*सदा दुआएं दीजिए। दुआएं लीजिए। दुर्वासा बनना हमारा काम नहीं।*
*शक्तियां स्थिर होती हैं। उन्हें दिशा हम देते हैं।*
पवित्र जीवन में रहते हुए हम ज्ञान हम ज्ञान और योग के मार्ग पर चल रहे हैं। हमारी शक्तियां जमा होती हैं। हमारी सोच और हमारे कर्म बदल जाते हैं। शक्तियां व्यर्थ जाने से बच जाती हैं। शक्तियों को हम सकारात्मक और समर्थ कार्यों में लगाते हैं। धीरे धीरे हमारे अंदर शक्तियां जमा होती जाती हैं। ज्ञानयोग कर्मयोग के द्वारा जमा की हुई शक्तियों का उपयोग दोनों तरह से हो सकता है। शक्तियों का सदुपयोग भी हो सकता है। दुरुपयोग भी हो सकता है। कभी कभी तो ऐसा भी हो सकता है कि बहुत सी आत्माओं को यह पता ही नहीं चलता कि हमारे ऐसा सोचने से या ऐसा भाव करने से या ऐसा कुछ बोलने या करने से भी हमारी शक्तियों का दुरुपयोग हो सकता है। उनसे सिर्फ देह अभिमान वश (बेहोशी में) कुछ स्थूल और सूक्ष्म कर्म हो जाते हैं। वे अनजाने में ही शक्तियों को गलत दिशा दे देते हैं। उनके साधारण बोल, विचार - भाव, अनुमान और भय के द्वारा किए हुए कर्मों से भी शक्तियों का दुरुपयोग अनजान में ही हो जाता है। प्रकंपनों की गति तो और भी अति गहन है। हमने चूंकि लम्बे समय से ज्ञानयोग कर्मयोग से आंतरिक शक्तियां इकठ्ठी की हुई हैं। इसलिए हमारा किन्हीं भी आत्मा के प्रति साधारण रूप से भी व्यर्थ सोचना या भाव करना भी अन्य आत्माओं के लिए बददुआ का कारण बन जाता है। हम बहुत सी बातों को बहुत हल्का समझकर कर लेते हैं। हम बहुत सी बातों के प्रति बेपरवाह होते हैं। पर मत भूलें कि उनके भी परिणाम गंभीर होते हैं।
*दुआएं क्या होती हैं? दुआएं देने और बददुआएं देने के कई साधन*
दुआएं और कुछ नहीं, बल्कि ये पॉजिटिव, शुद्ध वा शुभ मानसिक या भावनात्मक ऊर्जा के सम्प्रेषण (भेजने) का दूसरा नाम है। दुआएं देने के कई साधन हैं। बददुआएं देने के भी कई साधन हैं। शुद्ध भाव से, शुद्ध विचार (संकल्प) से, शुद्ध बोल से या अन्य प्रकार के स्थूल और सूक्ष्म कर्मों के द्वारा दुआएं दी जा सकती हैं। यदि ये अशुद्ध हों तो इनसे बददुआएं भी दी जा सकती हैं। हम परमात्म ज्ञान योग से शक्तियां प्राप्त करते हैं। हमें शक्तियां दुआएं देने के लिए ही मिली हुई हैं। हमें अपनी प्राप्त शक्तियों से अन्य आत्माओं को वरदान देने हैं। हमें शक्तियां अभिशाप देने के लिए नहीं मिली हैं। हमारी भावनाओं में ही ऐसे प्रकंपन होते हैं जिससे हमारी नकारात्मक सोच और दृष्टिकोण रखने मात्र से अन्य आत्माएं अभिषप्त हो जाती हैं। ऐसा समझो जैसे कि हमारे द्वारा नकारात्मक ऊर्जा उनकी तरफ गई और वे आत्माएं अभिषप्त हुईं। परमात्मा से द्वारा प्राप्त शक्तियां अन्य आत्माओं को सुख शान्ति देने के लिए ही हैं। यदि परमात्म शक्तियों का अभिषाप देने में दुरुपयोग होता है तो प्राप्त की हुई शक्तियों निष्प्रभावी हो जाती हैं। यदि शक्तियों का दुरुपयोग होने लगता है तो अध्यात्मिक पुरुषार्थ और ईश्वरीय सेवा से प्राप्त शक्तियां निष्फल चली जाती हैं।
