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बुशरा

12 मार्च 2023

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https://shabd.in/bushara-kumar-sandeep/book/10254647 टिंग-टोंग...

डोरबेल बजी तो कुछ ही देर बाद किरण ने दरवाज़ा खोला।

सामने अमन था।

किरण- अमन! अच्छा हुआ तू आ गया। मेरी जान छुड़वा इनसे।

अमन को देखते ही राहत भरी सांस लेकर बोली किरण तो उसने हैरानी से पूछा।

अमन- क्यों, क्या हुआ?

किरण- सुबह से किचन में घुसे हुए हैं।

अमन- क्यों?

किरण- चाय बनानी सिखा रहे हैं मुझे।

कहा उसने झुंझलाते हुए तो ये सुन और किरण का चेहरा देखकर अमन की हंसी छूट गई।

अमन- इस आदमी का कुछ नहीं हो सकता।

कहते हुए वो अंदर आया और किरण दरवाज़ा बंद करने लगी।

अमन एक लेखक है और किरण उसकी बहुत अच्छी दोस्त। दोनों साथ पढ़ते थे।

किरण एक अनाथ आश्रम में पली-बढ़ी है और स्कॉलरशिप लेकर यूनिवर्सिटी पढ़ने गई थी।

पढ़ाई में बहुत होशियार थी वो।

किरण को ज़िंदगी ने बहुत दुख दिए, लेकिन शादी के बाद ये ख़ुद को बहुत ख़ुशनसीब मानती है कि उसे इतना प्यार करने वाला पति मिला।

अमन किचन के सामने पहुंचकर समीर साहब से मुस्कुराते हुए बोला।

अमन- समीर साहब!

वो अमन की ओर पलटे और मुस्कुराते हुए बोले।

समीर- अरे! आ गए तुम?

अमन- मैं तो आ गया, अब आप भी रसोई से बाहर आ जाइए। किरण बहुत अच्छी चाय बनाती है।

कहा उसने हंसते हुए तो समीर साहब झल्लाकर बोले।

समीर- क्या ख़ाक अच्छी बनाती है? ना टेस्ट, ना अरोमा।

अमन- चाय में भी अरोमा होता है?

पूछा उसने हैरानी से तो समीर साहब अपने उसी अंदाज़ में बोले।

समीर- अब तुम लोगों को क्या-क्या बताऊं?

छोड़ो, पीयो यही उबला, मीठा पानी।

अमन- लेकिन आप तो चाय पीते ही नहीं।

समीर- कभी पीनी पड़ जाए तो?

अमन- हां! वो अलग बात है।

समीर साहब।

एक विशाल व्यक्तित्व के धनी। अपने मां-बाप के एकलौते।

भरे-पूरे कुनबे से सिर्फ़ एक ज़िद की वजह से नाता तोड़कर अपने माता-पिता के साथ शहर में आ बसे, कि शादी करनी है तो किसी अनाथ से।

उम्र पैंतालिस, तज़ुर्बा नब्बे।

बाहर नौकरी करते थे, जब एक हादसे में मां-बाप को खो दिया तो वापस अपने शहर आ गए और एक कॉलेज में पढ़ाने लगे।

सबसे मुस्कुराकर मिलते हैं लेकिन किसी से ज़्यादा मेल-जोल नहीं रखते ।

अमन से भी इसलिए खुले हैं क्योंकि वो किरण का दोस्त है।

उनका मुस्कुराता चेहरा और कहीं खोई हुई आंखें, अमन को हमेशा कचोटती रहतीं थीं।

सीधे-सीधे तो नहीं, लेकिन कई बार उसने इसकी वजह जानने की कोशिश की पर समीर साहब की तेज़ निगाहों से बच नहीं पाया और उसे एक दिन बुला लिया वो सब राज़ खोलने।

दोनों बातें करते हुए ड्राइंगरूम में चले गए।

बैठे ही थे कि तभी किरण चाय ले आई और समीर साहब की ओर ट्रे बढाई तो वो झल्लाते हुए बोले।

समीर- इसे दो ये उबला पानी।

कहा उन्होंने अमन की ओर इशारा करते हुए तो किरण झुंझलाकर बोली।

किरण- आपको मेरे हाथ की चाय कभी पसंद आएगी ही नहीं।

समीर- अरे ग़ुस्सा क्यों होती हो? तुम कहो तो ज़हर पी लूं, ये तो चाय है!

कहा उन्होंने मुस्कुराते हुए तो किरण हल्की नाराज़गी में बोली।

किरण- आपसे सिर्फ़ दिल बहलवालो।

समीर- अच्छा बैठो, तुम दोनों को एक कविता सुनाता हूं।

अमन- लेकिन...

समीर- पहले कविता सुनो।

कहा समीर साहब ने एकदम गंभीरता से तो अमन सकपका गया और बोला।

अमन- जी!

समीर- सूरज उगता है, ये धरा की जीत है,

क्योंकि सूरज उसका मनमीत है।

लेकिन तभी शबनमी रात आती है, संग चांद को लिए,

और सहलाती है धरती के ज़ख़्मों को,

यही तो उनकी प्रीत है।

लेकिन कहीं दूर कोई ये भी सोचता है,

क्या फ़र्क़ पड़ेगा, कोई मरे या कटे,

अच्छा है, कम से कम धरती का बोझ ही घटे,

और ये दुनिया की रीत है।

लेकिन नहीं।

सूरज जल्द ही ढल जाएगा,

और उसके साथ ही मेरा अस्तित्व जल जाएगा।

रोकना होगा।

रोकना होगा सूरज को ढल जाने से,

किसी को कहीं खो जाने से,

रोकना ही होगा स्वयं को स्वयं से बिछुड़ जाने से।

लेकिन यहां तो मैं ही नहीं, मैं हूं कहां?

बहुत दूर।

हर रंग में, हर कण में, किसी के तन में, उसके मन में,

रमा बैठा है वहां और वो है यहां।

मैं उसे बुलाऊंगा,

स्वयं को स्वयं से मिलवाऊंगा।

समीर साहब ने कविता सुनाई तो अमन एकदम सपाट लहजे में बोला।

अमन- गई सिर के ऊपर से।

कहा उसने तो समीर साहब हंस पड़े और बोले।

समीर- ये कविता समझनी है तो एक कहानी सुननी पड़ेगी।

अमन- अब समझना है तो सुननी ही पड़ेगी, सुनाइए!

कहा उसने सपाट लहजे में तो समीर साहब मुस्कुराते हुए बोले।

समीर- कहानी है बुशरा और समीर की।

अमन- मतलब आपकी और....

पूछा उसने तो समीर साहब तुरंत उसकी बात काटते हुए बोले।

समीर- अरे भई बहुत से समीर हैं दुनिया में! मैं अकेला तो नहीं?

अमन- हां ये भी है!

कहा उसने झेंपकर कि तभी किरण ने गंभीरतापूर्वक पूछा।

किरण- लेकिन मुझे इस कविता की एक लाइन समझ नहीं आई।

समीर- कौनसी?

किरण- वो “स्वयं को स्वयं से मिलवाऊंगा।”

कहा उसने कि तभी अमन ने तंज़ सा कसते हुए पूछा।

अमन- बस? तुझे वही लाइन समझ में नहीं आई?

किरण- महात्मन्! उस लाइन का वो मतलब नहीं है जो आप समझ रहे हैं।

कहा किरण ने मुस्कुराते हुए तो अमन ने एकदम सपाट लहजे में पूछा।

अमन- और क्या समझ रहा हूं मैं?

किरण- तू तो सिर्फ़ स्वयं को स्वयं से मिलवाने की बात समझ रहा है, यानि हमारे अंदर की दोनों शख़्सियात को आपस में मिलवाने के बारे में। जबकि यहां किसी तीसरे का ज़िक्र है।

बताया उसने गंभीरतापूर्वक तो अमन ने पूछा।

अमन- मतलब?

किरण- कविता की शुरूआत में ही दो जोड़ों का ज़िक्र है। सूरज और धरा व रात और चांद।

अमन- हां!

किरण- लेकिन रात तो होती ही नहीं।

कहा उसने तो अमन एकदम से समझते हुए बोला।

अमन- अरे हां!

किरण- इसीलिए पूछा कि स्वयं को स्वयं से कैसे मिलवाऊंगा?

कहा उसने तो समीर साहब गंभीरतापूर्वक बोले।

समीर- अगर एक शब्द में कहूं तो स्तेय।

अमन- स्तेय?

पूछा अमन ने तो समीर साहब पुष्टि करते हुए बोले।

समीर- हां, स्तेय।

अमन- वो क्या होता है?

पूछा उसने तो समीर साहब ने किरण से पूछा।

समीर- किरण?

लेकिन किरण भी हार सी मानते हुए बोली।

किरण- नहीं पता।

समीर- अच्छा ये बताओ कि मानव जीवन का लक्ष्य क्या है?

पूछा उन्होंने गंभीर होते हुए तो किरण भी गंभीरता से बोली।

किरण- जीवन को संपूर्णता प्रदान करना।

समीर- और वो कैसे हो?

किरण- इंद्रिय निग्रह से।

समीर- वो क्या है?

किरण- अपनी समस्त इंद्रियों का निग्रह यानि उन्हें वश में करना।

समीर- तो इंद्रिय निग्रह कैसे हो?

किरण- संतुलित जीवनचर्या से।

बताया उसने तो समीर साहब मुस्कुरा पड़े और कुछ सोचकर गंभीरतापूर्वक बोले।

समीर- आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च।।

इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्। आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।।

कठोपनिषद में वर्णित है कि हमारा शरीर एक रथ है, इंद्रियां इस रथ के घोड़े, बुद्धि सारथि, मन लग़ाम और इस रथ में यात्रा करने वाली आत्मा रथी है।

अमरणशील आत्मा, शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है एवं मन के माध्यम से भौतिक सुखों व दुखों का अनुभव करती है।

और मन का बाहरी जगत से संबंध, इंद्रियों के माध्यम से होता है।

मन ही मानव चित्त के अनुसार पांच ज्ञानेंद्रियों यथा: दृष्टि, शब्द, गंध, रस, स्पर्श और पांच कर्मेंद्रियों यथा: हाथ, पांव, मुख, गुदा तथा उपस्थ के माध्यम से मिलने वाले संवेदन-संकेतों की सुख या दुख के रूप में व्याख्या करता है।

इंद्रिय-संवेदना क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, चखने तथा स्पर्शानुभूति से संबंधित रहती है। किन विषयों में इंद्रियां विचरेंगी और तत्संबंधित कितनी संवेदनाओं को बटोरेंगी? इसका नियंत्रण मन के पास है।

इंद्रिय-विषयों की उपलब्धता होने पर भी मन उनके प्रति उदासीन हो सके, इसके लिए भौतिक-भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लग़ाम के द्वारा बुद्धि रूपी सारथी का नियंत्रण स्थापित किया जाता है।

ऐसा होने पर बुद्धि निर्धारित करती है कि क्या कर्तव्य है और क्या नहीं।

और फिर इसी अनुसार मन, इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है और मनुष्य, जीवन की संपूर्णता की और अग्रसर हो जाता है।

यही इंद्रिय निग्रह है।

अमन- हैं... मैंने तो ऐसा कभी कहीं पढ़ा ना सुना!

कहा अमन ने हैरानी से तो किरण उसे समझाते हुए बोली।

किरण- ये आध्यात्मिक गूढ़ता है।

यदि सारथी यानि बुद्धि, इंद्रिय रूपी घोड़ों को नियंत्रित ना करे तो वे मनमानी करते हुए ग़लत रास्ते पर चलते रहेंगे और यात्री यानि आत्मा को उसकी मंज़िल तक नहीं पहुंचा पाएंगे।

अब तुझे समझ आ गया हो तो मैं ज़रा स्तेय को समझ लूं?

अमन- मतलब आध्यात्मिकता तो एक अलग ही दुनिया है?

