" *हम सभी क्षमा प्रार्थी हैं कैसे"*
*मेरा प्रयास और भावार्थ*
मेरी यह कोशिश रहती है कि ऐसे ही विषयों पर कुछ लिखा जाए जो मनुष्य के सामान्य मनोविज्ञान की कसौटी पर खरे उतरते हों। मेरी यह भी कोशिश रहती है कि ऐसे ही किसी विषय पर कुछ जाए व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन से या सामाजिक पहलुओं से जुड़ा हुआ हो। मेरा यह भी प्रयास रहता है कि ऐसे ही विषय पर कुछ लिखा जाए जिसका संबंध मनुष्य की बहु आयामी समझ को बढ़ाने वाला हो। मेरा यह भी प्रयास रहता है कि समझ के प्रगाढ़ बनने से लोगों में अध्यात्मिक चेतना का परिष्कार हो और लोग सुख शांति का अनुभव करें और कराएं। प्रस्तुत "क्षमा" विषय पर विवेचन करने के परोक्ष में भी मेरी यही भावना है लोग अपनी समझ की सम्पदा को बढ़ाएं।
*टाइटल्स (शीर्षक) देने के परोक्ष में मनोविज्ञान*
इस दुनिया का निर्माण ही इस तरह से हुआ है। अनेक प्रक्रियाओं से गुजरते हुए हमारे मनोवैज्ञानिक स्तर भी इस तरह से डिजाइन हो गए हैं कि हम पूरे कल्प में कभी भी पूर्ण व्यक्तित्व वाले नहीं होते हैं। थोड़ी अल्प मात्रा में ही सही, अपूर्णता बनी ही रहती है। कोई भी आत्मा सर्वगुण सम्पन्न नहीं होती है। जिसकी पूर्णता की परसेंटेज सबसे ज्यादा होती है उसे हम सर्वगुण सम्पन्न का टाइटल दे देते हैं। यह इस तरह के टाइटल्स के नाम हमने ही दिए हुए हैं। यह नाम किसी वैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रयोग करके नहीं दिए हुए होते हैं। यह मनुष्यों की सामाजिक अवधारणाओं के कारण ही होता है। ये टाइटल्स पूर्णता और अपूर्णता के अनुपात के कम या ज्यादती के अनुसार दिए होते हैं। पूर्णता और अपूर्णता में केवल मात्रा (परसेंटेज) का ही अंतर होता है। इस अन्तर के स्तर बदलते रहते हैं। इस सृष्टि का ढांचा ही ऐसा बना हुआ है। इसलिए जीवन रूपी यात्रा में चलते चलते कोई भी आत्मा यह दावा नहीं कर सकती है कि मेरे अन्दर सर्वगुण हैं। कोई भी आत्मा यह दावा नहीं कर सकती है कि मेरे अन्दर अध्यात्म की सर्व शक्तियां हैं और मुझसे तो किसी भी सम्बंध संपर्क में आत्माओं को भावनात्मक, वैचारिक, शारीरिक आदि किसी भी प्रकार की अशांति दुख (हानि) पहुंच ही नहीं सकती है। नहीं। हकीकत यह है कि किसी भी आत्मा से कभी ना कभी किसी ना रूप से संबंध संपर्क में आने वाली आत्माओं को हानि (दुख अशांति) कभी अल्प मात्रा में ही सही, पर पहुंचती तो है। लेकिन हमें उसका पता नहीं चलता या हम उसे अन्यथा लेते हैं। अपूर्ण जीवन में रहते हुए भी हमारे कर्मों में अपूर्णता रहना सदैव संभव होता है। हमारे व्यक्तित्व यदि अपूर्णता है तो हमारे व्यवहारिक जीवन दुख अशांति के लाने का कारण बन जाती है।
*अपनी अपूर्णता की कल्पना कीजिए*
कल्पना कीजिए कि आप चाहे जो भी हों। आप जिन भी लोगों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। उनमें से आपसे नब्बे प्रतिशत लोग खुश है। आपके अन्दर क्षमता नब्बे प्रतिशत लोगों को खुश करने की है। आपसे नब्बे प्रतिशत लोग संतुष्ट हैं। तो नब्बे प्रतिशत लोगों के लिए आप पूर्ण और काबिल हो गए। नब्बे प्रतिशत लोग आपको अच्छा मानेंगे। नब्बे प्रतिशत लोगों के लिए आप ठीक हैं। तो बाकी के दस प्रतिशत प्रतिशत लोग आपको अच्छा नहीं मानेंगे। उनके लिए आप ठीक नहीं, गलत हैं। इसका सीधा सा अर्थ हुआ कि आप दस प्रतिशत गलत हो गए। कहीं ना कहीं यही कहा जायेगा कि आपसे दस प्रतिशत भूल हो रही है। इसलिए ही आपसे शत प्रतिशत लोग