*हम वरदानी आत्माएं हैं। दुर्वासा ऋषि नहीं हैं।*
परिस्थितियां आती हैं और जाती हैं। यहां कुछ भी ठहरता नहीं है। ना सतयुग ठहरता है। ना कलयुग ठहरता है। ना सुख ठहरता है। ना दुख ठहरता है। ना प्रेम ठहरता है। ना घृणा ठहरती है। आत्मा शाश्वत है। परमात्मा शाश्वत है। बाकी सब बदलता रहता है। परिस्थितियां भी बदलती रहती हैं। परिस्थितियां हमारी मानसिक या भावनात्मक दिशा को परिवर्तित ना कर पाएं। हमें हमेशा ध्यान देना है कि हम कभी दुर्वासा ऋषि जैसे ना बनें। दुर्वासा ऋषि का ऐतिहासिक वर्णन है कि वह अपने व्यक्तित्व की छवि की छोटी छोटी बातों में ही आवेश में आकर किसी को भी श्राप (बददुआ) दे दिया करता था। यह वास्तव में तपस्या की पृष्ठभूमि की अपरिपक्व स्थिति के परिणाम का ही वर्णन शास्त्रों में किया हुआ है। यह ऐसा क्यों होता है? क्योंकि तपस्या तो कर ली है। तपस्या के परिणाम स्वरूप स्थिति तो शक्तिशाली बन जाती है। लेकिन अंतःकरण की शुद्धि नहीं हुई होती है। इसलिए ही हमसे श्राप या बददुआ मिल जाती है। कारण तो निमित्त मात्र होता है। लेकिन उसके परोक्ष में मूल कारण होता है अंतःकरण की अशुद्धि। दुर्वासा ऋषि जैसी बददुआ (श्राप) देने की नकारात्मक प्रतिक्रिया तो पल भर में हो सकती है या हो जाती है। लेकिन उसके जो दूरगामी परिणाम होते हैं। उसका प्रभाव पल भर का नहीं होता है। उससे प्राप्त हुई बद्दुआओं का प्रभाव लम्बे समय तक चलता है। कई बार कई जन्मों तक भी चल सकता है। क्रिया की प्रक्रिया का प्रकृति का अनादि नियम है। आसुरी कर्मों का परिणाम स्वत: मिलता ही है। ज्यादातर लोग ऐसे भी होते हैं कि वे दूसरों के काम में ज्यादा उत्सुक होते हैं। नहीं। हम स्वयं के कार्यों पर और स्वयं की आत्मिक उन्नति पर ध्यान दें। अपनी स्थिति को ऐसा बनाएं जिससे हमारे द्वारा किसी को भी बददुआएं ना मिलें। हमेशा दुआएं ही मिलें।
*अध्यात्मिक शक्तियां सिर्फ सृजन ही करती हैं।*
वास्तविक आध्यात्मिक शक्ति के बारे में यह एक तथ्यात्मक अर्थ हमें समझ लेना चाहिए। आत्मिक शक्ति जब वास्तव में ही आध्यात्मिक शक्ति बनती है तब उसमें कभी भी दूसरों को दुख देने की भावना नहीं उठ सकती है। उसमें किसी भी प्रकार का अकल्याणकारी संकल्प ही पैदा नहीं हो सकता है। ऐसी शक्ति से समय देश परिस्थिति के अनुसार सृजन स्वत: स्वभावत: ही हो रहता है। हम अपने योग या कर्मयोग तपस्या (साधना) के उद्देश्य को अच्छी तरह समझें और जागरूक रहें। हमने विकारों के सम्पूर्ण त्याग का पथ अपनाया है। हम राजयोग की तपस्या करके परमात्मा से सूक्ष्म शक्तियां अर्जित कर रहे हैं। वे शक्तियां परमात्मा के सृजन के कार्य के लिए ही अर्जित कर रहे हैं। उनका सदुपयोग करने के लिए ही कर रहे हैं।
