महाभारत की लड़ाई में करण एक ऐसा व्यक्ति है जो वीर भी है , महान भी है ,सत्यवादी भी है , दानवीर भी है और राजभक्त या देशभक्त भी है. उसके पास केवल एक कमी थी की भगवन श्री कृष्ण उसके साथ नहीं थे . वो पांडवो को क्या तीनो लोको तक को जीत सकता था फिर भी जब जब उसका सामना अर्जुन से हुआ उसे हार का मुँह देखना पड़ा . कृष्ण ये जानते हुए की करण महान है फिर भी उसके साथ नहीं थे क्योकि वह जिस और था वहां धर्म नहीं था और जहाँ धर्म ना हो वहां तो श्री कृष्ण होही नहीं सकते . द्रोणाचार्य , भीष्मपितामह , और न जाने कितने ऐसे लोग थे जो महान भी थे वीर भी थे फिर भी विजयी नहीं हो मृत्यु को प्राप्त हुहे . महान होना , वीर होना और देशभक्त होना अच्छा है परन्तु धर्म के साथ न हो कर अधर्म का साथ देना अपनी वीरता , महानता पर ग्रहण लगाना है . वीर को धैर्य और शांति के साथ समझदारी से निर्णय लेना चहिये ना की क्रोध में आकर जल्दबाजी में . ऐसी ही कहानी दूसरे विश्व युद्ध की है .श्री कृष्ण ने कभी भी नहीं माना की पांडव बिलकुल सही है पांडवो में भी दोष थे , जिसकी सजा उनको भी समय समय पर मिलती रही , ये ही नहीं सर्वश्रेष्ठ धनुर्धन और जो कभी युद्ध में न हरा वो अर्जुन भी एक बार गुज्जरो से हार गया था , अर्जुन अपने धनुष पर प्रत्यंचा भी नहीं चढ़ा पाया और गुज्जरो की लाठी से हार गया , क्योकि उस समय तक श्री कृष्ण उसका भी साथ छोड़ चुके थे . स्वयं कृष्ण के वंशज एक दूसरे को मार कर मर गए और श्री कृष्ण की हत्या एक आखेटक नई की , बलराम ने समाधी लेली . तो ये सब क्या था श्री कृष्ण जानते थे की सब कही ना कही गलती कर रहे है स्वयं श्री कृष्ण ने गंधारी का श्राप लिया और उसे स्वीकार किया . वो तो ईश्वर थे फिर भी श्राप को स्वीकार किया . क्यों ? मनुष्य जब जन्म लेता है तो तब वह प्रकृति से गुण और अवगुण दोनों प्राप्त करता है सिर्फ मात्रा का अंतर होता है . इस शरीर की प्राप्ति के लिए अवगुण का होना अनिवार्य है , जो पांचो तत्वों और तीनो गुणों को बांधता है . यदि अवगुण न हो तो वह व्यक्ति तो मोक्ष की अवस्था में है जन्म और मृत्यु से पर जहाँ परम शांति है . इसलिए कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसमे दोष ना हो .
दूसरे विश्व युद्ध की कहानी भी महाभारत से मिलती जुलती है . एक तरफ अमेरिका , ब्रिटेन और रशिया था तो दूसरी और जापान , जर्मन और इटली .किसे पांडव कहे और किसे कौरव ? दोनों ही सही नहीं थे . परन्तु जर्मन का नाज़ीवाद और जापान का सम्राज्यवाद दोनों ही ब्रिटेन , अमेरिका और रशिया द्वारा किये जारहे अत्याचारों से कही ज्यादा थे . चीन , कोरिया में जो अत्याचार जापानी सेना ने किये वो किसी से छिपे नहीं है , जर्मन द्वारा यहूदियों का नरसंहार उसे सही बताया जा सकता है ? अपने लाभ के लिए अत्याचारी का साथ लेने को क्या हम समझदारी कहेंगे ? नरसंहार करने वालो का साथ हम इसलिए दे की वो हमें आज़ादी भीख में देदेंगे ? वो क्या एक गुलामी नहीं है ?कहाँ है आत्मसम्मान ?वीरता , महानता , देशभक्ति इन सबसे भी ऊपर है धर्म , मानवता. युद्ध किसी विवाद का हल नहीं है , ये बात गीता में श्री कृष्ण द्वारा बारबार कही गयी है . युद्ध के बाद पांडवो को क्या मिला ? हस्तिनापुर का राज लेकिन उसे पाने के लिए क्या खोया ? अपने सभी परिवारजनो को . अपने ही बच्चो के शवो को ढोना पड़ा. अंत में केवल पांचो पांडवो के अलावा कौन बचा परिवार में. क्या आनंद मिला सबकुछ खोकर ? जीत सत्य की हुही पर पर उस जीत की कीमत भी चुकानी पड़ी .
