( धर्मपुरा ) ( कहानी अंतिम क़िश्त)
( अब तक --धार्मिन ही बाजिन के बच्चों का देखभाल करती कुछ दिनों बाद तीनों बच्चे आकाश में उड़ने सक्षम हो गए)
अगले दस दिनों में तीनों बच्चे सक्षम हो गये आकाश में अपने मनमुताबिक उड़ने के लिए । हालाकि वे अभी एक बार में चार से पांच किमी से ज्यादा दूरी तक नहीं उड़ पाते थे । वे तीनों जब किसी पेड़ की सबसे उपरी डाली पर एक साथ बैठ जाते थे तो किसी और पक्षी की उस डाली पर बैठने की हिम्मत नहीं होती थी । अब वे अपने लिए दाना पानी का इंतजाम कर लेते थे , साथ ही वे अपनी माता जी के लिए भी दाना पानी लेकर आते और उन्हें खिलाते ।
एक दिन सुबह धर्मिन ऊन तीनों बच्चों को अपने पास बिठाकर कुछ समझाने लगी । वह उन्हें संबोधित करते हुए कहने लगी कि ऐ बच्चों शायद तुम मुझे अपनी माता समझती हो लेकिन बच्चों मैं तुम्हारी माता नहीं हुं । मैंने तो बस तुम्हें पाला पोसा और बड़ा किया है । तुम्हारी माता का नाम पूर्वी था । मैं और पूर्वी गहरे दोस्त थे । एक दूजे के बिन हम रह नहीं पाते । हम चौबीसों घंटे साथ साथ ही रहते थे । तुम्हारी माता को तुम तीनों के जन्म के बाद किसी सैयाद ने पकड़ लिया । और उसे पकड़ कर कहां ले गया नहीं मालूम । मुझे यह भी नहीं मालूम कि मेरी सबसे प्यारी सहेली पूर्वी ज़िन्दा भी है कि नहीं । उसके पकड़े जाने के बाद तुम तीनों की देखभाल की ज़िम्मेदारी मुझे निभानी पड़ी । फिर मैं इस गांव देवकर की निवासी नहीं हूं । मेरा गांव यहां से दस किमी दूर धमधा के पास है । उस गांव का नाम है *शंकरपुर* । मेरा कुनबा वहीं ही रहता है । मैं वहां पिछले देड़ महीनों से नहीं जा पायी हूं । अब मैं शायद ही वहां कभी जा पाऊंगी । मुझे यहां लाने वाली तुम्हारी माता ही थी । वह भी उसी शंकरपुर की निवासी थी । मैं उनके कांधों पर बैठकर देश विदेश का सैर करती थी । हम सुबह कहीं भी घूमने जाते थे पर शाम तक वापस अपने गांव शंकरपुर आ ही जाते थे । पर देड़ महीने पूर्व जब हम घूमने देवकर आये तो तुम्हारी माता को प्रसव पीड़ा प्रारंभ हो गई । तो हमने यहीं कुछ दिनों तक रहने का फ़ैसला कर लिया । उसके कुछ दिनों बाद तुम लोगों का जन्म हुआ । तुम लोगों के जन्म के कुछ दिनों के बाद तुम्हारी माता बहलियों की चंगुल में आ गई । उसे वे लोग पकड़कर कहां ले गये कोई नहीं जानता । तभी से मैं तुम लोगों के प्रति मातृ धर्म निभाते हुए अपनी दोस्ती का फ़र्ज़ भी निभा रही हूं । अब तुम लोग बड़े हो गये हो और अपनी ज़िन्दगी अपनी तरह से जीने के लिए स्वतंत्र हैं । अब मैं सोचती हूं कि वापस अपने गांव शंकरपुर चली जाऊं और अपने रिश्तेदारों के बीच ही अपनी बाक़ी ज़िन्दगी गुज़ारुं । लेकिन मुझे वहां तक घसीट घसीट कर जाने में महीनों लग जायेंगे । मैं तुम तीनों से बस इतनी अपेक्षा रखती हूं कि तुम तीनो बारी बारी से अपनी पीठ पर बिठा कर मुझे यहां से दस किमी दूर मेरे गांव शंकरपुर तक छोड़ आओ ।
धर्मिन की बात जैसे ही समाप्त हुई , तीनों बच्चों ने एक साथ कहा हे माते आपकी इच्छा हम लोगों के लिए आदेश से कम नहीं । यह हमारा कर्तव्य भी है कि हम अपनी माता की हर इच्छा पूरी करें । बताइये मातेश्री कि कब हमें शंकरपुर जाना है । तब उनकी माता धर्मिन ने कहा कि कल सुबह हम लोग चलेंगे । यह सुनकर सबने हां कहा । उस शाम को युधिष्ठिए, द्रोणाचार्य और परसुराम तीनों एक साथ घूमने निकल पड़े । उनका मुख़्य उदेश्य था कि एक बार शंकरपुर देख कर आयें ताकि कल किसी प्रकार की गफ़लत न हो । 