*शक्तियों से स्वयं की रक्षा अवश्य करें, पर अन्य आत्माओं को बददुआएं ना दें*
आत्मिक शक्तियों वा परमात्म शक्तियों से स्वयं की रक्षा करें, पर दुरुपयोग नहीं करें। इकठ्ठी हो रही शक्तियों का दुरुपयोग न हो पाए। इस बात का हमें व्यक्तिगत रूप से ध्यान रखना चाहिए। किसी भी आत्मा को बददुआ देना भी शक्तियों का दुरुपयोग करना है। किसी भी आत्मा की निन्दा ग्लानि करना भी एक प्रकार से बददुआएं देना ही है। इकठ्ठी की हुई स्वयं की शक्तियों और परमात्म शक्तियों से स्वयं की रक्षा अवश्य करें। शक्तियों से स्वयं का उत्थान तो करते रहें। परन्तु किन्हीं भी आत्मा(ओं) को बददुआएं ना दें। किन्हीं के भी जीवन में या किन्हीं के लिए भी उनके पार्ट बजाने में बद्दुआओं से व्यवधान डालने वाले बाधाकारक ना बनें।
*हम दुआऐं देने का कारण क्यों ढूंढते हैं? दुआओं के लेन देन में मोल भाव का कोई औचित्य नहीं।*
प्रायः हम अन्य लोगों को दुआएं देने का भी कोई कारण ढूंढते हैं। नेक काम करने के लिए भी हमें कारण या समय की तलाश होती है। बिना कारण के हम कुछ करना ही नहीं चाहते है। हमारी सोच यह होती है कि लोग कुछ ऐसा करें जिससे हम उन्हें दुआ दें। लोगों के हालात ऐसे हों जिससे हम उन्हें शुभभावनायें दें अर्थात् दुआएं दें। या वे हमें दुआएं दें तो हम भी उन्हें दुआएं दें। वे उधर से पॉजिटिव ऊर्जा शुभ ऊर्जा भेजें तो हम भी इधर से पॉजिटिव शुभ ऊर्जा भेजें। इसका तो यह अर्थ हुआ कि दूसरों का भला अपनी इच्छा से नहीं करते बल्कि यह तो एक प्रकार की व्यापार जैसी स्थिति हुई। मान लीजिए कि यदि लोग ऐसा कुछ करते हैं जिससे वे दुआओं के हकदार हो जाते हैं। अर्थात् मान लीजिए लोगों ने किसी भी विधि से किसी कार्य में पॉजिटिव और शुभ ऊर्जा का नियोजन किया। तो उन्हें वैसी ही पॉजिटिव शुभ ऊर्जा वापिस मिली। यह तो हुआ कि उनके कार्यों के फलस्वरूप ही उन्हें स्वत: (ऑटोमेटिकली) ही दुआएं मिलीं। तो फिर इसमें हमने क्या किया? इसमें यह हमारा दुआएं देना हुआ या उनका खुद का पुरुषार्थ हुआ? हमने तो कोई दातापन का काम नहीं किया। यह तो उनके कार्यों के कारण का परिणाम था जिससे उनको वे दुआएं मिलीं। इसमें हमारा क्या हाथ रहा? इस प्रक्रिया में हम तो मास्टर दाता नहीं हुए। यह तो प्रकृति के नियम अनुसार ही ऑटोमेटिकली लेन देन ही हुआ। यह तो ऐसा समझो कि जैसे कारण और प्रभाव का नियम हुआ। इसमें हमने तो स्वयं ही अपनी इच्छा से तो दुआएं नहीं दीं। तो फिर हम ऐसा क्यों कहते हैं कि सबको दुआएं दीजिए। सबको शुभभावनायें दीजिए। ये शुभभावनायें ही (भी) दुआओं का रूप होती हैं।
