*"एक अनार और सौ बीमार"*
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*"सौ अनार और एक बीमार"*
"एक अनार और बीमार" - यह लोकोक्ति एक विशेष प्रकार की परिस्थिति को दर्शाने के लिए बनाई गई है। यह लोकोक्ति अनेक ऐसी परिस्थिति को दर्शाती है। जैसे :- उदाहरण के तौर पर - जब सीट या पद एक ही हो और उसके दावेदार सैंकड़ों, हजारों, लाखों व करोड़ों हों। या यूं कहें कि कार्य एक ही हो; एक ही उसे कर सकता हो और उसके करने वाले या करने का दावा करने वाले लाखों करोड़ों हों। प्रकृति के साधन, संसाधन (Resources) कम हों या बहुत कम हों और साधनों संसाधनों का उपयोग करने वाले सैंकड़ों, हजारों, लाखों व करोड़ों हों अर्थात् अत्यधिक हों। विषय की जटिल परिस्थिति के संदर्भ में ठीक ऐसी ही अनेक परिस्थितियां अनेक स्तरों पर हैं/हो सकती हैं। विषय ज्यादा विस्तृत हो जायेगा। इसलिए उन सभी का वर्णन हम यहां नहीं कर रहे हैं।
*अंधी होड़ (स्पर्धा) भी जड़ों में विराजमान*
विश्व में विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों (scenarios) में यदि हम नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि मौजूदा परिस्थिति यह "एक अनार और सौ बीमार" की ही है। जैसे जैसे मनुष्य आत्माओं की वृद्धि होती जाती है, यह परिस्थिति अपने अनेक रूपों में बढ़ती जाती है। यह परिस्थिति बाहरी प्रकृति के परिदृश्यों में भी पैदा होती है और मनुष्यों की मानसिक स्थितियों में भी पैदा होती है। यही परिस्थिति विश्व की अनेक समस्याओं की पृष्ठभूमि बनती है। इसे और अच्छी तरह से समझें। यह परिस्थिति सार्वभौमिक बनी हुई है। विश्व की कोई भी व्यक्तिगत, परिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था हो उन सभी व्यवस्थाओं में कमोवेश यही परिस्थिति विराजमान है। इसी परिस्थिति के चलते विश्व के करोड़ों अरबों मनुष्यों के मानसिक धरातल पर होड़ (कंपटीशन) मची है। प्रायः अधिकांश मनुष्यों में होड़ की एक कसक और ठसक बनी रहती है। मनुष्यों ने हद को पार कर दिया है। अब पृथ्वी की बात पूरी हो गई। अब वह चन्द्रमा पर भी अपना कब्जा जमा लेना चाहता है। वह तो शुक्रिया मानिए अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंदों को बनाने वालों का। नियमानुसार मनुष्यों को एक खासी कीमत चुकाकर चन्द्रमा पर प्लॉट लेने की तो स्वीकृति है लेकिन प्लॉट के ऑनर को उसका उपयोग करने की छुट्टी नहीं है। सिर्फ एक नाम मात्र के लिए चन्द्रमा पर प्लॉट खरीदने की स्वीकृति है। वरना मनुष्यों ने चन्द्रमा पर भी जाकर चन्द्रमा का भी दोहन करना शुरू कर दिया होता।
*समस्या का मूल कारण*
इसके मूल कारणों की अगर हम बात करें तो मनुष्य आत्माओं में प्रकृति का और सामूहिक जनमानस के प्रकंपनों का सम्मोहन इतना प्रबल है कि इस सम्मोहन से ज्यादा प्रभावित होने वाले लोग अशांति और बेचैनी में रहने के लिए विवश हैं। इसका बहुत ही स्पष्ट और मनोवैज्ञानिक यह अर्थ हुआ कि इस संसार में मनुष्य ही समस्या है। मनुष्य ना तो जानवर है और ना ही देवता है। वह बीच में है। मनुष्य का जानवर बनना तो हो नहीं सकता है। देवता वह है नहीं। देवता बनने में शरीर, मन और आत्मा की ऊंचाइयां चढ़नी पड़ती हैं। चेतना की वर्तमान उंचाई से ऊपर उठने की स्थिति भी मनुष्य की स्थिति है। लेकिन वह स्थिति है ऊंचा चढ़ने की स्थिति।