15 मिन्टों में वे धमधा , बरहापुर होते हुए शंकरपुर पहुंच गये । फिर उन तीनों ने एक बार उस गांव के चारों ओर घूम कर गांव का जायजा लिया । उन्हें दूर से एक पेड़ के नीचे अपनी माता धर्मिन जैसे दिखने वाले माता जी के कुनबे के लोग दिखे । वे उस स्थान को व ग्राम देवकर से शंकरपुर के रास्ते को अपने दिमाग में बैठा कर वापस देवकर आ गये । और अपनी माता धर्मिन को बताया कि हम लोग आपने गांब शंकरपुर का रास्ता देख कर आ रहे हैं । यहां से हमें वहां जाने में मुश्किल से 20 मिन्ट्स लगे । अत: कल हम प्रात: 9 बजे भी निकलेंगे तो अधिकतम 9।30 तक शंकरपुर बड़ी आसानी से पहुंच जायेंगे ।
अगले दिन सुबह 9 बजे वे चारों देवकर से शंकरपुर जाने निकल पड़े । धर्मिन सर्वप्रथम अपने बड़े बेटे विशिष्ट के पीठ पर बैठ गई । वह चार किमी का सफ़र तो आसानी से कर लिया पर उसके बाद उसकी पीठ में दर्द बहुत दर्द होने लगा तो उसने द्रौण से कहा कि अब मां को तुम अपनी पीठ पर बैठा लो । अगले चार किमी की दूरी उनकी माता धर्मिन ने द्रौण की पीठ पर बैठ कर तय किया । अब आसमां से शंकरपुर के किनारों के खेत दिखने लगे थे । साथ ही शंकरपुर का बड़ा तालाब भी दिखाई देने लगा था । इन सबको देखकर धर्मिन के चेहरे पर अपने गांव पहुंचने की ख़ुशी दिखाई देने लगी थी । वह अंदर ही अंदर अपने गांव पहुंचने के लिए बहुत ही उत्साहित हो रही थी। साथ ही अपने कुनबे वालों से मिलने की ख़ुशी भी वह महसूस कर रही थी । इतनी दूरी तय करने के उपरान्त द्रौण भी थक गया । अत: अगले 2 किमी की दूरी तय करने अपनी माता धर्मिन को उन्होंने सबसे छोटे पुत्र परसुराम की पीठ पर बैठा दिया गया । हालाकि परसुराम के एक पैर में जन्मजात खराबी थी । पर वह बड़ा ही साहसी था साथ ही वह मन से बड़ा ही मजबूत था । एक बार उसने अपनी पीठ पर अपनी माता को बैठाया तो फिर वह अपनी माता के गांव शंकरपुर पहुंचकर ही दम लिया । गांव के उसी बरगद पेड़ पर उन सबने डेरा डाला , जिस पेड़ पर उनकी माता देवकर जाने के पूर्व रहती थी । वहां पहुंचते ही धर्मिन नीचे उतर गई और अपने तीनों बेटों को भी नीचे उतार कर अपने कुनबे वालों को इकट्ठा करके अपनी कहानी सुनाने लगी । उसके कुनबे के लोग उसकी कहानी बड़े ही ध्यान व आश्चर्य से सुनते रहे । अंत में धर्मिन ने अपने कुनबे वालों को बताया ये तीनों मेरे ही पुत्र हैं । अब ये तीनों संभवत: यहीं मेरे ही साथ रहेंगे । धर्मिन का इतना कहना था कि उसके कुनबे के कई सर्पों ने कहा । ये उचित नही है । पूर्वी की बात अलग थी । वो तुम्हारी गहरी दोस्त थी । इसलिए हमारे प्रति भी उसका नज़रिया दोस्ताना ही रहता था । उन्होंने कभी हमें नुकसान नहीं पहुंचाया । न ही नुकसान पहुंचाने के बारे में उसने कभी सोचा भी होगा । इन तीनों की कोई गारंटी नहीं ये हमें नुकसान नहीं पहुंचायेंगे । जवाब में धर्मिन ने कहा इनकी गारंटी मैं लेती हूं कि ये कभी भी आप लोगों को नुकसान पहुंचाने के बारे में सोचेंगे भी नहीं । पर धर्मिन के कुनबे वालों माने नहीं । तब धर्मिन के सबसे छोटे पुत्र परसुराम ने अपनी माता से कहा हे माते क्यूं आप इन अविश्वासी लोगों को मनाने पर तुली हो ? जब ये लोग मां और बेटों के रिश्तों का मतलब नहीं जानते तो इन्हें समझाने का कोई फ़ायदा नहीं होने वाला । अविश्वास की इस दीवार को अभी हम नहीं तोड़ सकते । समय आयेगा तो ये दीवार अपने आप ही ढह जायेगी ऐसी हमारी मान्यता है । माता