*दुआओं का असली अध्यात्मिक अर्थ। हम दुआएं देने में ढीले ढाले क्यों रहते हैं?*
वास्तव में दुआएं लेन देन की भाषा तक ही सीमित नहीं होती है। दुआओं के लेन देन की भाषा तो बहुत ही ऊपर ऊपर की बात है। इस तरह की दुआएं देने की प्रक्रिया तो प्रकृति के नियम अनुसार तब भी घटित हो जाती है जब आपके द्वारा सचेतन रूप से सोच समझ कर कुछ भी नहीं होता है। दुआओं के देने की यह भाषा और परिभाषा तो बड़ी कॉमन है। "दुआएं देना" - यह आत्मा की एक स्थिति है। आत्मा की एक स्थिति ऐसी भी होती है जब उससे श्रेष्ठ शुभभावनाओं के प्रकंपन स्वत: बहते हैं। ऐसा समझें कि आत्मा की एक ऐसी आत्मिक स्थिति का स्थायी बन जाना जिस स्थिति में अब किसी विचार या सोच या किसी प्रतिक्रिया की जरूरत नहीं रह गई है। आत्मा की आंतरिक स्थिति के अनुसार यदि कहें तो दुआओं के देने का भावार्थ बिल्कुल बदल जाता है। अध्यात्म की दिव्य स्थिति दुआएं देने की परिभाषा को कुछ इस तरह बयान करती है। "दुआएं दीजिए - इसके परोक्ष में एक ऐसी आत्मिक स्थिरचित्त स्थिति बनाने की ओर इशारा है जिससे स्वत: स्वभावत: ही दुआओं का निर्झर झरना बहता रहता हो।" यही है वास्तव में दुआएं देने की असली स्थिति। बाकी तो सब शुभ सुखद मानसिक वा भावनात्मक ऊर्जा का लेन देन है। उसे असल में दुआओं का या दुआओं के देने का नाम ना दें तो अच्छा हो। इसका अर्थ यह हुआ कि लेन देन की व्यापारिक पद्धति से दुआओं के लेन या देन के नहीं होने के अनेक कारण हो सकते हैं। लेकिन सर्व आत्माओं के लिए दुआएं देना हो, उन्हें हम इसलिए ही दुआएं नहीं दे सकते हैं क्योंकि हमारी स्वयं की उच्चतम और दिव्यतम आत्मिक स्थिति नहीं बनी हुई है।
*प्रतिक्रिया विवेकपूर्ण हो*
प्रतिक्रिया तो एक सेकेंड की होती है। बिना सोचे समझे केवल किसी भाव, विचार, बोल या कर्म को करने से भी हम अपनी और दूसरों की मानसिक या भावनात्मक स्थिति को और उनके कार्यों को बिगाड़ने के निमित्त बन सकते हैं। हमें यह ज्ञात है कि शक्तियों का दुरुपयोग करने से विकर्म बनते हैं। शक्तियों का दुरुपयोग करना अर्थात व्यर्थ और नकारात्मक ऊर्जा संप्रेषित करना। यही ऊर्जा तीव्र यात्रा करती हुई किसी कार्य में व्यवधान डाल देती है। यह भी हमें पता है कि ऐसा करने से नकारात्मक ऊर्जा हमारा जन्मजन्मांतर पीछा कर सकती है। चाहे पॉजिटिव ऊर्जा हो या नेगेटिव ऊर्जा हो। दोनों ही हालातों में कर्म की गति का एक ही ऊर्जा के परावर्तन का नियम सबके साथ एक जैसा ही काम करता है। इसलिए अपनी मन, वाणी और कर्म की शक्तियों का सकारात्मक सृजनकारी उचित उपयोग ही करें। प्रकृति की ऊर्जा का दुआओं और बददुआओं का अर्थात् पॉजिटिव और नेगेटिव एनर्जी लेन देन का ही यह विश्व ड्रामा बना हुआ है। इसलिए स्थूल और सूक्ष्म कर्मों की सूक्ष्म गति के बारे में हम सदा सचेत रहें। धन्यवाद। 🙏👍✋