*मनुष्य समाधान करता आया है फिर भी*
अनेक प्रकार की व्यवस्थागत परिस्थितियों में यह "एक अनार और सौ बीमार" वाली स्थिति धीरे धीरे प्रबल होती ही है। यही अनेक समस्याओं की जनक है। मनुष्य इसका जितना समाधान करते हैं, यह उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाती है। पर मानव ने कब हार मानी है? मनुष्य कुछ ना कुछ समाधान करने की कोशिश करता ही रहता है। ऐसा समझो जैसे कि वह परिस्थिति को कुछ ना कुछ मरम्मत करने का काम करता ही रहता है। लेकिन परिस्थिति का जो ढांचा है, वह वैसा का वैसा ही बना रहता है। परिस्थितियां निर्मित (पैदा) होती हैं ढांचे के आधार पर। ढांचा ही स्वयं में एक साँचे को लिए हुए चलता है। वह साँचा है मनुष्य की अवधारणाओं मान्यताओं और दृष्टिकोण का। समय बीतते बीतते अनेक परिस्थितियां पैदा होती हैं और उस साँचे के अंदर आकर बैठ जाती हैं। मनुष्यों के आंतरिक व्यक्तित्व के ढांचे और सांचे की जो निर्मिति होती है उसके बनने में मनुष्य की मानसिकता और अन्य अनगिनत प्रकार की परिस्थितियां निमित्त बनती हैं। वास्तव में वैश्विक स्तर पर या अनेक स्तरों पर समस्याएं बहुत बड़ी हैं और मनुष्य की क्षमताएं बहुत अल्प हैं। प्रकृति, पुरुष और परमात्मा के अविनाशी नाटक के अनुसार यह ऐसी परिस्थिति ड्रामा में इनबिल्ट ही है। इसलिए इसका दोषारोपण किसी भी एक मनुष्य के माथे नहीं मढ़ा जा सकता है।
*उपाय क्या है*
*यह "एक अनार और सौ बीमार" की परिस्थिति कब अपना रुख बदल सकती है? कब विपरीत हो सकती है? भावार्थ है कि यह "एक अनार और सौ बीमार" की परिस्थिति कब "सौ अनार और एक बीमार" की परिस्थिति में परिवर्तित हो सकती है? वर्तमान समय मनुष्यों के सामने यही प्रधान प्रश्न है। बहुत ज्यादा विचारणीय है। वैश्विक परिस्थिति अनेक रूपों में प्रबल होती जा रही है। इसका सम्पूर्ण समाधान वास्तव में किसी के पास नहीं है। मनुष्य के पास इसका समाधान व्यक्तिगत रूप से है। लेकिन वह समाधान विश्व की इस परिस्थिति में आंशिक रूप से ही हो सकता है। इसके वास्तव में दो प्रकार के हल हो सकते हैं। एक है कि व्यक्ति अध्यात्म में रुचि ले और आध्यात्मिकता को अपने जीवन में पूरा उतारने का भरसक पुरुषार्थ करे। यह एक उपाय तो है पर यह उपाय केवल व्यक्तिगत है और इस वैश्विक या सामूहिक समस्या के समाधान का केवल आंशिक उपाय है। यह अधिकांश (majority) मनुष्यों में नहीं हो सकता है। दूसरा है सम्पूर्ण परिवर्तन। एक ऐसा सम्पूर्ण परिवर्तन जिसमें वैश्विक उर्जागत स्थिति अपने पूर्ववत स्थिति में लौट आती है। वैसी परिवर्तित स्थिति में यह "एक अनार और सौ बीमार" वाली परिस्थिति (समस्या) "सौ अनार और एक बीमार" वाली परिस्थिति (समाधान) में बदल जाती है। वह एक ऐसा सम्पूर्ण परिवर्तन है जिसे केवल एक परमात्मा ही कर सकते हैं। कोई मनुष्य इस सम्पूर्ण परिवर्तन को नहीं कर सकता है। इसके इलावा इस परिस्थिति के सम्पूर्ण समाधान का किसी के पास कोई उपाय नहीं है। 🙏✋*