हमारे लिए पिछले
काफी समय से महामारियों का जैसे अस्तित्व ही ख़त्म हो गया था। लेकिन तभी किसी
पुराने पीपल की चुड़ैल की छम-छम करती दस्तक सुनाई देने लगीं। एड्स, डेंगू, सॉर्स, इबोला,
जीका और निपाह से हम अभी पूरी तरह निजात भी न पा सके थे कि अब कोरोना वायरस ने
ख़तरे का सायरन बजा दिया। कोरोना वायरस के साथ एक समस्या ये भी है कि यह एक अड़ियल
कम्युनिस्ट देश चीन से दुनिया में फैला है। चीन का रवैया हमेशा से उस मां की तरह
रहा है, जो अपने बच्चे की बुराइयों को छुपाना बेहतर समझती है, न कि उन बुराइयों को
दूर करना। शायद यही वजह है कि चीन की सरकार ने कोरोना वायरस के बारे में सबसे पहले
चेताने वाले वुहान के डॉक्टर ली वेनलियांग को न सिर्फ़ मुंह बंद रखने को कहा,
बल्कि उन्हें ये बयान जारी करने पर मजबूर किया कि उनकी चेतावनी दरअसल केवल एक
फर्ज़ी अफवाह और पब्लिसिटी स्टंट थी। फिर फरवरी के पहले हफ्ते में ही उस एक डॉक्टर
की मौत हो गई, जिसने दुनिया की सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देश को ख़तरे से आगाह करना
चाहा था। उसने चाहा था कि उसका देश इस महामारी को रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर कदम उठाए। लेकिन हुआ उलट ही, चीन में पहले बीमारी को छुपाया गया फिर उससे
हुई मौत के आंकड़ों को। जब एक प्राइवेट एजेंसी चीन में कोरोना से 25,000 मौत होना
बता रही है, तब वहां की सरकार के मुताबिक मात्र 645 मौत हुईं। इस दौरान एक
सकारात्मक पहलू ज़रुर सामने आया कि चीन का धुर विरोधी अमेरिका उसके साथ सहानुभूति
रखे हुए है। दरअसल इंसान प्रकृति के तब बहुत करीब था, जब वह तथाकथित रूप से पिछड़ा
और गंवार था। लेकिन जैसे-जैसे गंवार इंसान ने सभ्यता की ओर कदम बढ़ाए और दिल की
जगह दिमाग़ का इस्तेमाल हर बात और हर कृत्य में बढ़ाया, वैसे-वैसे वह ख़ुद को
क़ायनात के दुश्मन के रुप में स्थापित करता चला गया। महामारियां पहले भी दुनिया को
समय-समय पर अपने पंजों में जकड़ती भी रही हैं और प्रकृति की ताकत से रुबरु भी
कराती रही हैं। लेकिन, चांद पर पहुंचे इंसान ने यदि जल्दी ही अपने दिमाग़ का
दुरुपयोग नहीं रोका, तो वो दिन दूर नहीं, जबकि प्रकृति अपना सबसे बड़ा वार अपनी
सबसे अच्छी रचना पर कर दे।
अपर्णा मिश्रा