महान लेखन को पढ़कर मन में कुछ न कुछ घटित अवश्य होता है। मुझे ऐसा विचार आया कि अपने मन के कूप में पड़े रहकर काई लगने से अच्छा है कि मुक्त आकाश में इन मन-घटित को विचरने दें ताकि मेरी मुक्ताकाश में उडती पतँग को देखकर और पतंगे भी पेंग लें और शायद मेरा शब्द-ज्ञान-बर्धन हो सके।
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