कांग्रेस की मीटिंग में जब इस प्रस्ताव को रखा गया की जापान के साथ मिलकर अंग्रेजो से लड़े तो गांधी जी ने इसका विरोध किया . कांग्रेस के अधिकतर लोग गांधी जी की बात से सहमत थे . क्या वे सभी गलत थे ? क्यों कांग्रेस के लोगो ने जापान के साथ मिलकर युद्ध का समर्थन नहीं किया ?आज हम गांधी जी को सही या गलत कहे लेकिन उस समय के लोगो ने तो गांधी जी सही माना था . अगर ऐसा ना होता तो करोडो लोग गांधी जी का साथ नहीं देते . गांधी जी ने जो विचार रखे थे उसमे यही कहा था की यदि हम जापानियों के साथ बर्मा में युद्ध करते है तो दोनों तरफ से लड़ने वाले हिंदुस्थानी होगे जो मरेंगे वो एक ही परिवार के लोग होगे . क्या यह उचित होगा की हम आपस में लड़े और लाभ जापान या अंग्रेजो को हो ? गांधी जी ने स्वतंत्रता की बात की परन्तु आंतकवाद के विरोधी थे , अहिंसा से मिली आजादी हमें गृह युद्ध में धकेल देगी ये गांधी जी की सोच थी . आज हम अंग्रेजो के खिलाफ आंतकवाद को सही ठहराएंगे तो कल येही आंतकवाद हम एक दूसरे के विरोध में करेंगे . हिन्दुस्थान बहु धर्म , बहु भाषा , बहु जातियों का देश है , जहाँ अहिंसा ही एक मात्र रास्ता है सभी समस्याओ को सुलझाने का . गांधी जी का भारतवर्ष के इतिहास का ज्ञान , स्वंम भारतदर्शन कर सभी के विचारो और विविधता की समझ ने ही उन्हें ये ज्ञान दिया था की युद्ध या आंतकवाद दोनों ही भारत वर्ष के लिए घातक होंगे . आजादी के बाद भी क्यों भारत सरकार ने भगत सिह या अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को ज्यादा प्रोत्साहन नहीं किया ? क्योकि हिन्दुस्थान में आजादी के समय से अलग अलग राजयो की मांग शुरू हो चुकी थी, भाषा , धर्म, जाती के नाम पर लोगो ने अपनी अपनी मांगे रखनी शुरू कर दी थी . डर यही था की कही ये सभी शांति और वार्ता का रास्ता छोड़ आंतकवाद का रास्ता ना पकड़ ले . और वो डर गलत भी नहीं था , ८० के दशक में पंजाब , ९० के दशक में कश्मीर ,नक्सलवाद , पूर्वी राज्यों में आंतकवाद इसके उदाहरण है . राज्यों का बटवारा, भाषा या धर्म के नाम पे दंगे ये सभी अहिंसा के प्रतिक है और गांधी जी ने इसी का विरोध किया था . वीरता , देशभक्ति से ऊपर रखा था मानवता को , शांति को , धर्म को . गांधी जी ने केवल गीता को पढ़ा नहीं बल्कि उसे अपने जीवन में ढाल लिया , हिन्दू धर्म का पालन किया . धर्म , सत्य और अहिंसा को हर जीत से ऊपर रखा .