हां समझ! स्तेय का मतलब समझ।

कहा उसने भारी बेचैनी में तो समीर साहब ने ये देखकर मुस्कुराते हुए किरण से पूछा।

समीर- तो देह का स्वामी कौन?

किरण- ज़ाहिर है, आत्मा।

बताया उसने गंभीरता से तो समीर साहब ने मुस्कुराते हुए पूछा।

समीर- तो मैं कौन?

किरण- मात्र एक देह।

समीर- तो मैं स्वयं को स्वयं से कैसे मिलवाऊंगा?

पूछा उन्होंने एकदम गंभीर होते हुए तो किरण मुस्कुरा पड़ी और बोली।

किरण- ओह! समझ गई। स्तेय यानि चोर।

समीर- चोर नहीं चोरी। लेकिन फिर भी हम चोर ही हैं।

बताया उन्होंने मुस्कुराते हुए तो किरण ने पूछा।

किरण- मतलब? मैं समझी नहीं!

समीर- देखो! हम जो भी बोलते, सुनते या लिखते हैं, वो सभी शब्द पहले से ही कहीं ना कहीं मौजूद हैं।

हम तो सिर्फ़ उन्हें चुराकर उनकी नक़ल करते हैं।

कहा उन्होंने समझाते हुए तो अमन ने हैरानी से पूछा।

अमन- मतलब मैं तो बहुत बड़ा चोर हो गया?

समीर- जी अमन बाबू! लेखक तो सबसे बड़ा चोर होता है।

कहा उन्होंने मुस्कुराते हुए तो किरण ने भारी कशमकश में पूछा।

किरण- तो फिर अस्तेय कौन?

समीर- इस धरती पर तो कोई भी नहीं। यहां तक कि पशु-पक्षी भी नहीं।

बताया उन्होंने तो अमन ने भारी हैरानगी में पूछा।

अमन- पशु-पक्षी क्यों नहीं?

समीर- इस घर के आंगन में एक आम का पेड़ लगा हुआ है जो हवा चलने पर हिलता है।

कहा उन्होंने मुस्कुराते हुए तो अमन हामी भरते हुए बोला।

अमन- जी!

समीर- अब जिस प्रकार वो हिल रहा है, क्या उसी तारतम्य में कभी कोई और आम का पेड़ नहीं हिला होगा?

पूछा उन्होंने तो अमन और भी ज़्यादा उलझन में बोला।

अमन- फिर तो प्रकृति भी चोरी करती है। या नहीं?

समीर- नहीं।

कहा उन्होंने एकदम सपाट लहजे में तो अमन ने हैरानी से पूछा।

अमन- वो कैसे?

पूछा उसने तो समीर साहब ने आंखें बंद करके चुप्पी साध ली और कुछ देर बाद आंखें खोलकर अमन को एक भरपूर निगाह देखा और मुस्कुराते हुए पूछा।

समीर- क्या कोई घटना सिर्फ़ घट जाती है या फिर कोई घटनाक्रम होता है?

अमन- जी घटनाक्रम होता है।

बताया उसने सपाट लहजे में तो समीर साहब मुस्कुराते हुए बोले।

समीर- तो मोटे तौर पर ये समझिए अमन बाबू! कि कोई घटना एक निकटस्थ अनुकृति और घटनाक्रम के बिंदू, मौलिक कृति होते हैं।

अमन- तो फिर प्रकृति क्या हुई? स्तेय या अस्तेय?

पूछा उसने तो समीर साहब कुछ गंभीर होते हुए बोले।

समीर- स्तेय भी और अस्तेय भी।

अमन- ये क्या बात हुई?

पूछा उसने उलझन में तो समीर साहब ने मुस्कुराते हुए उसी से प्रश्न कर डाला।

समीर- संसार का रूप क्या है?

अमन- जो हम देखते हैं।

समीर- नहीं।

कहा उन्होंने एकदम गंभीरता से तो अमन ने तुरंत याचना भरी निगाह से किरण को देखा।

अब किरण कुछ सधी हुई बोली।

किरण- ये संसार कारणरूप है।

समीर- कारण किससे उत्पन्न हुआ?

किरण- शायद प्रकृति से।

समीर- नहीं। बल से।

किरण- ये नहीं पता था।

कहा उसने झेंपते हुए तो समीर साहब ने सपाट लहजे में पूछा।

समीर- क्या प्रकृति दृश्यमान है?

किरण- हां भी और नहीं भी।

क्योंकि जो हम देखते हैं वो दृश्यभ्रम, बुद्धिभ्रम, दिशाभ्रम आदि भी हो सकता है।

बताया उसने तो समीर साहब गंभीरतापूर्वक बोले।

समीर- लेकिन वो बल, जो प्रकृति को कारणरूप बनाता है, वो दिखता नहीं लेकिन सत्य है।

वो ही कारण है, परंतु बिना किसी साधन के दिखाई नहीं देता।

बताया उन्होंने तो किरण ने विस्मित होते हुए पूछा।

किरण- तो वो बल क्या है?

समीर- शक्ति।

जो इस संसार के प्रत्येक अणु-परमाणु में विद्यमान है।

जो इन सबको स्थिररूप में भी चलायमान रखती है।

जो कारणरूप होते हुए भी दू:दृश्यमान है।

जो प्रकृति का मूल है, वो ही शक्ति है।

बताया उन्होंने तो किरण ने भारी गंभीरता से पूछा।

किरण- अर्थात शक्ति से ही समस्त ब्रह्मांड का सृजन हुआ?

पूछा उसने गंभीरता से तो समीर साहब ने जवाब दिया।

समीर- नहीं।

किरण- तो?

समीर- मात्र युग्म ही सृजन कर सकता है।

बताया उन्होंने तो किरण ने जिज्ञासावश पूछा।

किरण- किसका युग्म?

समीर- धन और ऋण का। अर्थात पुरुष और प्रकृति का।

बताया उन्होंने तो किरण सब समझकर मुस्कुराते हुए बोली।

किरण- सब समझ गई।

समीर- तो अब अमन के सवाल पर वापस चलते हैं।

कहा उन्होंने मुस्कुराते हुए तो अमन बोला।

अमन- जी।

समीर- अब क्योंकि शक्ति, जो इस संसार के प्रत्येक अणु-परमाणु में विद्यमान है, इन सबको स्थिररूप में भी चलायमान रखती है और कारणरूप होते हुए भी दू:दृश्यमान है। इसलिए प्रकृति स्तेय भी हुई और अस्तेय भी।

अमन- समीर साहब! मैं अब भी नहीं समझा।

कहा उसने किसी उलझन में तो समीर साहब ने समझाने के लिए पूछा।

समीर- इस ब्रह्मांड का निर्माण किससे हुआ है?

अमन- पदार्थ से।

समीर- पदार्थ में क्या विद्यमान है?

अमन- अणु-परमाणु।

समीर- अब मान लो कि हमने किसी वस्तु का निर्माण किया तो क्या उसमें अणु-परमाणु मौजूद नहीं हैं?

अमन- जी, बिल्कुल हैं!

समीर- तो क्या उस वस्तु के परमाणुओं में उपस्थित संघटक, उक्त परमाणु के नाभिक की परिक्रमा, प्रकृति में पहले से ही मौजूद अन्य परमाणु संघटकों के अनुरूप ही नहीं करते?

पूछा समीर साहब ने मुस्कुराते हुए तो अमन हैरानी से हामी भरते हुए बोला।

अमन- वैसे ही करते हैं!

समीर- अब एक और सवाल।

अमन- जी?

समीर- हमने नई वस्तु के निर्माण के लिए जिस पदार्थ का प्रयोग किया, क्या वो प्रकृति में पहले से ही उपलब्ध नहीं था?

अमन- जी, उपलब्ध था।

कहा उसने समझते हुए तो समीर साहब मुस्कुराते हुए बोले।

समीर- इसलिए प्रकृति स्तेय भी हुई और अस्तेय भी।

अब ये हम पर निर्भर है कि हम प्रकृति के किस रूप की बात कर रहे हैं!

बताया उन्होंने मुस्कुराते हुए तो अमन भी सब समझकर मुस्कुराते हुए बोला।

अमन- समझ गया।

समीर- अब एक आख़िरी सवाल, कि रस क्या है?

पूछा उन्होंने तो अमन ने तपाक से सारे रसों को जैसे तुरंत एक लाईन में ला खड़ा कर दिया।

अमन- श्रृंगार, हास्य, करुण, वीर, रौद्र, भयानक, वीभत्स, अद्भुत, शान्त, वात्सल्य और भक्ति रस।

बताया उसने तो समीर साहब और किरण ठहाका लगाकर हंस पड़े तो अमन को कुछ समझ नहीं आया।

अमन की, समीर साहब से तो कुछ कहने की हिम्मत नहीं थी तो वो किरण पर ही रौब झाड़ते हुए बोला।

अमन- अब तू क्यों हंस रही है? मैंने जितने भी रस बताए हैं सारे सही हैं।

किरण- लेकिन मैं तो इसलिए हंस रही हूं कि मुझे आज पहली बार समझ आया कि तेरे इतने कम नंबर क्यों आते थे।

कहा उसने हंसते हुए तो अमन ने थोड़ी झुंझलाहट में पूछा।

अमन- और क्यों आते थे?

किरण- क्योंकि तुझे सवाल ही समझ नहीं आते।

कहा उसने मुस्कुराते हुए तो अमन ने एकदम सपाट लहजे में पूछा।

अमन- और तुझे ऐसा क्यों लगता है?

किरण- इन्होंने क्या सवाल किया था?

पूछा उसने एकदम सपाट लहजे में तो अमन ने भी उसी लहजे में बताया।

अमन- कि रस क्या है?

किरण- तो जवाब क्या हो?

अमन- दे तो दिया!

कहा उसने ज़ोर देते हुए तो किरण फिर से मुस्कुराते हुए बोली।

किरण- तो अमन बाबू! आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि इन्होंने रस के प्रकार नहीं बल्कि रस की परिभाषा पूछी थी।

अमन- हैं?

कहा उसने थोड़ा हैरान होकर तो किरण मुस्कुराते हुए बोली।

किरण- इसीलिए तो तुझे कहती हूं कि हमेशा घोड़े पर सवार मत रहा कर।

कभी धरती पर चलकर ज़िंदगी को भी देख।

अमन- समीर साहब! अगर आपकी इजाज़त हो तो मैं किरण से कुछ कहना चाहता हूं!

कहा उसने एकदम से भारी गंभीरता में तो समीर साहब मुस्कुराते हुए बोले।

समीर- अरे भई दोस्त हो तुम दोनों!

मैं बात करने से क्यों इंकार करूंगा तुम्हें?

कहा उन्होंने तो अमन बहुत संजीदगी भरा किरण से बोला।

अमन- किरण! यूनिवर्सिटी में हमारे बहुत से दोस्त बने।

लेकिन मैं ख़ुद को ख़ुशनसीब मानता हूं कि मुझे तेरे जैसी दोस्त मिली।

पापा की मौत क्या हुई कि सब साथ छोड़ गए।

तब तूने, मुझे सहारा दिया।

ना तू, मुझे अपनी आधी स्कॉलरशिप देती, और ना ही मैं पढ़ाई पूरी कर पाता।

आज अगर किसी मक़ाम पर खड़ा हूं तो सिर्फ़ तेरी बदौलत; नहीं तो कब का मर-खप चुका होता।

कहते हुए उसकी आंखें भर आईं तो माहौल को हल्का करने के लिए किरण हंसते हुए बोली।

किरण- तो इज़्ज़त किया कर मेरी।

अमन- यही तो ग़लती रही कि कभी तेरी बात नहीं मानी।

उम्र के इस अधेड़ दौर में आकर समझ आया है कि तेरी सोच कितनी गहरी थी!

कहा उसने लगभग रोते हुए तो किरण ने हंसकर अमन के सिर पर धौल लगाते हुए पूछा।

किरण- अब रस की परिभाषा मैं बताऊं या तू बताएगा?

