गुरु एक तत्व है, जो पूरी सृष्टि में विद्यमान है। तभी तो हम सभी से कुछ न कुछ सीखते हैं। लेकिन गुरु का सबसे महत्वपूर्ण काम है कि वह शिष्य को कर्तव्यों का बोध कराए।
गुरुब्र्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:। गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:।।
हमारे ग्रंथों में गुरु को ईश्वर और परब्रह्म कहा गया है। क्योंकि ईश्वर भी वही करते हैं, जो गुरु का कर्तव्य है। ग्रंथों में लिखा है कि च्गुज् अक्षर अंधकारवाचक है और च्रुज् प्रकाशवाचक। गुरु का अर्थ है, जो अंधकार से निकालकर प्रकाश की ओर ले चले। सिर्फ ज्ञान देना ही गुरु का काम नहीं है, गुरु ही सत्य-असत्य का बोध जगाकर हमारे भीतर विवेक पैदा करता है। देखा जाए, तो गुरु कोई व्यक्ति नहीं होता, बल्कि यह एक तत्व है, जो समस्त सृष्टि में चेतना के रूप में विद्यमान है। इसीलिए तो हम सृष्टि की प्रत्येक चीज से कुछ न कुछ सीखते हैं। यानी समस्त सृष्टि में गुरु-तत्व विद्यमान है। यही परब्रह्म है। शास्त्रों में गुरु की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है, यथा : गिरति अज्ञानान्धकारम् इति गुरु:। अर्थात जो अपने सदुपदेशों के प्रकाश से अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर देता है, वह गुरु है। दूसरे श्लोक में कहा गया है : गारयते विज्ञापयति शास्त्र रहस्यम् इति गुरु: अर्थात जो शास्त्रों के रहस्य को समझा देता है, वह गुरु है। एक और श्लोक में कहा गया है : गणानि उपदिशति धर्ममिति गुरु: अर्थात जो शिष्य को धर्म का उपदेश दे, वह गुरु है। आखिर अज्ञानरूपी अंधकार क्या है, जिसे गुरु दूर कर देते हैं? वास्तव में अंधकार उसे कहते हैं, जो दृष्टि होते हुए भी हमें किसी भी चीज को देखने में अक्षम कर देता है। अज्ञान भी अंधकार के गुण-धर्म वाला होता है। जब भीतर अज्ञान होता है, तो हमारी दृष्टि किसी भी वस्तु को उस तरह नहीं देख पाती, जैसी वह है। जिस तरह हम अंधकार में हम चीजों से टकरा जाते हैं, उसी प्रकार अज्ञान में भी हम टकराकर चोट खा बैठते हैं। जैसे मान लें कि हम किसी दूसरे धर्म से विद्वेष कर रहे हैं। ऐसा तब होता है, जब हम दृष्टि होते हुए भी यह नहींदेख पाते कि प्रत्येक धर्म परमसत्ता तक पहुंचने का माध्यम है। लेकिन अज्ञान के अंधकार के कारण हम यह नहींदेख पाते और उलझ कर गिर पड़ते हैं, यानी हमारा पतन हो जाता है। गुरु इस प्रकार के उजाले का सृजन करता है कि सभी वास्तविकताएं सुस्पष्ट दिखने लगती हैं और हमारे भीतर करुणा, प्रेम और शांति की भावनाएं उत्पन्न होने लगती हैं। शास्त्रों का रहस्य समझाने वाले को गुरु कहते हैं। वस्तुत: शास्त्रों में मानव के कल्याण के लिए जो बातें लिखी हैं, वे संकेत रूप में हैं। गुरु उन संकेतों को शिष्य को समझा देता है, जिसके कारण शिष्य के भीतर ज्ञान का उजाला फैलता है। एक श्लोक में धर्म का उपदेश देने वाले को गुरु कहा है। धर्म का अर्थ है, हम जिसे धारण या वहन करते हैं। हम स्वयं को, अपने परिवार को, देश को और पूरे विश्व को वहन करते हैं। उनके प्रति कर्तव्यों को वहन करते हैं। यही कर्तव्य हमारा धर्म हैं। जो इन कर्तव्यों का बोध कराता है, वह गुरु होता है।