गम की ओढ कर चादर कहा बैठे हो तेरी एक झलक चाँद भी सरमा बैठी है आओ सुर्य तेरी आस लगाये बैठे हुँ तेरी चमकती धुप के लिए पल पल तडप रहा हुँ सर्द हवाओ की प्रकोप तन को कपकपा रही कोहरा अपनी घुंघट को धीरे धीरे फैला रही तन की कपडा तो गठरी जैसी सज रही बोझ सहना मानो मुश्किल हुआ ऊपर से रजाई दिवानी हमें बुला रही आजाद पंक्षी अपनी घोसला में पंख फडफडा रही आ भीा जाओ सुर्य राजा धरती के जीव जंतु बुला रही ! कवि -क्रान्तिराज दिनांक -21-01-2024