अमन- तू कभी नहीं सुधर सकती!

कहा उसने हल्का सा मुस्कुराते हुए तो किरण भी मुस्कुराते हुए बोली।

किरण- जो सुधर जाए वो किरण कौन?

अमन- समीर साहब! आप ही बताइए! ये तो मेरा दिमाग़ ही ख़राब कर देगी।

कहा उसने तो समीर साहब मुस्कुराए और एकदम से गंभीर होकर बोले।

समीर- विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।

इस प्रकार काव्य पढ़ने, सुनने या अभिनय देखने पर विभाव आदि के संयोग से उत्पन्न होने वाला आनंद ही रस है।

साहित्य में रस का वही स्थान है जो शरीर में प्राण का।

जिस प्रकार प्राण के अभाव में प्राणी का अस्तित्व संभव नहीं है उसी प्रकार रसहीन कथन को साहित्य नहीं कहा जा सकता।

अतः रस ही साहित्य का मूल है।

किरण- जी।

कहा किरण ने तो समीर साहब एक रहस्यमयी सी मुस्कुरान बिखेरते हुए बोले।

समीर- अब तुम दोनों ये कहानी सुनने के लिए बिल्कुल तैयार हो।

अमन- मतलब?

पूछा अमन ने हैरानी से तो समीर साहब मुस्कुराते हुए बोले।

समीर- अब तुम दोनों के हर-एक सवाल का जवाब इस कहानी में ही है।

कहा उन्होंने तो किरण एकदम बेचैन सी बोली।

किरण- तो कहानी शुरू कीजिए!

समीर- अभी।

ये कहते हुए समीर साहब ने आंखें मूंद लीं।

चेहरे पर बहुत से भाव आए और गए।

अचानक एक भाव ठहरा और समीर साहब ने कहानी शुरू की।

समीर- समीर, दिल्ली में नौकरी करता था। एक बार किसी काम से हैदराबाद गया हुआ था, जिस होटल में ठहरा था उसके पीछे की सड़क रात में सुनसान हो जाती थी।

एक रात समीर खाना खाकर उसी सड़क पर टहलने निकला।

थोड़ी दूर गया तो देखा कि एक कार खड़ी थी और पास में ही एक सहमी हुई सी लड़की।

पता नहीं क्यों लेकिन समीर जैसे खिंचा हुआ सा उस लड़की के पास जा पहुंचा।

और हैरानी इस बात की, कि जो लड़की अब तक नज़रें झुकाए, डरी हुई थर्रा रही थी। उसे समीर के इतना पास पहुंचने, एक अंजान आदमी के पास होने पर भी वो डरने की बजाय समीर से नज़रें मिलाकर उस पर यक़ीन करके बोली और बताया कि उसकी गाड़ी में कोई दिक़्क़त आ गई है और फ़ोन भी बंद हो गया है।

ये देखकर समीर ने उसे अपना मोबाइल दिया तो उसने अपने घर पर बात करके दूसरी गाड़ी मंगवा ली और मोबाइल वापस देते हुए बोली।

लड़की- आपका बहुत शुक्रिया!

समीर- वैसे मेरा नाम, आप नहीं बल्कि समीर है।

कहा समीर ने एकदम से मुस्कुराते हुए तो वो लड़की जैसे कहीं खो सी गई।

ये देखकर समीर ने उसे पुकारा।

समीर- सुनिए!

कहा समीर ने तो वो भी एकदम से मुस्कुराई और बोली।

लड़की- वैसे मेरा नाम भी सुनिए नहीं बल्कि बुशरा है।  

समीर- जी! बहुत प्यारा नाम है।

बुशरा- शुक्रिया!

कहा उसने तो कुछ लम्हात की चुप्पी के बाद समीर ने पूछा।

समीर- अ... वैसे गाड़ी में क्या हुआ?

पूछा उसने तो बुशरा ने कुछ परेशान सी होते हुए बताया।

बुशरा- आगे वाले दोनों टायर पंक्चर हो गए। एक तो बदल दिया, दूसरा ड्राइवर लेकर गया है पंक्चर बनवाने।

समीर- ओह! कितनी देर हुई?

बुशरा- काफ़ी देर हो गई, मुझे यहां अकेले डर लग रहा था।

कहा उसने तो समीर हिम्मत सी बंधाते हुए बोला।

समीर- डरिए नहीं! जब तक गाड़ी नहीं आती, मैं यहीं हूं आपके पास।

कहा उसने तो बुशरा ने मुस्कुराते हुए पूछा।

बुशरा- शुक्रिया! वैसे आप कहां से हैं?

समीर- मैं तो हरियाणा से हूं। यहीं थोड़ा आगे जो होटल है वहां ठहरा हुआ हूं।

बुशरा- यहां घूमने आए हैं?

पूछा उसने तो समीर मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- आया तो किसी काम के सिलसिले में था, लेकिन अभी हूं एक हफ़्ता और तो ये शहर भी देख लूंगा।

दोनों बातें कर ही रहे थे कि पास में एक गाड़ी आकर रुकी।

गाड़ी में से एक लड़की उतरी तो बुशरा भागकर उसके पास गई और उसका हाथ पकड़कर समीर के पास ले आई और जैसे चहकती हुई बोली।

बुशरा- आपी! ये समीर हैं, इतनी देर ये ही मेरे पास रहे।

समीर साहब! ये मेरी बड़ी बहन हुमैरा हैं।

हुमैरा- समीर?

पूछा हुमैरा ने हैरानी से समीर की ओर देखते हुए तो समीर को अजीब सा लगा और बोला।

समीर- जी! समीर!

सुनते ही हुमैरा के चेहरे पर जैसे कोई अंजाना सा डर छा गया, लेकिन तभी मुस्कुराते हुए थोड़ी हड़बड़ाहट में बोली।

हुमैरा- आपका बहुत शुक्रिया जो आप मेरी बहन के लिए रुके, लेकिन अभी हमें जाना होगा।

प्लीज़ बुरा मत मानिएगा!

समीर- जी!

हुमैरा- चल बुशरा!

कहा उसने बुशरा का हाथ पकड़कर उसे गाड़ी में लगभग धकेलते हुए तो बुशरा बोली।

बुशरा- आपी लेकिन...

पूछा उसने हैरानी में तो बुशरा की बात पूरी होने से पहले ही हुमैरा हड़बड़ाते हुए बोली।

हुमैरा- कुछ जरूरी काम है घर पर।

कहते हुए बुशरा को बिठाकर हुमैरा ख़ुद भी गाड़ी में बैठ गई।

समीर- अरे!

हुमैरा के इस बर्ताव को देखकर समीर ने हैरानी से पूछा तो उसने एकदम गाड़ी का दरवाज़ा बंद कर लिया और जैसे ज़बर्दस्ती से मुस्कुराते हुए बोली।

हुमैरा- प्लीज़ बुरा नहीं मानिएगा!

कहती हुई वो चली गई तो समीर हैरान सा वापस होटल आ गया।

लेकिन दिमाग़ में सिर्फ़ बुशरा घूमे।

रह-रह कर वो ही याद आए।

समीर उसे अपने दिमाग़ से झटकना चाहे लेकिन जितनी भूलने की कोशिश करे बुशरा उतनी ही दिल में रमती जाए।

पूरी रात सो नहीं पाया वो।

सुबह होने को थी कि तभी निद्रा देवी ने थोड़ी मेहरबानी की तो समीर ने एकदम झटक लिया उस लम्हे को और सो गया।

लेकिन ये क्या?

सपने में भी बुशरा!

बुशरा- मैं आपको हैदराबाद घुमाऊं?

समीर- क्या ये सही रहेगा?

बुशरा- क्यों नहीं?

समीर- चलो ठीक है!

हुसैन सागर झील, हैदराबाद।

बुशरा- मुझे आपसे प्यार हो गया है।

समीर- अच्छा मज़ाक़ है।

बुशरा- ये मज़ाक़ नहीं!

समीर- फिर तो तुम पागल हो गई हो।

मरीन ड्राइव, मुंबई।

समीर- अरे तुम मेरा हाथ पकड़े भाग क्यों रही हो? मुझसे नहीं भागा जाता इतना।

बुशरा- मज़ा आता है आपको सताने में।

समीर- बुशरा मैं थक गया हूं।

बुशरा- समंदर के किनारे भी कोई थकता है?

बोली वो हंसते हुए और हंसते-हंसते रोने लगी।

बुशरा का फ़्लैट, दिल्ली।

बुशरा- मैं जी नहीं पाऊंगी आपके बिना।

समीर- तुम्हें जीना होगा बुशरा! मेरी जान की क़सम है तुम्हें!

बुशरा- कम से कम मरने तो दें!

समीर- नहीं! तुम्हारे साथ ही मैं भी अपनी जान दे दूंगा।

बुशरा- अल्लाह! ऐसा महबूब किसी को ना देना!

कोई होटल, हैदराबाद।

बुशरा रोती हुई डोली में बैठी।

बुशरा- या अल्लाह! तू जानता है कि मैंने बेवफ़ाई नहीं की। जो मेरे महबूब ने कहा वही किया है।

अब मेरा फ़र्ज़ है कि मेरा शौहर ही मेरे दिल में रहे।

लेकिन मैं उसे नहीं भूल सकती।

अब से वो तेरे हवाले है! मेरी अमानत आकर मांग लूंगी तुझसे!

कोई हॉस्पिटल, दिल्ली।

समीर- माशा-अल्लाह! बहुत प्यारी बच्ची है! क्या नाम रखा?

बुशरा- आप ही रखेंगे।

समीर- बुशरा...

बुशरा- प्लीज़!

समीर- हम्म! अलीशा।

बुशरा- बहुत प्यारा नाम है। आप हमारे बेटे का नाम क्या रखेंगे?

समीर- जो तुम कहोगी!

बुशरा- मिलिंद। नागसेन के शिष्य थे।

तभी फ़ोन की घंटी बज़ी तो सपना टूटा और समीर की आंखें खुलीं।

रिसेप्शन से फ़ोन था, कोई मिलने आया था उससे।

वो उठा और हाथ-मुंह धोकर रिसेप्शन पर गया तो देखा कि बुशरा खड़ी थी।

लाल कुर्ता, सुनहरी पाजामी, कमर से नीचे तक के काले बाल, गोरा रंग, इकहरा बदन।

पतली सी कमर और दाहिने कंधे पर पड़ा उसे ढंकता हुआ एक झीना सा दुपट्टा।

चौड़ी पेशानी, सुतवां नाक और सेमल की जवान कली से होंठ।

वो तो हैरानी में पड़े बिना नहीं रह सका।

अब उसकी आंखें देखीं।

ओह! जैसे किसी को एक ही लम्हे में किसी किताब की तरह एक बार में ही पढ़ ले।

बड़ी-बड़ी सी काली आंखें; जैसे एकदम साफ़, सफ़ेद से पर्दे में जड़े दो चमकदार हीरे।

मानें या ना मानें लेकिन साक्षात रति का जीवंत अंश समाहित था उसकी देह में।

जो एक बार देख ले तो बस, मारे कशिश के ख़ुद को ही भूल जाए।

हसीन।

जैसे कि बनाने वाले ने अपना सारा हुनर उसे ही बनाने में ख़र्च दिया हो।

बुशरा- अस्सलामु अलैकुम!

कहा उसने समीर को देखते ही मुस्कुराते हुए तो वो भी मुस्कुराकर बोला।

समीर- व अलैकुम अस्सलाम! तुम यहां क्या कर रही हो?

बुशरा- आपको शुक्रिया कहने आई हूं, अगर आप बुरा ना मानें तो!

