संस्कृति के आदर्श, पारिवारिक संस्कार, सामाजिक परिवेश आदि पर विस्तृत जानकरी दी गयी है।

आठवाँ भाग-बुन्देली लोक नाट्यों की भाषा-
बुन्देली लोक नाट्यों की भाषा कैसी होना चाहिए इस पर जानकारी दी गयी है जैस लोक भाषा के विभिन्न रूप,शब्द शक्तियाँ, भाषा का वैशिष्ट्य आदि विषय पर गहन विचार प्रकट किये गये है।

नवम् भाग-बुन्देली लोक नाट्यों की शैली-
बुन्देली लोक नाट्यों की शैली कैसी होना चाहिए शैली के विभिन्न रूप एवं शैली का वैशिष्ट्य शैली की प्रभाव क्षमता,संज्ञा सर्वनाम, लिंग,वचन,कारक क्रिया आदि के विषय में बताया गया है।

दसम् भाग-बुन्देली लोक नाट्यों का मूल्यांकन- बुन्देली लोक नाट्यों का मूल्यांकन में बुन्देली के अलावा अन्य बोलियों जैसे बघेली, मालवी,छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी आदि के लोक नाट्यों का मूल्यांकन एवं महत्व निर्धारण आदि की जानकारी दी गयी है।
बृज की रासलीला और उत्तरप्रदेश की नौंटकी रामलीला आदि को छोड़ दिया जाये जो समस्त जनपदां में लोक नाट्य बहुधा रंगमंच सहित ही देखे जा सकते है। अधिकांश लोक नाट्य गाँवों के बीच में या किसी सममल स्थान पर होते है। जहाँ पर उस गाँव का नाई गैसबत्ती या मसाल लेकर स्वांग भरने वालों के आगे-पीछे दौड़ता हैं या फिर जिसके हाथों में ताकत होती थी वह सिर पर रखकर यहाँ वहाँ चलता फिरता रहता था या ऊँचे स्थान पर खड़े हो जाता था जिससे सभी जगह रोशनी हो सके।
         बुुंदेली लोक नाट्य में संगीत, नृत्य के साथ-साथ काव्य की होता था। इसके साथ ही प्रत्येक ऐतिहासिक चरित्र के साथ-साथ महापुरूषों की पूजा भावना देखने को मिलती थी। इसमें लगभग सभी रसों का मिश्रण होता था।
          वर्तमान समय में बुन्देली लोक नाट्य एवं नाटकों मिलाजुला रूप रंगमंचों के माध्यम से खास कर बुन्देलखण्ड मध्यप्रदेश एवं उत्तरप्रदेश में देखने को मिल जाता है। इस दिशा में टीकमगढ़ की बात करे तो *पाहुना लोक जन समिति,टीकमगढ़* द्वारा संस्कृति विभाग के सहयोग से अनेक छोेटे-बडे़ आयोजन होते रहते हैं जिनमें बुन्देली  लोक नाट्य की अनेक प्रस्तुतियाँ श्री संजय श्रीवास्तव के नाट्य लेखन एवं निर्देशन में हर साल होती रहती हैं। श्री संजय श्रीवास्तव के नाट्य लेखक एवं निर्देशन में अबतक 'साधौ धीसू मरे न माधौ','भोर तरैया','चकाचक गाँव झकाझक गलियाँ' ,'जमुनिया तस्वीर बदलते भारत की','ओ तोरे झुन-झुन बाबा की','जो का मचो' आदि बुन्देली नाट्य की देशभर में अनेक प्रस्तुतियाँ दी जा चुकी है और निरन्तर दी जा रही है। वे वर्तमान में बुन्देली नाट्य की कमान खासकर टीकमगढ़ में बड़ी मजबूती से थामें हुए है। श्री संजय जी एन.एस.डी. दिल्ली से प्रशिक्षित होकर भी एक छोटे से शहर टीकमगढ़ में रंगमंच का दीप जलाए हुए है। यह बहुत बढ़ी बात है।