संतुष्ट नहीं हैं। यानि आपकी जो क्षमताएं, वे पूर्ण ना होकर, पूर्णता के हिसाब से दस प्रतिशत कम हैं। यह कम और ज्यादा का अनुपात बदलता रहता है पर यह अनुपात सदा रहता ही है। ऐसा कभी नहीं होता है कि शत प्रतिशत अनुपात खत्म हो गया हो। अर्थात सब सबसे शत प्रतिशत खुश नहीं होते हैं। सबको सभी शत प्रतिशत पसंद नहीं होते हैं। सब सबके लिए शत प्रतिशत ठीक नहीं होते हैं। बड़े बड़े धुरंधर भी इस तरह के पारस्परिक अनुपात में किसी ना किसी प्रतिशत में गलत/कम ही साबित होते हैं। यह हास्यास्पद नहीं है। यह सृष्टि की रचना ही ऐसी है। मनुष्य का मनोविज्ञान ही ऐसा है।
*क्षमा करना कठिन क्यों लगता है*
मनुष्य को क्षमा करना कठिन क्यों लगता है? क्योंकि मनुष्य खुद को व खुद के मनोविज्ञान को नहीं जानता है। वह यह नहीं जानता है कि जो नासमझी दूसरे व्यक्ति के अन्दर है वह मेरे अन्दर भी अचेतन अवचेतन में है। इसलिए जो भूल या अनैतिकता इस व्यक्ति ने की है, यह हो सकता है कि वही भूल मैंने भी कभी की होगी। जो श्रेष्ठता मेरे अन्दर है वह इस सामने वाले व्यक्ति के अन्दर भी रही होगी या हो सकती है। जो निकृष्टता इस व्यक्ति के अन्दर है वह कभी मेरे अन्दर भी रही होगी। यानि कि जो निकृष्टता उसमें है वह निकृष्ठता मुझमें भी हो सकती है। मुझमें जो श्रेष्ठता है वह श्रेष्ठता उसमें भी हो सकती है। यानि कि यह समझ हो कि प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर श्रेष्ठता और निकृष्टता दोनों ही अंतर्निहित (inbuilt) ही हैं। किसी भी आत्मा के अचेतन का किसी को प्रत्यक्ष वर्तमान में पता नहीं रहता है। स्वयं और दूसरों के बारे में ऐसी अगर मनोवैज्ञानिक समझ हो तो क्षमा करना अपने आप फलित होता है। बाकी यह सोचकर क्षमा करना कि मैं बहुत महान हूं इसलिए मैं तुम्हें क्षमा करता हूं, यह वास्तव में क्षमा नहीं है। यह तो बड़ी कमजोर और थोथी क्षमा होती है।
*आत्माएं अपूर्ण हैं। भूलों को आत्माओं के व्यक्तित्व का हिस्सा मानें*
खैर...बात सिर्फ प्रत्येक आत्मा के मनोविज्ञान को समझने की है। ऐसा कहा गया है कि मनुष्य गलतियों का पुतला है। इसमें समस्त मनुष्य जाति के प्रति ही पुतला कहा है। कोई एक व्यक्ति भी अपवाद नहीं है कि नहीं जी, यह या वह व्यक्ति तो गलतियों का पुतला नहीं है। जिसने भी यह उक्ति कही है, वह वास्तव में ही बहुत विशाल सोच का आदमी रहा होगा। वह वास्तव में अति सचेतना का व्यक्ति रहा होगा। उसने मनोविज्ञान को बहुत गहरे में समझा होगा। वह व्यक्ति पूरे समाज में मनुष्य और मनुष्य की योग्यताओं के आर - पार देख सकता होगा। उदाहरण के तौर पर। यदि आप तथाकथित कुरुक्षेत्र के मैदान में हुए कृष्ण और अर्जुन के संवाद को समझें तो आपको एक चीज का गहरा बोध होगा। एक तरफ परमात्मा के साक्षात प्रतिमूर्ति कृष्ण हैं। दूसरी ओर बड़ी सोफिस्टिकेटेड कुशाग्र बुद्धि वाला अर्जुन विराजमान है। इतनी कुशाग्र बुद्धि वाला अर्जुन भी परमात्मा की साक्षात प्रतिमूर्ति कृष्ण के असली रूप को नहीं पहचान पाया और वह उसे देहधारी कृष्ण समझ कर उसके साथ बातचीत में बहुत हल्के शब्दों का प्रयोग करता रहा। कभी उसके साथ मजाक आदि की भी बातें हुईं। अर्जुन ने बहुत बार मित्रवत समझ कर कृष्ण की आज्ञाओं की अवज्ञा भी की। यहां कहने का भाव यह है कि यदि मनुष्य के सामने बहुत असाधारण परिस्थिति या परमात्मा के उपस्थित होने जैसी कोई घटना भी घट रही हो तो भी मनुष्य से भूल होना साधारण सी बात है। दूसरी