कहा उसने गुज़ारिश सी करते हुए तो समीर एकदम खिलंदड़े से अंदाज में मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- अच्छा! तो चलो फिर चाय पिलाओ।

कहा समीर ने तो वो मख़मली से अंदाज़ में मुस्कुराते हुए बोली।

बुशरा- बिल्कुल! आइए।

कहा उसने मुस्कुराते हुए और दोनों चाय पीने चले गए।

समीर ने ऑर्डर दिया और कुछ ही देर में चाय आ गई तो चाय पीते हुए समीर ने पूछा।

समीर- ये कल तुम्हारी बहन को क्या हुआ था?

बुशरा- पता नहीं! मैंने बहुत पूछा लेकिन उन्होंने कुछ बताया ही नहीं, सिर्फ़ यही कहतीं रहीं कि अब दुबारा आपसे ना मिलूं।

कहा उसने कुछ उलझन में तो समीर ने कुछ-कुछ समझते हुए पूछा।

समीर- हम्म! तो फिर क्यों आईं?

बुशरा- बस आपसे मिलने का मन कर रहा था और दिल पर भी बोझ था कि कल के आपी के बर्ताव के लिए आपसे माफ़ी मांगूं।

कहा उसने संजीदगी से तो समीर हंसते हुए बोला।

समीर- वैसे इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी।

समीर को उस वाक़िए से बेपरवाह देखकर बुशरा भी मुस्कुराते हुए बोली।

बुशरा- लेकिन साथ में चाय पीने की ज़रूरत ज़रूर थी।

समीर- हां! ये कह सकते हैं।

बुशरा- वैसे अगर आप इजाज़त दें तो एक बात कहूं?

पूछा उसने एकदम संजीदगी तो समीर मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- अरे इजाज़त कैसी? तुम हुक्म करो!

बुशरा- मैं आपको मेरा शहर घुमाऊं?

पूछा बुशरा ने तो समीर एकदम सन्न रह गया। कल रात का पूरा सपना फिर से आंखों के आगे दौड़ गया और उसी डर की हालत में ज़बर्दस्ती एक झूठी मुस्कान अपने चेहरे पर ओढ़ते हुए पूछा।

समीर- अ... यूं किसी अजनबी के साथ तुम्हारा बाहर जाना ठीक रहेगा?

पूछा उसने मुस्कुराते हुए तो बुशरा ने उल्टे सवाल दाग़ दिया।

बुशरा- किस अजनबी के साथ?

समीर- मैं अजनबी ही तो हूं!

बुशरा- कल आपने कितनी बातें तो कीं थीं मेरे साथ! अब कहां अजनबी?

कहा उसने तो समीर से कोई जवाब नहीं बना और बोला।

समीर- हां! ये भी है।

कहा उसने राज़ी होते हुए तो बुशरा मुस्कुराते हुए अपने उसी मख़मली अंदाज़ में बोली।

ये अंदाज़ शायद उसकी शख़्सियत का हिस्सा था।

बुशरा- तो जल्दी से तैयार हो जाएं, मैं यहीं इंतिज़ार करती हूं आपका।

समीर- ठीक है!

कहते हुए समीर उठा और कुछ ही देर में तैयार होकर वापस बुशरा के पास आ गया।

उसे देख बुशरा ने उठते हुए पूछा।

बुशरा- चलें?

समीर- नाश्ता तो कर लूं?

पूछा उसने तो बुशरा मुस्कुराते हुए बोली।

बुशरा- बाहर ही करेंगे, हैदराबाद का बेस्ट ऑमलेट खिलाऊंगी आपको।

समीर- ठीक है! चलो फिर!

कहा समीर ने कंधे उचकाते हुए तो दोनों बाहर आए। उन्हें देखकर ड्राइवर ने गाड़ी का दरवाज़ा खोला और बुशरा अंदर बैठते ही नाराज़ सी ड्राइवर से बोली।

बुशरा- चाचा? मैंने कितनी बार कहा है कि आप मेरे लिए दरवाज़ा ना खोला करें! बुरा लगता है मुझे।

ड्राइवर- मैडम ये ड्यूटी है मेरी।

बुशरा- और फिर मैडम? समीर साहब कोई ग़ैर नहीं हैं।

और अपनों के सामने तकल्लुफ़ नहीं होते चाचा!

कहा उसने तो ड्राईवर नरमी से बोला।

ड्राइवर- सॉरी, बुशरा!

बुशरा- और सिर्फ़ बुशरा?

पूछा उसने नाराज़गी में तो ड्राइवर हंसते हुए बोला।

ड्राइवर- नहीं, मेरी बिटिया। बुशरा बिटिया।

लेकिन मेरी ड्यूटी भी तो है बिटिया!

बुशरा- अपनी ड्यूटी ऑफ़िस तक रखें आप! मेरे लिए तो आप मेरे बड़े हैं!

ड्राइवर- अच्छा अब मुझे जगह तो बता दे! कहां लेकर चलूं?

बुशरा- समीर साहब को नाश्ता करवाना है चाचा!

ड्राइवर- मतलब तेरा फ़ेवरेट कैफेटेरिया?

बुशरा- जी!

कहा उसने मुस्कुराते हुए तो ये सब देखकर समीर सोचने लगा।

ये क्या कहा बुशरा ने?

‘कि समीर साहब कोई ग़ैर नहीं हैं।’

क्या कल रात के लिए कोई अपराधबोध?

शायद नहीं!

इन भावों में अपराधबोध नहीं अपितु आत्मीयता है।

लेकिन क्यों?

क्या आवश्यकता?

शायद प्रायश्चित?

हां! ये कारण हो सकता है।

लेकिन वो भी क्यों?

ग़लती तो इसकी नहीं!

शायद कर्तव्यबोध?

ये हो सकता है; लेकिन भाव समर्थन नहीं करते।

कहीं कुछ...

बुशरा- समीर साहब!

बोली बुशरा तो वो ख़यालात से बाहर आया।

समीर- हां?

बुशरा- पहुंच गए।

समीर- अच्छा! चलो।

दोनों गाड़ी से उतरे और एक कैफेटेरिया में चले गए।

बुशरा ने ऑर्डर दिया तो कुछ ही देर में चाय और ऑमलेट आ गए।

खाते-खाते समीर ने पूछा।

समीर- तुम पढ़ती हो?

बुशरा- अभी ग्रेजुएशन हुई है।

समीर- आगे क्या इरादा है?

बुशरा- अभी कुछ सोचा नहीं।

समीर- तुम्हारे पापा क्या करते हैं?

बुशरा- आर्मी से रिटायर्ड हैं, अभी बिज़नेस करते हैं।

समीर- हम्म! बढ़िया है।

नाश्ता हुआ तो बुशरा ने बिल मंगवाया।

समीर ने जैसे ही बिल उठाने के लिए हाथ बढ़ाया कि बिल बुशरा ने उठा लिया।

समीर- अरे मैं दूंगा!

बुशरा- आप मेहमान हैं हमारे, बिल मैं दूंगी।

समीर- नहीं, बिल मैं दूंगा।

बुशरा- बिल तो मैं ही दूंगी।

बुशरा अड़ गई तो समीर ने भी हथियार डाल दिए और मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- ठीक है! जैसा तुम चाहो!

अब बुशरा ने बिल दिया और दोनों जाकर गाड़ी में बैठे।

बुशरा- बताएं! सबसे पहले कहां चलें?

समीर- तुम्हारा शहर है, तुम ही बताओ!

बुशरा- चारमीनार चलें चाचा!

कहा बुशरा ने ड्राइवर से तो गाड़ी चली और कुछ ही देर में वे चारमीनार पहुंच गए।

घूम-फिरकर वे दोनों एक बेंच पर आ बैठे तो बुशरा कहीं खोई सी बोली।

बुशरा- आप वो अजनबी वाली बात कह रहे थे ना?

समीर- हां!

बुशरा- कल मुझे लगा ही नहीं कि आप अजनबी हैं।

समीर- तो?

पूछा समीर ने बुशरा की तरफ़ देखकर तो वो उसकी आंखों में देखते हुए संजीदगी से बोली।

बुशरा- ऐसा लगा जैसे मैं हमेशा से जानती हूं आपको।

ये सुनकर समीर हंसने लगा और बोला।

समीर- तुम्हारी उम्र ही ऐसी है। इस उम्र में लगता है कि ख़्वाब सच होते हैं।

ये सुनकर वो भी मुस्कुराते हुए बोली।

बुशरा- लेकिन मेरा तो हुआ है।

समीर- कौनसा?

बुशरा- यही कि किसी को हैदराबाद घुमा रही हूं।

समीर- बढ़िया है। घुमाओ।

समीर ने मुस्कुराते हुए कह तो दिया लेकिन बुशरा की आंखों में दिख गया था कि उसके दिल में कुछ और ही चल रहा है।

अब बुशरा उठते हुए बोली।

बुशरा- चलिए अब मक्का मस्जिद चलते हैं।

समीर- हां, चलो!

कहा समीर ने भी उठते हुए और दोनों कुछ ही देर में मक्का मस्जिद पहुंच गए।

पहुंचे तो बुशरा, समीर से बोली।

बुशरा- आप जानते हैं कि इस मस्जिद की एक ख़ासियत है।

समीर- क्या?

पूछा उसने तो बुशरा ने मुस्कुराते हुए बताया।

बुशरा- मस्जिद की पीछे वाली दीवार में मक्का शरीफ़ से आया हुआ एक पाक पत्थर लगा है, जिसका बाहर से आने वालों को नहीं पता।

समीर- कहां है? दिखाओ मुझे!

कहा उसने एकदम से बेचैन होते हुए तो बुशरा हंस पड़ी और बोली।

बुशरा- चलिए, पहले वही दिखाती हूं।

समीर- हां चलो!

कहते हुए वो बेसाख़्ता ही बुशरा का हाथ पकड़कर पीछे की तरफ़ चला लेकिन बुशरा नहीं हिली तो समीर ने मुड़कर उसे देखा।

वो आंखें मूंदे एकदम चुपचाप खड़ी थी और चेहरे पर जैसे लाज, शर्म और हया ने एकसाथ दस्तक दे रखी थी।

ये देखकर समीर अपनी ही सोच में कुछ उलझ सा गया लेकिन बुशरा का हाथ छोड़कर मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- बुशरा!

बुशरा- हूं...

कहा उसने लरज़ती सी आवाज़ में तो समीर ने मुस्कुराते हुए पूछा।

समीर- चलें?

बुशरा- जी।

कहते हुए वो आगे आई और सकुचाकर अपने पीछे आने का इशारा करते हुए बोली।

बुशरा- आइए!

कुछ ही लम्हात में दोनों वहां पहुंचे तो बुशरा उस पत्थर की तरफ़ इशारा करते हुए बोली।

बुशरा- ये वो पाक पत्थर है।

बताया उसने तो समीर कुछ नहीं बोला, सिर्फ़ आगे बढ़कर उस पत्थर को चूम लिया।

और जैसे ही वो पीछे हुआ कि बुशरा ने उसी जगह पर लब टिका दिए जहां समीर ने चूमा था।

ये देखकर समीर शक पुख़्ता हो गया और उसके होंठ कुछ कहने के लिए खुले ही थे कि अज़ान हो गई तो चुप ही रहा।

अज़ान के बाद समीर कुछ सोचकर मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- चलो! ज़ुहर की नमाज़ के लिए चलते हैं।

बुशरा- जी।

बोली वो कहीं खोई सी और चल पड़ी तो समीर भी उसके साथ चला।

नमाज़ के बाद दोनों चुपचाप गाड़ी में आ बैठे।

समीर, शायद बुशरा की हालत के बारे में जान गया था तो ड्राइवर को सीधे होटल चलने को बोल दिया।

कुछ देर में होटल पहुंचे तो वो बुशरा को अपने कमरे में लेकर आया और सोफ़े पर बिठाकर बड़े प्यार से बोला।

समीर- बुशरा!

बुशरा- जी?

पूछा उसने झुकी नज़रों से तो समीर ने एकदम सपाट लहजे में पूछा।

समीर- ये अचानक क्या हो गया है तुम्हें?

बुशरा- पता नहीं!