*समर्पयामि संस्था टीकमगढ़* की प्रमुख गीतिका वेदिका द्वारा भी कुछ बुन्देली नाट्यों की प्रस्तुति समय-समय पर टीकमगढ़ व अन्य शहरों में दी जाती है। जिनमें प्रमुख रूप से ‘तीसरा कंबल’, ‘बरसे सावन बैशाख में’, एवं ‘वाह रे विधाता’ आदि है जिनकी देश भर में अनेक प्रस्तुतियाँ दी जा चुकी है।
         सागर मध्यप्रदेश के हेमंत नामदेव,राजा नामदेव एवं जुगल नामदेव द्वारा भी बुन्देली में अनेक लोकनाटय प्रस्तुति दी जा चुकी हैं।
इसी प्रकार भोपाल, सागर,दमोह, दतिया, झाँसी आदि स्थानों में भी बुन्देली लोक नाटय पर केन्द्रित आयोजन होते रहते हैं।
          इस प्रकार से प्रस्तुत ग्रंथ एक सम्पूर्ण शोध है जो कि ‘बुन्देली लोक नाट्य’ के लगभग हर पहलूओं पर विस्तृत जानकारी देता है जो कि महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ बुन्देली साहित्य के लिए मील का पत्थर साबित पत्थर साबित होगी। आज जहाँ लोक नाट्य में लोगों कि रूचि कम होती जा रही हैं ऐसे में यह थोड़े से बचे नाट्य प्रेमियों के लिए एक वरदान से कम नहीं है। डाॅ. प्रभाकर जी ने इसे तैयार करने में बहुत मेहनत की है जो कि इस पढ़ने के बाद महसूस किया जा सकता हैं।
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*समीक्षक-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’*
संपादक ‘आकांक्षा’ (हिन्दी) पत्रिका
संपादक ‘अनुश्रुति’ (बुन्देली) पत्रिका
अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़
अध्यक्ष- वनमाली सृजन पीठ, टीकमगढ़
कोषाध्यक्ष-श्री वीरेन्द्र केशव साहित्य परिषद्
शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.)
पिनः472001 मोबाइल-9893520965
E Mail-   ranalidhori@gmail.com
  Blog - rajeevranalidhori.blogspot.com
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रचनाएँ
पुस्तक समीक्षा राना लिधौरी गौरव ग्रंथ
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समीक्षा-राना लिधौरी: गौरव ग्रंथ- संपादक -रामगोपाल रैकवार’ प्रकाशक- म.प्र. लेखक संघ टीकमगढ़ समीक्षक -एन.डी. सोनी, टीकमगढ़ मूल्य-1200/सजिल्द, पेज-426 सन्-2023 गौरव ग्रंथ या अभिनंदन गं्रथ लेखन की परम्परा साहित्य जगत में काफी समय से प्रचलित है,लेकिन हाल के कुछ बर्षो में इस परम्परा में बहुत तेजी से विकास हुआ है। पहले अच्छे स्थापित साहित्यकारों की संख्या कम होती थी और बर्षों में कोई सम्पादक अभिनंदन ग्रंथ लेखन की हिम्मत जुटा पाता था। आज साहित्य लेखन का विकास बहुत तेजी से हो रहा है और साहित्यकार कम समये में अधिक लेखन कर पुस्तकों का प्रकाशन कर रहे हैं और साधनों की सुलभता से उनका काम और नाम सबके सामने आ रहा है। मीडिया के माध्यम से उनकी ख्याति में चार चाँद लग रहे हैं। हर जिले में ऐसे साहित्यकार उभर कर सामने आ रहे हैं। इसी कड़ी में टीकमगढ़ जिले के मध्यप्रदेश लेखक संघ के जिलाध्यक्ष राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ ने कम समय में अधिक लेखन कर ख्याति अर्जित की हैं वे गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं में विभिन्न प्रकार से लेखन कर  रहे हैं । वे ‘आंकाक्षा’ पत्रिका का विगत 18 वर्षों से सफल संपादन करते आ रहे है और ई-बुक्स लेखन में तो उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नए-नए रिकार्ड बनाए है। उन्होंने मात्र दो साल की अल्प अबधि में ही 133 ई बुक्स का ई प्रकाशन कर एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया है। राना लिधौरी के इक्यावनवें जन्मदिन पर उनके निकटतम सहयोगी और घनिष्ट मित्र रामगोपाल रैकवार ने उन्हें गौरव ग्रंथ समर्पित कर एक बहुमूल्य तोहफा भेंट किया है। यह ग्रंथ राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ के जीवन की ऐसी निधि है जो उन्हें आत्म संतोष के साथ प्रेरणा स्रोत का काम करेगी और वे अधिक लेखक का प्रयास करेंगे। यह गौरव ग्रंथ चार सौ छब्बीस पृष्ठों का है जिसे सम्पादक ने आठ खण्डांे में विभक्त किया है। म.प्र.लेखक के प्रदेशाध्यक्ष डाॅ. राम बल्लभ आचार्य ने ग्रंथ की भ्ूामिका लिखकर ‘राना लिधौरी’ और ग्रंथ का गौरव बढ़ाया हैं प्रथम खण्ड में राना लिधौरी पर केन्द्रित आलेख है जो उनकी प्रतिभा को उजागर करते हैं। इस खण्ड में उनके जीवन से जुड़े मित्रों और साथी साहित्यकारों ने उनके लेखन के विविध आयामों पर प्रकाश डाला है। डाॅ. बहादुर सिंह परमार,छत्रसाल विश्व विद्यालय(छतरपुर) और संतोष सिंह परिहार (बुरहानपुर)जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने भी राना लिधौरी
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