गीता में श्री कृष्ण भगवान ने कहा है की व्यक्ति के वश में कर्म करना तो है पर उस कर्म का फल नहीं इसलिए जब अर्जुन ने सवाल किया की हम यह भी नहीं जानते की हम जीतेंगे या नहीं तो फिर ऐसे युद्ध का क्या लाभ , तब श्री कृष्ण ने यही कहा था की तू केवल कर्म कर और फल की इच्छा छोड़ दे क्योकि फल तो तेरे वश में नहीं है . और यह चिंता भी छोड़ दे की हम जीतेंगे या नहीं . जिसने जन्म लिया है उसको किसी न किसी दिन तो मृत्यु को प्राप्त होना है और जो मृत्यु को प्राप्त होगा उसका दूसरा जन्म भी होगा . हर योद्धा की किसी न किसी दिन तो प्राण त्यागने ही है, तो फिर क्यों नहीं कर्म करते हुए त्यागे . जब व्यकि की सोच में मै आ जाता है वह अहंकार का प्रतिक है जो व्यक्ति को दुखो की ओर धकेल देता है उसके दुःख का कारण बनता है . मनुष्य सोचता की आज मैंने ये कर लिया कल मै यह कर लूँगा तब वह निश्चय ही अहंकारी है और ये उसका अहंकार ही उसे दुःख देता है . जो अपने अहम का छेदन कर ले वो मुक्ति को प्राप्त होगा ,और जो इस अहम का छेदन नहीं कर पायेगा वह बार बार इस मृत्यु लोक में जन्म लेगा .
नेता जी का यहाँ नारा " तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आजादी दुगा ", क्या अहंकार से भरा नहीं है ? युद्ध तो उनके वश में था परन्तु परिणाम तो नहीं . आत्मविश्वास और अहंकार में अंतर है . हम लड़ेंगे और ईश्वर की कृपा से हम यह युद्ध जीतेंगे , शायद इसमें अहंकार नहीं आत्मविश्वास झलकता है . गांधी जी ने कभी नहीं कहा की मै तुम्हे आजादी दिलाऊगा उन्होंने सिर्फ कहा की यदि हम सब मिलकर अंग्रेजो का साथ छोड़ दे तो उन्हें यह देश छोड़ना ही पड़ेगा .गांधी जी के भाषणो में अहंकार नहीं आत्मविश्वाश झलकता है . गांधीजी ने कोई भी काम या आंदोलन किया वो कर्म समझकर किया ना की परिणाम के लिए क्योकि गांधीजी को गीता का सच्चा ज्ञान था . सुभाषचन्द्र बॉस को नेताजी कहना गलत है हा यदि कोई उपाधि देनी है तो तानाशाह की . सुभाषचंद्रबोस के नारे में तानाशाही झलकती है . जापान में उस समय ना तो राजा के और नाही सरकार के हाथ में शक्ति थी उस समय जापान में सेना के हाथ में सारी ताकत थी , आज भी जापान उस समय के तानाशाही सेना को गलत मानता है , सुभाषचंद्रबोस की तरह ही जापान में नारा दिया गया था , यह नारा उनका अपना नहीं बल्कि जापानी सेना का था जिन्होंने हजारो जवान बच्चो को कामिखाजे बना दिया था और धकेल दिया था मौत के मुह में .जाकर देखो जापान के वॉर म्यूजियम में जहा उन बच्चो की अंतिम पत्र रखे , जापानी जाकर उन बच्चो के लिए आंसू बहाते है ना की गर्व करते है , उस समय के नेतृत्व को कोई भी जापानी सही नहीं बताता . हिटलर की तानाशाही सारे जगत को पता है . उन का साथी होना ही बहुत है यह समझने के लिए की सुभाषचंद्रबोस गलत लोगो के साथ थे और उन से प्रभावित . जहाँ जापान और जर्मन उस समय के अपने नेतृत्व को गलत मानते है ऐसे में हमारे देश में उन पर गर्व किया जाता है . उस पर राजनीती होती है . सुभाषचंद्रबोस के पोते पड़पोते जो जर्मन में व्यापार कर रहे है जिन्होंने , समाज के लिए देश के लिए कुछ नहीं किया , जिनको आज तक कोई जानता तक नहीं आज वो देश भक्त बन रहे है . गुरु द्रोणाचार्य , भीष्मपितामह , करण के वीर , महान होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता की वे सत्य के साथ थे . सुभाषचंद्रबोस कितने ही महान या देशभक्त हो परन्तु वो सत्य के साथ नहीं थे . आज हम जो कुछ सोच रहे है उस जमाने के लोगो ने भी कुछ सोचा होगा , जहाँ गांधी जी को करोड़ो लोगो का समर्थन था वहां उन्हें सिर्फ कुछ हजार लोगो का , कांग्रेस में उनके प्रस्ताव को कितने लोगो ने समर्थन दिया ? जब समर्थन नहीं मिला तब उन्होंने अलग पार्टी बना ली , उस पार्टी में कितने लोग थे या उनकी पार्टी को कितने लोगो का समर्थन था ? शायद उस समय के लोग जो उस समय वर्तमान थे उस समय की सचाई को हम से ज्यादा जानते थे तो क्या वो सब गलत थे और आज हम जो उस समय को सिर्फ कागजो पर देखते है ज्यादा समझदार है . हर वर्तमान अपना फैसला स्वयं करता है और वो जो फैसला करता है वही सही होता है . इसलिए आज इन सब बातो का कोई भी मतलब नहीं है .