कहा उसने जैसे किसी उलझन में तो समीर ने कुछ डरते हुए पूछा।

समीर- कहीं कुछ और तो नहीं?

बुशरा- नहीं जानती।

बोली वो जैसे कहीं खोई हुई सी तो समीर ने एकदम ज़ोर देते हुए पूछा।

समीर- कहीं कुछ ऐसा तो नहीं जो हम दोनों के बीच दूरी का सबब बन जाए?

बुशरा- अल्लाह रहम करे! ऐसा तो मैं सोच भी नहीं सकती।

कहा उसने ज़ोर देकर तो समीर मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- तो मुस्कुराओ! तुम्हारी मुस्कान सुकून देती है।

बुशरा- जी! जैसा आप कहें!

कहा उसने मुस्कुराते हुए तो समीर भी मुस्कुराकर बोला।

समीर- अब लगीं ना तुम पहले वाली बुशरा।

अब बताओ! पहले खाना, खाना है या कहीं और चलना है?

बुशरा- जो आपकी मर्ज़ी! वैसे मैं तो आपको बिरयानी खिलाना चाहती थी!

कहा उसने मुस्कुराते हुए तो समीर भी मुस्कुराकर उठते हुए बोला।

समीर- तो चलिए! जैसा आप चाहें!

बुशरा- जी।

कहते हुए वो भी उठी और दोनों बाहर चले गए।

कुछ देर बाद एक रेस्टोरेंट में पहुंचकर ऑर्डर दिया तो बिरयानी आई और दोनों खाने लगे।

खाते-खाते बुशरा ने पूछा।

बुशरा- अब कहां चलना है?

समीर- मैंने पहाड़ी शरीफ़ दरगाह के बारे में बहुत सुना है। वहीं चलें?

पूछा उसने मुस्कुराकर तो बुशरा अपने उसी मखमली अंदाज़ में मुस्कुराते हुए बोली।

बुशरा- सिर्फ़ सुना था कि दिल को दिल से राह होती है, आज देख भी लिया।

समीर- मतलब?

पूछा उसने एकदम जैसे चौंककर तो बुशरा मुस्कुराते हुए बोली।

बुशरा- मैं भी यही सोच रही थी कि हज़रत बाबा सर्फ़ूद्दीन सोहरावर्दी की बारगाह की ज़ियारत की जाए।

समीर- हां, शहंशाह-ए-दक्कन। तो चलो, देर कैसी?

कहा उसने उठते हुए तो बुशरा लगभग धमकाते हुए बोली।

बुशरा- पहले ये बचे हुए दाने खाएं!

समीर- फिर दोस्ती पक्की?

पूछा उसने मुस्कुराकर वो दाने खाते हुए तो बुशरा हाथ बढ़ाकर मुस्कुराते हुए बोली।

बुशरा- बिल्कुल पक्की।

कहा बुशरा ने तो समीर ने उसका हाथ थामा और मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- कभी भी तंग कर दिया करूंगा!

बुशरा- ज़हे-नसीब।

बोली बुशरा जैसे कहीं खोई सी मुस्कुराते हुए तो समीर उसका हाथ दबाकर डरा सा बोला।

समीर- बुशरा!

बुशरा- हां... जी?

पूछा उसने एकदम हड़बड़ाते हुए तो समीर ने सपाट लहजे में पूछा।

समीर- ये तुम्हें क्या हो जाता है?

बुशरा- क्या?

समीर- लगता है जैसे खो जाती हो कहीं।

बुशरा- नहीं! ऐसा तो कुछ नहीं है।

कहा उसने एकदम से मुस्कुराते हुए तो समीर ने भी मुस्कुराकर पूछा।

समीर- तो अब चलें?

बुशरा- हां! बिल काउंटर पर ही दे-देते हैं।

कहा उसने तो समीर मुस्कुराकर टेबल पर हाथ मारते हुए बोला।

समीर- यही तो!

बुशरा- क्या?

पूछा उसने सपाट लहजे में तो समीर मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- अब अगर दोस्ती की है तो दोस्ती के हिसाब से ही चलना होगा मैडम!

बुशरा- मतलब?

वो कुछ समझी नहीं तो समीर ज़ोर देकर बोला।

समीर- बिल मैं दूंगा।

सुनते ही बुशरा ने हाथ बढ़ाकर समीर का कान पकड़ लिया और धमकाते हुए बोली।

बुशरा- ये उखाड़ लूंगी!

समीर- बेशक! लेकिन बिल तो मैं ही दूंगा।

कहा समीर ने ज़ोर देकर तो बुशरा ने उसका कान छोड़ा और मुस्कुराते हुए बोली।

बुशरा- मैंने सुना है कि हमेशा लड़की की ही चलती है।

समीर- हां! लेकिन शादी के बाद।

बुशरा- तो एक तजवीज़ पेश करती हूं।

समीर- करो।

बुशरा- अपना पर्स मुझे दीजिए!

कहा उसने एकदम सपाट लहजे में तो समीर ने मुस्कुराते हुए अपना पर्स निकालकर बुशरा को दे-दिया।

अब वो भी मुस्कुराते हुए बोली।

बुशरा- हम्म! अब पैसे तो आपके लगेंगे लेकिन बिल मैं ही दूंगी।

समीर- तुम पागल हो बुशरा!

कहा उसने हंसते हुए तो बुशरा भी अपने उसी मखमली अंदाज में हंस पड़ी और बोली।

बुशरा- तो अच्छा है ना?

समीर- चलें?

पूछा उसने उठते हुए तो बुशरा भी उठते हुए बोली।

बुशरा- जी!

दोनों काउंटर पर आए और बिल चुकाकर कुछ ही देर में पहाड़ी शरीफ़ दरगाह पहुंच गए।

फ़ातिहा पढ़ने के बाद बुशरा मन्नत का धागा बांधने लगी तो समीर मुस्कुराता हुआ उसे ही देखता रहा।

और जब वो धागा बांधकर दुआ मांग चुकी तो समीर ने पूछा।

समीर- क्या मांगा?

बुशरा- यही कि जो आप ढूंढ रहे हैं वो मिल जाए आपको।

कहा उसने मुस्कुराते हुए तो समीर ने एकदम चौंककर पूछा।

समीर- तुम्हें कैसे पता कि मैं कुछ ढूंढ रहा हूं?

बुशरा- आपकी आंखों ने बताया।

कहा उसने मुस्कुराते हुए तो समीर भी मुस्कुरा पड़ा और दाद सी देते हुए बोला।

समीर- तुम तो बड़ी ज़हीन हो!

बुशरा- हां! लेकिन कभी ग़ुरूर नहीं किया।

ये कहते हुए वो हंस पड़ी।

एक मख़मली हंसी तो समीर भी हंसते हुए बोला।

समीर- और जितनी ज़हीन हो उतनी ही पागल भी।

बुशरा- इस बात पर भी कभी ग़ुरूर नहीं किया।

कहा उसने तो दोनों हंसते हुए दुल्लर हो गए।

हंसते हुए दोनों बाहर आए तो समीर ने हंसी पर लग़ाम कसी और मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- चलो अब चलते हैं, शाम हो चुकी है।

बुशरा- हां! वहां तो जैसे बेगम साहिबा इंतिज़ार कर रहीं हैं?

कहा बुशरा ने नाराज़ से लहजे में तो समीर ने उसे चिढ़ाने के लिए मुस्कुराकर पूछा।

समीर- जल रही हो?

बुशरा- मैं भला क्यों जलूंगी?

कहा उसने लगभग झुंझलाते हुए तो समीर ने पूछा।

समीर- तो ये बेगम साहिबा कहां से आ गईं यहां?

बुशरा- मैं तो सिर्फ़ इतना कहना चाहती थी कि, देखिए कितनी हसीन शाम है। क्यों ना इसका लुत्फ़ लिया जाए?

कहा बुशरा ने भोलेपन से तो समीर उसे चिढ़ाते हुए बोला।

समीर- लेकिन मैं तो ये शाम, बेगम साहिबा के साथ ही बिताऊंगा।

बुशरा- तो जाइए! ये रहा रास्ता। चाचा छोड़ आएंगे आपको।

कहा उसने एकदम मुंह फेरकर ग़ुस्से में तो समीर ने मुस्कुराते हुए पूछा।

समीर- रूठ गईं?

बुशरा- आपसे मतलब?

पूछा उसने तड़कते-फड़कते अंदाज में तो समीर मुस्कुराते हुए उठा और एक लंबी सांस लेकर बोला।

समीर- ठीक है जी, तो हम चलते हैं।

कहते हुए जैसे ही समीर उठा कि बुशरा ने उसका हाथ पकड़ लिया और गुज़ारिश सी करते हुए बोली।

बुशरा- मत जाइए!

समीर- अभी तुम ही तो कह रहीं थीं?

बुशरा- ग़लती हो गई। दोस्ती में रूठा नहीं जाता।

कहा उसने भारी उदासी में तो समीर हंस पड़ा और बोला।

समीर- मैं मज़ाक़ कर रहा था।

बुशरा- आइंदा कभी ऐसा मज़ाक़ मत कीजिएगा।

कहते हुए बुशरा का गला भर्रा गया और आंखें भर आईं तो समीर ने नीचे बैठकर बड़े प्यार से पूछा।

समीर- अरे! लेकिन तुम उदास क्यों हो रही हो?

बुशरा- मैंने कभी किसी से दोस्ती नहीं की। सिर्फ़ आप ही मेरे वाहिद दोस्त हैं।

अगर आप भी छोड़कर चले गए तो मैं अपने दिल की बातें किससे करूंगी?

पूछा उसने भारी उदासी में भोलेपन से तो समीर उसका हाथ दबाकर दिलासा देते हुए बोला।

समीर- मैं हमेशा तुम्हारा दोस्त रहूंगा। अब मुस्कुराओ!

बुशरा- जी।

कहा उसने फीकी सी मुस्कुराते हुए तो समीर ज़ोर देकर बोला।

समीर- मुझे पहले वाली बुशरा चाहिए।

कहा उसने तो बुशरा मुस्कुरा पड़ी और बोली।

बुशरा- आप हैं ना? आप भी पागल हैं।

समीर- लेकिन तुम जितना नहीं।

कहा उसने हंसते हुए तो बुशरा मुस्कुराकर बोली।

बुशरा- अब चलें? रात होने को है।

समीर- क्यों? अब शौहर के पास पहुंचने की जल्दी है?

पूछा उसने शरारती लहजे में तो बुशरा को तो जैसे बदला लेने का मौक़ा मिल गया और तुरंत मुस्कुराते हुए बोली।

बुशरा- वो बहुत प्यार करते हैं मुझसे।

समीर- वो तो दिख रहा है।

कहा उसने मज़ाक़ सा करते हुए तो बुशरा ज़ोर देकर बोली।

बुशरा- सच में!

समीर- जानता हूं!

कहा उसने उसी लहजे में तो बुशरा ने झुंझलाते हुए पूछा।

बुशरा- आपको यक़ीन क्यों नहीं आता?

समीर- क्योंकि तुम कुंवारी हो।

कहा उसने मुस्कुराते हुए ज़ोर देकर तो बुशरा ने कुछ हैरानी में पूछा।

बुशरा- आपको कैसे पता चला?

समीर- बस चल जाता है।

कहा उसने मुस्कराते हुए तो बुशरा ने ज़ोर देकर पूछा।

बुशरा- लेकिन कैसे?

समीर- होटल चलते हैं, वहां बताऊंगा।

बुशरा- जल्दी चलें!

कहा बुशरा ने समीर का हाथ पकड़कर खींचते हुए तो वो मुस्कराता हुआ उसके साथ चल पड़ा।

होटल पहुंचते ही बुशरा बेचैन सी बोली।

बुशरा- अब बताएं!

समीर- क्या?

पूछा उसने तो बुशरा हल्के ग़ुस्से में लगभग धमकाते हुए बोली।

बुशरा- समीर साहब सच कहती हूं, दोनों कान जड़ से उखाड़ लूंगी आपके!