ओर कितना भी कोई कुशाग्र बुद्धि वाला मनुष्य हो, नासमझी हो जाना या पारस्परिक कोई भूल उससे भी हो जाना साधारण सी बात है। कृष्ण (परमात्मा) यह बखूबी जानते थे कि अपूर्ण मनुष्य आत्माओं की क्षमता कितनी सीमित होती है। इसलिए कृष्ण को कभी यह नहीं दिखाया है कि कृष्ण अर्जुन पर नाराज हो गए हों और उनके बीच में कम्युनिकेशन गैप या विरोध का भाव आ गया हो। परमात्मा (कृष्ण) के संदर्भ में पूर्ण या अपूर्ण शब्दों का प्रयोग करना भी यथार्थ नहीं है। यह वर्णन है कि अर्जुन ने अपनी गलतियों को महसूस किया और परमात्म के (कृष्ण के) विराट रूप का साक्षात्कार करने के बाद उसने अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगी है। इसलिए ऐसा समझ कर चलें कि भूलें मनुष्य के जीवन का हिस्सा हैं।
*हम सभी क्षमा प्रार्थी हैं।*
मुझे लगता है कि श्री कृष्ण और अर्जुन के इस उदाहरण से यह पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि हम सभी क्षमा प्रार्थी हैं। बहुत से बुद्धिजीवियों का भी यह मानना है कि सभी क्षमा के पात्र हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि सभी के हाथ में क्षमा का पात्र है। इसलिए सभी को सभी से क्षमा मांग लेनी चाहिए और सभी को सभी को क्षमा कर देना चाहिए। सभी को सभी की गलतियों को भूल जाना चाहिए। बात बहुत गहरी है। जब गलतियों को करना मनुष्य के लिए एक सामान्य सी बात है तो उन्हें याद रखने का कोई औचित्य ही नहीं है। "Forgive and forget" यह पुस्तक यह दावा करती है कि सभी को क्षमा कर देना चाहिए। क्योंकि यह मनुष्य की योग्यताएं और मनुष्य सृष्टि ही ऐसी है। इस पुस्तक के अनुसार हम सभी क्षमा प्रार्थी हैं। सभी भूलें करने वाले भी हैं। सभी सभी की भूलों को क्षमा करने वाले भी हैं। सभी को, चाहे वह कोई भी है। सभी क्षमा के पात्र हैं। उन सभी को क्षमा करो। इसे समझना जरा कठिन होगा। पूरे सृष्टि चक्र में सभी मनुष्यों ने कभी ना कभी किसी ना किसी मनुष्य को कुछ ना कुछ किसी ना किसी प्रकार से दुख और अशांति (हानि) पहुंचाई ही होगी। जब सभी को क्षमा करना हो तो बात ही खत्म हो गई। अब कुछ बचा ही नहीं। कृष्ण और अर्जुन के बीच के संवाद की यह घटना संगमयूग की यादगार घटनाओं में से एक घटना है।
*आप अपूर्ण हैं। क्षमा मांगने का इजहार करें।*
अगर मेरे द्वारा जाने अनजाने में कोई भूल हुई और आपको कोई ठेस पहुंची हो या आपने मूझसे कुछ असहज या मानसिक दुख महसूस हुआ हो तो कृपया मुझे क्षमा करें - ऐसा इजहार कर देना चाहिए। चूंकि हम सभी अपूर्ण व्यक्तित्व वाली आत्माएं हैं। इसलिए यह क्षमा की भद्र भावना जो हमें अपनी तरफ से सभी के प्रति इजहार कर देनी चाहिए। मैं ऐसा समझता हूं कि ऐसा कहने में या ऐसे शब्द इजहार करने में कोई कठिनाई तो नहीं है। लेकिन ऐसा कहने से या संचार माध्यमों से ऐसे शब्द संप्रेषित करने से बहुत से लोगों के अहंकार को ठेस पहुंचती है। यदि आपको लगता है कि कहीं कभी मुझसे किसी को कोई नाराजगी हुई है तो थोड़े समय के लिए अपने अहंकार को एक तरफ रखें। जो आपके संबंध संपर्क में हैं, उन्हें आप यह कह सकते हैं कि "कृपया मुझे क्षमा करें। यदि किसी भी समय मेरी ओर से आपको कैसी भी कोई ठेस पहुंची हो। कृपया मुझे क्षमा करें। स्वयं को अपूर्ण समझने के ज्ञान से और क्षमा प्रार्थी का भाव होने से परस्पर संबंधों में समरसता और सौहार्द्यता आती है। कार्यों में सहजता आती है। परस्पर आत्मिक भाव और भावना का अहसास होता है। 🙏🌹🙏