ये सुनते ही समीर ठहाका लगाकर हंस पड़ा और बोला।

समीर- आज से तुम्हारा नाम हुआ बुशरा बदमाश।

बुशरा- वो सब छोड़ें, आप ये बताएं।

कैसे पता चला कि मेरी शादी नहीं हुई है?

पूछा उसने एकदम सपाट लहजे में तो समीर कुछ संजीदा सा बोला।

समीर- बुशरा! कुछ बातें बताई नहीं जातीं, सीखी जातीं हैं।

बुशरा- लेकिन मुझे जानना है।

कहा उसने बेचैनी में तो समीर समझाते हुए बोला।

समीर- समझने की कोशिश करो! मैं नहीं बता पाऊंगा।

बुशरा- लेकिन मुझे तो आज जानना ही है।

कहा उसने ज़िद करते हुए तो समीर ने झुंझलाकर पूछा।

समीर- ये क्या बचपना है?

बुशरा- आप कुछ भी समझें लेकिन मुझे जानना है।

कहा उसने ज़ोर देकर तो समीर ने हथियार डाल दिए और नरमी से बोला।

समीर- ठीक है! लेकिन सिर्फ़ इशारा करूंगा!

बुशरा- मैं समझ लूंगी।

समीर- उससे आगे कुछ नहीं बताऊंगा!

कहा उसने ज़ोर देकर तो बुशरा हामी भरते हुए बोली।

बुशरा- मंज़ूर है!

समीर- कुछ निशानियां होतीं हैं, कुछ बदलाव।

बुशरा- और?

पूछा उसने तो समीर एकदम सपाट लहजे में बोला।

समीर- और क्या? बस इतना ही!

अब आगे समझना तुम्हारा काम है।

बुशरा- ये तो आपने तीन में छोड़ा ना तेरह में।

कहा उसने झुंझलाकर तो समीर मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- मैं खाना मंगवाता हूं, खाकर तीन में भी आ जाओगी और तेरह में भी।

बुशरा- नहीं। कहीं बाहर ही खाएंगे।

कहा उसने बचपने सी ज़िद करते हुए तो समीर मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- लगता है तुम्हें घूमने-फिरने का बहुत शौक़ है।

बुशरा- पहली बार देखा कि दुनिया कितनी हसीन है!

बोली वो कहीं खोई हुई सी तो समीर पर फिर से एक डर क़ाबिज़ हो गया।

नहीं।

ये सबकुछ ग़लत हो रहा है।

बुशरा कुछ और ही सोच रही है।

ये बहुत ही साफ़ दिल की लड़की है, मासूम है।

इसके...

बुशरा- क्या सोचने लगे?

पूछा बुशरा ने बड़े प्यार से तो समीर एकदम से मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- बस कुछ ऐसे ही! सोच रहा था कि तुम्हें इससे भी हसीन दुनिया के बारे में बताऊं।

बुशरा- जन्नत के बारे में?

पूछा उसने भोलेपन से तो समीर मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- उससे भी हसीन एक दुनिया और है।

बुशरा- क्या?

पूछा उसने एकदम चौंककर तो समीर बोला।

समीर- जी! और वो भी इसी धरती पर।

बुशरा- मैं समझी नहीं!

कहा उसने कुछ हैरानी से तो समीर मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- बता तो दूं! लेकिन फिर तुम्हें ये लगेगा कि कोई बुज़ुर्ग, किसी पागलख़ाने से भाग आया है।

बुशरा- नहीं। बुज़ुर्ग चाहे कैसे भी हों, कुछ ना कुछ इल्म ही देंगे।

कहा उसने भारी संजीदगी में ज़ोर देकर तो समीर की मुस्कान दोगुनी हो गई और दाद देते हुए बोला।

समीर- अर्बाब-ए-कमाल।

बुशरा- ज़र्रानवाज़ी।

समीर- नहीं! यक़ीनी।

बुशरा- नवाज़िश आपकी।

कहा उसने संजीदगी से तो समीर भी संजीदा होते हुए बोला।

समीर- ख़ुशी हुई तुम्हारी ज़हनियत देखकर। अब कुछ सवालात करता हूं।

बुशरा- जी! जितना बन पड़ेगा जवाब दूंगी।

कहा उसने संजीदा होकर तो समीर ने भी संजीदगी से पूछा।

समीर- हम सब किसकी औलाद हैं?

बुशरा- हज़रत आदम और हव्वा अलैहिस्सलाम की।

समीर- हमें किसने बनाया?

बुशरा- अल्लाह ने।

समीर- और हमारी रूह में किसका नूर वाबस्ता है?

बुशरा- सिर्फ़ उसी एक इलाही का।

कहा उसने कुछ समझते हुए तो समीर ने मुस्कुराते हुए पूछा।

समीर- वो अल्लाह। जिसने जन्नत बनाई, चांद-सितारे बनाए, ज़मीन और सातों आसमान बनाए, हम सबको बनाया, ये काइनात बनाई।

अगर ख़ुद उसका नूर हमारे भीतर मौजूद है तो हमारी अंदरूनी दुनिया से ख़ूबसूरत दुनिया कहां होगी?

बशर्ते हम अपने अंदर उस दुनिया को तलाश करें!

बुशरा- आफ़रीन! क्या ख़ूबसूरत बात कही है आपने।

कहा उसने मुस्कुराकर तो समीर ने संजीदगी से पूछा।

समीर- अब बताओ! सुकून कहां है?

बुशरा- महबूब की ख़िदमत में।

कहा उसने संजीदगी से तो समीर ने कुछ सोचकर मुस्कुराते हुए पूछा।

समीर- फिर ग़म क्यों?

बुशरा- आप जानते हुए भी अंजान बन रहे हैं।

कहते हुए वो उठी और एकदम से बाहर निकल गई।

समीर- बुशरा...

उसने पुकारा लेकिन बुशरा नहीं रुकी और चली ही गई।

समीर भी उसके लिए बेचैन था तो बुशरा को पुकारते हुए बाहर तक गया लेकिन तब तक वो जा चुकी थी।

अब समीर वापस आकर लेट गया, लेकिन बुशरा के साथ बिताए लम्हात ही मन में घूमें।

कुछ ही देर हुई थी कि दरवाज़े पर दस्तक हुई तो समीर ने उठकर दरवाज़ा खोला और सामने बुशरा खड़ी थी।

समीर- बुशरा...

लेकिन बुशरा तुरंत समीर की बात काटते हुए एकदम सपाट लहजे में बोली।

बुशरा- अल्लाह भी तो महबूब के ज़रिए मिलता है!

समीर- अंदर आओ।

कहा समीर ने कुछ सोचकर और बुशरा का कंधा पकड़, अंदर लाकर उसे सोफ़े पर बिठा दिया।

अब ख़ुद उसके सामने बैठा और संजीदगी से बोला।

समीर- नहीं! मुहब्बत के ज़रिए।

बुशरा- बात तो एक ही हुई!

समीर- फ़र्क़ है।

बुशरा- क्या?

समीर- दलील नामुकम्मल है।

बुशरा- तो मुकम्मल दलील?

समीर- वो एक पाक परवरदिगार ही महबूब हो और उसकी तमाम मख़्लूक़ से मुहब्बत।

कहा उसने समझाते हुए तो बुशरा ने भारी संजीदगी से पूछा।

बुशरा- और अगर कोई किसी आदमज़ाद को अपना महबूब माने तो?

समीर- ऐसा तो तब भी करना ही होगा! हज़रत मुहम्मद (स.अ.व) ने भी फ़रमाया है कि “तुम अल्लाह की मख़्लूक़ से मुहब्बत करो, अल्लाह तुमसे मुहब्बत करेगा।”

ये सुनते ही बुशरा के चेहरे पर एक सुकून सा छा गया और मुस्कुराते हुए बोली।

बुशरा- सब समझ गई। अब खाना खाने चलें?

समीर- वैसे ही, जैसे तुम मुझे भूखा छोड़कर चली गईं थीं?

पूछा समीर ने शिकायती लहजे में तो बुशरा अपने कान पकड़कर बोली।

बुशरा- सॉरी! ग़लती हो गई।

वो असल में मुझे कुछ समझ नहीं आया था।

समीर- और अब समझ आया, जब मुझे भूखा मरते इतनी देर हो गई।

कहा उसने कुछ-कुछ उदासी में तो बुशरा अहसास-ए-कमतरी में डूबी हुई बोली।

बुशरा- सॉरी बोल तो रही हूं ना! या आप ख़ुद खा लेते?

समीर- वाह! आदत लगाकर जनाबा कह रहीं हैं कि ख़ुद खा लेते?

कहा उसने ताना सा देते हुए तो बुशरा लगभग रुआंसी सी बोली।

बुशरा- अब आ तो गई ना! अब क्यों ताने दे रहे हैं?

समीर- जब तक मैं खाना नहीं खा लेता तब तक तुम्हारी होने वाली सास की तरह ऐसे ही ताने देता रहूंगा।

कहा उसने मुस्कुराते हुए तो बुशरा भी मुस्कुराकर बोली।

बुशरा- तो चलिए! सबसे पहले आपकी भूख का इलाज ज़रूरी है।

समीर- चलो।

कहा उसने उठकर दरवाज़ा खोलते हुए तो बुशरा बाहर निकली और उसके बाद समीर।

दोनों होटल से बाहर आए और गाड़ी बुशरा के बताए पते पर जा रुकी।

दोनों उस रेस्टोरेंट के अंदर गए तो बुशरा ने ऑर्डर दिया और कुछ ही देर में दाल मक्खनी, मटन करी, भुना गोश्त, खबूस रोटियां, चावल और कई तरह की सलाद उस टेबल पर लगा दी गईं।

जब सबकुछ आ गया तो बुशरा ने समीर और अपने लिए खाना लगाया और मुस्कुराते हुए बोली।

बुशरा- बिस्मिल्लाह कीजिए!

समीर- बिस्मिल्लाही-व-आला-बरकतिल्लाह!

या अल्लाह! हमारी तरह सबको रिज़्क़ अता फ़रमा!

कहा उसने दोनों हाथ दुआ में उठाकर तो बुशरा भी दुआ करते हुए बोली।

बुशरा- आमीन!

कहा उसने और दोनों खाना खाने लगे।

खाने के बाद दोनों आइसक्रीम खाने चले गए।

वहां समीर मुस्कुराते हुए बुशरा से बोला।

समीर- यार बदमाश! सच कहता हूं, अगर तुम ना होतीं तो मैं तो बोर ही हो जाता।

बुशरा- और क्यों ना होती मैं?

पूछा उसने डपटते हुए तो समीर ने मुस्कुराकर ज़ोर देते हुए पूछा।

समीर- तुम, मुझे डांटती क्यों रहती हो?

बुशरा- दोस्ती में इसे डांटना नहीं, सलाह देना बोलते हैं कि आगे से इस तरह की बात ना की जाए।

कहा उसने समझाते हुए तो समीर मुस्कुराकर बोला।

समीर- मैं तो बड़ा फंसा तुमसे दोस्ती करके।

बुशरा- अब बदमाश के साथ दोस्ती की है, कुछ तो झेलना ही पड़ेगा।

कहा उसने और दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े।

समीर हंसते हुए बोला।

समीर- कुछ तो तुम्हें भी झेलना पड़ेगा।

बुशरा- फ़रमाएं!

समीर- आइसक्रीम के पैसे दो।

बुशरा- जो हुक्म!

कहा उसने सलाम ठोंकते हुए तो समीर फिर से हंस पड़ा और बोला।

समीर- मैंने, तुमसे बड़ा नमूना आज तक नहीं देखा।

बुशरा- सिंगल पीस हूं इस धरती पर।

कहा उसने मुस्कुराकर रौब सा झाड़ते हुए तो समीर ने भी मुस्कुराते हुए पूछा।

समीर- और इस बात पर भी कभी ग़ुरूर नहीं किया?

बुशरा- कभी नहीं।

कहा उसने और फिर से दोनों की हंसी छूटी।

कुछ देर बाद हंसी थमी तो समीर मुस्कुराते हुए बोला।

समीर- अब जल्दी से पैसे दो, काफ़ी रात हो चुकी है, तुम्हें घर भी जाना है।

बुशरा- जी!

कहा उसने और आइसक्रीम के पैसे चुकाकर दोनों गाड़ी में आ बैठे।

बुशरा ने समीर को उसके होटल छोड़ा और घर चली गई।

बहरहाल!

बुशरा रोज़ आती और समीर को घुमाने ले जाती। पांच दिन में उसने समीर को सारे टूरिस्ट प्लेस घुमा दिए।

छठे दिन दरवाज़े की घंटी से समीर की नींद खुली।

उठकर घड़ी देखी तो सुबह के दस बज चुके थे।

दरवाज़ा खोला तो सामने बुशरा खड़ी थी।

बुशरा- अस्सलामु अलैकुम!

समीर- व अलैकुम अस्सलाम!

कहा समीर ने अंदर आते हुए तो पीछे-पीछे आती बुशरा ने पूछा।

बुशरा- आप अभी तक तैयार नहीं हुए?

समीर- मुझे क्या पता था कि तुम आज भी आओगी।

बुशरा- और आज क्यों नहीं आती मैं?

पूछा उसने थोड़ा ग़ुस्से में।

समीर- सारी जगहें दिखा तो दीं तुमने!

कहा समीर ने लापरवाही से कंधे उचकाकर तो बुशरा थोड़ा धमकाते हुए बोली।

बुशरा- एक जगह बची है।

समीर- कौनसी?

बुशरा- हुसैन सागर झील।

समीर- अरे हां! वो झील नहीं देखी। मैं भी सोचूं कि क्या भूल रहा हूं?

कहा उसने अपने माथे पर हाथ मारते हुए तो बुशरा ने झुंझलाकर पूछा।

बुशरा- अब आ गया याद?

समीर- आ गया! लेकिन ग़ुस्सा क्यों हो रही हो?

बुशरा- तो और क्या करूं?

कहा उसने धमकाते हुए तो समीर मुस्कुराकर बोला।

समीर- मैंने तुम्हारे लिए इससे बहुत बढ़िया काम सोचा है।

बुशरा- क्या?

समीर- मैं बीस मिनट में तैयार हो लेता हूं, तुम रूम सर्विस से चाय-नाश्ता मंगवा लो।

बुशरा- समीर...

ग़ुस्से में उठते हुए बोली बुशरा तो वो हंसता हुआ भागकर बाथरूम में घुस गया।

समीर नहाकर बाहर आया ही था कि तभी वेटर चाय रखकर चला गया।

समीर- सिर्फ़ चाय मंगवाई?

पूछा उसने तो बुशरा मुस्कुराते हुए बोली।

बुशरा- नाश्ता मैं बनाकर लाई हूं आपके लिए।

कहते हुए बुशरा ने एक टिफिन सामने रख दिया तो समीर ने पूछा।

समीर- क्या बनाया है?

बुशरा- पोहे हैं।

समीर- अरे वाह!

कहते हुए समीर ने वो टिफिन खोला तो दोनों ने नाश्ता किया और कुछ देर बाद हुसैन सागर झील पहुंच गए।

पूरा दिन घूमे-फिरे और अब धुंधलका छाने लगा था।

ये धुंधलके का समय बड़ा ही प्यारा सा हुआ करता है।

थके-हारे दिन को बुढ़ापा छू जाता है, सांसें तेज़ होती जाती हैं और फिर ढल भी जाता है।

लेकिन दिन के इसी ढलने से, वो तेज़-तर्रार शाम...

अपनी ख़ूबसूरती पर इठलाती, क़दम से क़दम बढ़ाती, सबको नज़रों में बांधती और सारी दुनिया को जीभ चिढ़ाती, डांटते-डपटते हुए आगे बढ़ी चली आती है।

इसकी ख़ुमारी, हम ख़ून वाली नस्लों को जैसे पिघलाने सी लगती है।

बादशाही इसकी और ग़ुलाम हम।

और जब चांद, जोकि इसका निगहबान है; वो भी चौदहवीं का हो तो क्या ही कहने!

तब तो क्या धार होती है इस हूर के हुस्न में!

छू ही ले तो ईमान, दिल से जुदा होकर इसके ही चक्कर काटे।

इसी बीच कुमुदनी, रात की रानी और ना जाने कितनी तरह के फूल और बेलें...

अपने महबूब चांद को देखकर इस तरह से अपनी ख़ुशबू बिखेरते हैं कि कीड़े-मकौड़े भी ख़ुद को रोक नहीं पाते।

इसी तरह की रात में, औरत में एक तत्व पैदा होता है।

जिसकी वजह से उनकी देह में ज़रा सी सर्द छुअन भी आग सी भड़कती है।

इसी प्रकार पुरुषों में भी एक तत्व फूटता है और उनकी देह की जैसे एक-एक पेशी आपस में जुड़ती चली जाती है।

पुरुष में ताप भड़का होता है और स्त्री को एक सर्द छुअन की घोर आवश्यकता।

ये होती है प्रकृति की अर्षण-क्रीड़ा।

उस शाम का मिज़ाज कुछ ऐसा ही था।

प्रकृति की अर्षण-क्रीड़ा की शुरुआत जैसा।

समीर के हाथ में एक बेहद ख़ूबसूरत लड़की का कोमल सा मुलायम हाथ था और बुशरा की नज़रों में समीर का चेहरा।

झील का किनारा, ढलती शाम की लाली, आसपास से बहती मुस्कुराती हुई सी बयार, तन्हाई और एक-दूजे का साथ।

ऊपर से ज़ुल्म ढाती वो हसीन शाम, किसको गुनाहगार ना बना दे?

वे दोनों उस हसीन शाम को निहारते हुए एक बेंच पर आकर बैठ गए।

अचानक बुशरा को पता नहीं क्या सूझी कि वो एकदम बेंच से उठकर नीचे समीर के पैरों के पास बैठते हुए बोली।

बुशरा- मुझे कुछ बात करनी है आपसे।

समीर- अरे! लेकिन तुम नीचे क्यों बैठ गईं?

पूछा उसने हैरानी से तो बुशरा ने सब नज़रअंदाज़ करते हुए भारी संजीदगी से पूछा।

बुशरा- मैं कैसी लगती हूं आपको?

समीर- तुम बहुत प्यारी हो बुशरा!

कहा उसने बड़े ही प्यार से तो बुशरा ने मासूमियत से पूछा।

बुशरा- मैं ख़ूबसूरत हूं?

समीर- ये कैसा सवाल?

बुशरा- आप बताएं!

समीर- बेहद।

ये सुनते ही बुशरा ने समीर का हाथ पकड़ा और बोली।

बुशरा- मुझे... मुझे आपसे प्यार हो गया है।

बोली वो एकदम से आंखें मींचकर तो समीर को अपना सपना याद आ गया और कुछ सोचकर हंसते हुए बोला।

समीर- अच्छा मज़ाक़ है।

बुशरा- मैं मज़ाक़ नहीं कर रही।

कहा उसने ज़ोर देकर तो समीर हंसते हुए बोला।

समीर- फिर तो तुम पागल हो गई हो।

बुशरा- हां! आपके प्यार में।

कहा उसने बड़ी ही संजीदगी से तो समीर उठा और लगभग झुंझलाते हुए बोला।

समीर- अब ये बकवास बंद करो और चलो!

कहते हुए समीर भरे दिल से उठकर गाड़ी की तरफ़ बढ़ा तो बुशरा भी पीछे-पीछे आ गई और कुछ ही देर में दोनों होटल पहुंच गए।

अंदर आकर बैठे तो बुशरा ने पूछा।

बुशरा- कुछ सोचा आपने?

पूछा उसने तो समीर ने एकदम सपाट लहजे में उसी पर सवाल दाग़ दिया।

समीर- किस बारे में?

बुशरा- मेरे बारे में।

कहा उसने भारी संजीदगी से तो समीर एकदम सपाट लहजे में बोला।

समीर- देखो बुशरा! तुम्हारी उम्र ही ऐसी है। इस उम्र में सबको प्यार के ख़्वाब आते हैं।

बुशरा- मेरा प्यार, ख़्वाब नहीं, हक़ीक़त है।

कहा बुशरा ने भवें सिकोड़कर भर्राए गले से तो समीर उसे समझाते हुए बोला।

समीर- इस प्यार-व्यार के फ़ालतू चक्कर में मत पड़ो, अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो!

बुशरा- अब से आप ही मेरी पढ़ाई हैं।

बोली वो भोलेपन से तो समीर फिर से समझाने लगा।

समीर- देखो! तुम बहुत अच्छी लड़की हो। ज़हीन हो, ख़ूबसूरत हो। तुम्हें ज़रूर कोई अच्छा लड़का मिल जाएगा।

बुशरा- मुझे नहीं चाहिए कोई और!

कहा उसने झुंझलाकर तो समीर धमकाते हुए बोला।

समीर- अब ये बकवास बंद करो! मैं खाना मंगवा रहा हूं।

सुनते ही बुशरा सहम गई लेकिन समीर ने ध्यान नहीं दिया और खाना मंगवा लिया।

खाने के बाद बुशरा ने बुझे मन से पूछा।

बुशरा- कल जा रहे हैं?

समीर- हां!

बुशरा- किस वक़्त?

समीर- दोपहर दो बजे निकल जाऊंगा।

बुशरा- ठीक है।

कहा उसने सपाट लहजे में तो समीर ने पूछा।

समीर- तुम आओगी?

बुशरा- नहीं।

समीर- क्यों?

बुशरा- आपको जाते हुए देख नहीं पाऊंगी।

बोली वो टूटी हुई सी तो समीर समझाते हुए बोला।

समीर- बुशरा! निकलो इस प्यार-मुहब्बत के चक्कर से।

कुछ नहीं रखा इसमें।

ये सुनकर बुशरा ने अपने बैग से एक गुलाब का फूल निकाला और टेबल पर रखते हुए भारी उदासी में बोली।

बुशरा- ये मैं आपके लिए लाई थी। अब आप चाहें तो इसे रख लेना और चाहें तो फैंक देना।

कहते हुए बुशरा उठी और एकदम से बाहर निकल गई।

समीर भौंचक्का सा सबकुछ देखता रह गया।

और तभी जैसे कुछ समझ आया तो तुरंत बेचैनी में उसे पुकारते हुए भागा, लेकिन बुशरा तब तक जा चुकी थी।

जब बुशरा नहीं मिली तो भारी क़दमों से वापस आया और अनमना सा बिस्तर पर लेट गया।

लेकिन फिर वही बात!

बुशरा ही दिमाग़ में घूमे।

ना चैन आए ना नींद!

मुश्किल से एक लम्हा पकड़ा।

और फिर सपना!

और सपने में कौन?

बुशरा।

बुशरा- मुझे छोड़कर ना जाएं!

समीर- मजबूर हूं।

बुशरा- मैं भी तो मजबूर हूं? जी नहीं पाऊंगी आपके बिना।

और तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई तो समीर की नींद खुली।

ये क्या?

घड़ी देखी तो सुबह के नौ बज रहे थे।

उठकर दरवाज़ा खोला तो देखा कि सामने बुशरा खड़ी थी।

समीर उसे देखकर मुस्कुराता हुआ बोला।

समीर- आओ। कैसी हो?

बुशरा- ठीक हूं।

कहा उसने सपाट लहजे में।

समीर ये सब जानता था तो ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और वैसे ही मुस्कुराता हुआ बोला।

समीर- बैठो!

बुशरा बैठी तो समीर ने भी बैठते हुए पूछा।

समीर- उतरा तुम्हारा प्यार का भूत?

बुशरा- नहीं।

बोली वो एकदम सपाट लहजे में तो समीर उसे समझाने लगा।

समीर- बुशरा! समझने की कोशिश करो।

बुशरा- कर चुकी।

कहा उसने उसी लहजे में तो समीर ने भी बिल्कुल उसी लहजे में पूछा।

समीर- मेरे बारे में कितना जानती हो?

बुशरा- सिर्फ़ इतना कि आपसे प्यार करती हूं।

बोली वो भवें सिकोड़कर, शायद किसी कशमकश में थी।

समीर- क्यों?

बुशरा- पता नहीं।

समीर- तुम बच्चों के लिए प्यार एक खेल है।

बुशरा- सबके लिए होगा? लेकिन मेरे लिए नहीं।

समीर- मैं शादीशुदा हूं।

कहा समीर ने ज़ोर देकर तो ये सुनते ही बुशरा एकदम कुम्हला सी गई, चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं, आंखें मिच गईं और जिस्म थर्रा गया उसका।

लेकिन तभी जैसे यही अपनी ज़िंदगी का सच मानकर एकदम सुकून भरी बोली।

बुशरा- मुझे दूसरी बीवी बना लीजिए।

समीर- हिंदू हूं मैं।

कहा उसने फिर से ज़ोर देकर तो बुशरा के सिर पर जैसे कोई बम फटा और एक बार फिर से आंखें मिच गईं उसकी।

लेकिन तभी आंखें खोलीं और अटकते हुए पूछा।

बुशरा- लेकिन... वो दुआ, वो नमाज़, वो हदीस की बातें?

समीर- क्या उसकी इबादत करने का हक़ सिर्फ़ मुसलमानों को है? हिंदू नहीं कर सकते?

बुशरा- हां! कर सकते हैं!

कोई भी... कोई भी कर सकता है।

अटक-अटक कर कहती हुई बुशरा जैसे होश खोने लगी तो समीर उसके चेहरे को थपथपाने लगा।

समीर- बुशरा?

बुशरा- जी? मैं ठीक हूं।

कहते हुए वो एकदम से जैसे जागी और समीर को नज़र भर देखकर बड़ी ही मासूमियत से बोली।

बुशरा- मैं भी हिंदू बन जाऊंगी।

इतनी मासूमियत!

इतनी?

ये सुनते ही समीर का दिल भर आया लेकिन कुछ सोचकर पूछा।

समीर- मैं तुम्हें अपना भी लूं तो पता है तुम्हारा मुस्तक़बिल क्या होगा?

पूछा उसने सपाट लहजे में तो बुशरा यक़ीन सा दिलाते हुए बोली।

बुशरा- मुझे कोई... कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।

ये सुनकर समीर के दिल ने चीत्कार की लेकिन ग़ुस्से का दिखावा करते हुए ज़ोर देकर बोला।

समीर- मैं तुमसे प्यार नहीं करता और ना ही करूंगा। अब जाओ यहां से!

कहा समीर ने अपने दिल को थामते हुए चिल्लाकर और बाथरूम में घुस गया।

बाथरूम में गया और घुटनों के बल बैठ गया।

समीर की आंखें भर आईं।

कुछ देर बाद नॉर्मल हुआ तो नहाया-धोया।

नहाकर बाहर आया तो देखा कि बुशरा वहीं बैठी रो रही थी।

ये देखते ही समीर के दिल ने चीत्कार की लेकिन अपने दिल पर लग़ाम कसी और बुशरा के पास बैठकर उसका हाथ पकड़ बड़े ही प्यार से पूछा।

समीर- अरे! तुम रो क्यों रही हो?

बुशरा- प्लीज़ मुझे क़ुबूल कर लें!

कहा उसने रोते हुए तो समीर बड़े ही प्यार से बोला।

समीर- पहले तो ये रोना बंद करो।

बुशरा ने अपने आंसू पोंछे तो समीर समझाते हुए बोला।

समीर- देखो बुशरा! इस उम्र का प्यार हमेशा कामयाब नहीं होता।

बुशरा- होता तो है?

पूछा उसने बड़ी ही मासूमियत से तो समीर के पास कोई जवाब तो था नहीं!

फिर भी ज़बर्दस्ती अपने अल्फ़ाज़ चाश्नी में डुबाकर बोला।

समीर- कभी-कभार। वो भी तब, जबकि दोनों एक-दूसरे से प्यार करते हों?

बुशरा- अब आप नहीं करते तो इसमें मेरी क्या ग़लती?

पूछा उसने रोते हुए तो समीर जवाब नहीं दे पाया और मन ही मन सोचने लगा।

इतनी मासूमियत?

ये तो हद है।

नहीं बुशरा!

तुम इस फ़रेबी दुनिया की तो हर्गिज़ नहीं हो।

इस दुनिया की कोई भी ख़ामी, बुराई; तुम्हें छूकर भी नहीं निकली है।

जैसे ख़ामियों और बुराइयों को डर लगता है तुम्हारी शख़्सियत से।

और प्यार?

प्यार तो मैं भी तुमसे करता हूं लेकिन जता नहीं सकता।

ये सब सोचते हुए वो हालिया वक़्त में आया और बुशरा को समझाते हुए बोला।

समीर- बुशरा! ये प्यार नहीं फ़ुतूर है।

मैं चला जाऊंगा तो दो-चार दिन में अपने-आप निकल जाएगा तुम्हारे दिमाग़ से।

बुशरा- नहीं निकलेगा।

कहा उसने भर्राए गले से तो समीर फिर से सोच में डूब गया।

जानता हूं बुशरा!

जानता हूं कि तुम बहुत प्यार करती हो मुझसे।

और सिर्फ़ तुम ही नहीं!

बल्कि मैं भी तुमसे इतना ही प्यार करने लगा हूं।

लेकिन मजबूर हूं।

नहीं अपना सकता तुम्हें।

अब प्लीज़ चली जाओ, नहीं तो मैं कभी नहीं जा सकूंगा।

सोचते हुए समीर हालिया वक़्त में आया और अपने दिल को थामते हुए बुशरा पर चिल्लाकर बोला।

समीर- बुशरा! तुम जानती हो कि मैं, तुमसे प्यार नहीं करता।

चली जाओ यहां से!

बुशरा- जानती तो मैं सबकुछ हूं। फिर भी जा रही हूं; लेकिन एक बात याद रखिएगा कि कभी माफ़ नहीं करूंगी आपको!

भारी दुख में कहते हुए बुशरा दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी तो समीर भारी हैरानी या बेचैनी, या फिर क्या कहूं?

नहीं!

समीर प्यार कर बैठा था बुशरा से।

तो बेचैनी में पुकारा उसे।

समीर- बुशरा...!

लेकिन उसने सुना ही नहीं।

बुशरा तो चली गई नीची गर्दन और झुके कंधे लिए।

और समीर धम्म से बिस्तर पर बैठ गया।

कुछ देर बाद उठा और भारी उदासी में अपना सामान पैक करने लगा।

सामान समेटते-समेटते वो गुलाब का फूल दिखा तो भारी दुख में समीर की आंखें भर आईं।

उसने वो फूल संभालकर अपने सामान में रखा और भारी मन से उठकर वापस दिल्ली के लिए रवाना हो गया।

समीर- किरण! प्रेम के कितने प्रकार हैं?

पूछा समीर साहब ने कहानी रोककर तो किरण गंभीरता से बोली।

किरण- तीन।

समीर- कौन-कौन से?

किरण- दैहिक, मानसिक और आत्मिक।

समीर- इनका व्यवहार?

किरण- दैहिक प्रेम मात्र आकर्षण है, इस अवस्था में कोई केवल किसी के शरीर से प्रेम करता है।

समीर- मानसिक?

किरण- यहां दो अवस्थाएं आती हैं, लेकिन दोनों में ही स्वार्थ निहित है।

समीर- वो कैसे?

किरण- या तो मनुष्य उससे प्रेम करेगा जिससे उसका कोई लोभ संवरण होता हो या फिर उससे जो उसका लक्षित व्यक्ति हो।

परंतु ये भी प्रेम नहीं अपितु केवल एक आवरण होता है।

बताया उसने तो समीर साहब ने मुस्कुराते हुए पूछा।

समीर- और आत्मिक प्रेम?

किरण- भावनात्मक प्रेमावस्था।

इस अवस्था में कोई प्रेम करता नहीं, अपितु हो जाता है।

इस अवस्था में कोई लोभ-लालच नहीं, अमीर-ग़रीब नहीं, कोई छोटा-बड़ा नहीं होता।

बस प्रेम होता है, और हो जाता है।

समीर- तो ये कैसा प्रेम है, जो समीर को बुशरा से हुआ और बुशरा को समीर से?

किरण- समीर के बारे में तो अभी कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन बुशरा का प्रेम आत्मिक प्रेम है। सच्चा प्यार।

कहा उसने ज़ोर देकर तो समीर साहब ने गंभीरता से पूछा।

समीर- वो कैसे?

किरण- जैसा कि आपने बताया, समीर नौकरी करता है।

और नौकरीपेशा हर-एक शख़्स, ग़रीबी से कुल एक क़दम दूर होता है।

वहीं बुशरा!

जिसके लिए ड्राईवर गाड़ी का दरवाज़ा खोलते हैं।

वो बुशरा एक नौकरी करने वाले शख़्स पर मर-मिटी।

तो इसे मैं और क्या कहूं?

कहा उसने भारी गंभीरता में तो समीर साहब मुस्कुरा पड़े और बोले।

समीर- यही हुआ भी।


5
रचनाएँ
बुशरा
0.0
इस कहानी में एक व्यक्ति अपनी पत्नी और उसके दोस्त को दो परस्पर ऐसे अपरिचित व्यक्तियों की कहानी सुनाता है जो संयोगवश मिलते हैं और एक प्रेम त्रिकोण की शुरूआत होती है। इस प्रेम कहानी में पात्रों के माध्यम से प्रेम के विभिन्न रूपों के साथ-साथ प्रकृति एवं इसके गूढ़ रहस्यों को भी समझाने का प्रयास किया गया है।
1

बुशरा

12 मार्च 2023
2
0
0

टिंग-टोंग... डोरबेल बजी तो कुछ ही देर बाद किरण ने दरवाज़ा खोला। सामने अमन था। किरण- अमन! अच्छा हुआ तू आ गया। मेरी जान छुड़वा इनसे। अमन को देखते ही राहत भरी सांस लेकर बोली किरण तो उसने हैरानी से पूछ

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बुशरा

12 मार्च 2023
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टिंग-टोंग... डोरबेल बजी तो कुछ ही देर बाद किरण ने दरवाज़ा खोला। सामने अमन था। किरण- अमन! अच्छा हुआ तू आ गया। मेरी जान छुड़वा इनसे। अमन को देखते ही राहत भरी सांस लेकर बोली किरण तो उसने हैरानी से पूछ

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बुशरा

12 मार्च 2023
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टिंग-टोंग... डोरबेल बजी तो कुछ ही देर बाद किरण ने दरवाज़ा खोला। सामने अमन था। किरण- अमन! अच्छा हुआ तू आ गया। मेरी जान छुड़वा इनसे। अमन को देखते ही राहत भरी सांस लेकर बोली किरण तो उसने हैरानी से पूछ

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बुशरा

12 मार्च 2023
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टिंग-टोंग... डोरबेल बजी तो कुछ ही देर बाद किरण ने दरवाज़ा खोला। सामने अमन था। किरण- अमन! अच्छा हुआ तू आ गया। मेरी जान छुड़वा इनसे। अमन को देखते ही राहत भरी सांस लेकर बोली किरण तो उसने हैरानी से पूछ

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बुशरा

12 मार्च 2023
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टिंग-टोंग... डोरबेल बजी तो कुछ ही देर बाद किरण ने दरवाज़ा खोला। सामने अमन था। किरण- अमन! अच्छा हुआ तू आ गया। मेरी जान छुड़वा इनसे। अमन को देखते ही राहत भरी सांस लेकर बोली किरण तो उसने हैरानी से पूछ

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