हम तीनों वहीं देवकर वाले अपने पेड़ पर ही रहेंगे और आपसे मिलने रोज़ कम से कम एक बार यहां जरूर आयेंगे । इतना कहके विशिष्ट ,द्रौणाचार और परसुराम उड़ने की तैयारी करने लगे । सबसे आगे विशिष्ट , उसके पीछे द्रौण और अंत में परसु था । वे मुश्क़िल से दस फ़ीट तक ही उड़े रहेंगे कि उन्होंने देखा कि एक बहुत बड़ा सा बाज़ उड़ते हुए कहीं से आया और उसी पेड़ की डाली पर बैठ गया । फिर वह नीचे देखा और सांपों का झुन्ड देखकर उन्हें पकड़ने और अपना भोजन बनाने वह तेज़ी से नीचे गोता लगाया और एक सांप को अपनी चोंच में पकड़ कर उपर आकर पेड़ की सबसे उपर वाली डाली पर बैठ गया । दस फ़ीट की दूरी से उन तीनों को ये लगा कि उस बाज़ ने उनकी माता जी धर्मिन जी को ही पकड़ लिया है । ये देख वे तीनों गुस्से से भर गये और तीनों पलट्कर उस पेड़ पर उसी डाल में आकर बैठ गये जहां वह बड़ा बाज़ बैठा था । फिर वे तीनों उस बड़े बाज़ को ललकारने लगे । वे तीनों कहने लगे अरे दुष्ट बाज़ तुमने हमारी माता को पकड़ कर उसको नुकसान पहुंचाने की ज़ुर्र्ज़्त की है । तुमने अपनी मौत का खुद ही आव्हान कर लिया है । ये हमारी माता है । इन्हें तुरंत छोड़ दो वरना बेमौत मारे जाओगे । उन तीनों छोटे छोटे बाज़ोंको देख वह बड़ा बाज़ हंसने लगा और कहने लगा अरे मूर्खों सांपों और बाज़ों के बीच एक ही रिश्ता होता है । वो रिश्ता होता है दुश्मनी का । तुम लोग कैसे इस सर्प को मां कह रहे हो । मूर्खों चलो भागो यहां से वरना तुम तीनों को सदगति प्रदान करने मुझे 2 मिनट भी नहीं लगेंगे। मैं बाज़ों का राजा हूं । तुम जैसे सैकड़ों बाज़ों से मैं अकेले लड़ सकता हूं । चलो भागो यहां से । इतना सुनना था कि विशिष्ट पूरी ताक़त से जय बजरंग बली कहते हुए उस बड़े बाज़ की ओर लपका और उस बड़े बाज़ की गर्दन पर अपनी चोंच से प्रहार किया । विशिष्ट की प्रहार से बड़ा बाज़ एक मिनट के लिए तिलमिला गया । फिर उस बड़े बाज़ ने पूरी ताक़त लगाकर अपने पैरों से विशिष्ट पर वार किया । यह प्रहार इतना भयानक और ज़ोरदार थी कि चोट के लगते ही विशिष्ट के प्राण पखेरू उड़ गये । ये देख द्रौण तैयार हुआ और हर हर महादेव कहते हुए तेज़ी से उस बड़े बाज़ के पेट पर प्रहार किया । इस प्रहार से 1 मिनट के लिए बड़ा बाज़ चौंक गया। पर उसके चेहरे पर कोई दर्द का भाव नहीं था । उसे कोई फ़र्क पड़ता नज़र नहीं आया । फिर उस बड़े बाज़ ने अपने डैनों के प्रहार से द्रौणाचार का भी काम तमाम कर दिया ।
ये देख धर्मिन डर गई उसने परसु से कहा कि हे पुत्र ये मेरा आदेश है कि तुम यहां से तुरंत ही चले जाओ । इस बड़े बाज़ से लड़ो मत । इसने तुम्हारे 2 बड़े भाइयों को पहले ही मार डाला है । मैं नहीं चाहती कि तुम भी मारे जाओ । मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो । वैसे भी मैंने एक लंबी ज़िन्दगी जी ली है । तुम्हारा जीवन तो अभी शुरु हुआ है । फिर अगर तुम इस लड़ाई में वीरगति प्राप्त करोगे तो मेरे वंश की समाप्ति हो जायेगी । एक सर्प के मुंख से इन तीनों छोटे बाज़ों के मारे जाने से अपने वंश की समाप्ति हो जायेगी यह सुनकर उस बड़े बाज़ को बेहद आश्चर्य हुआ कि कैसे एक सांप अपने वंश को बाज़ों से जोड़ रही है । फिर वह कुटिलता से मुस्कुराने लगा । उधर परसुराम बेहद गुस्से से लाल हो चुका था। उसने अपनी माता धर्मिन से कहा बेटे के जीते जी और बेटे के सामने अगर कोई उसकी मां को नुकसान पहुंचाये तो कैसे वह बेटा सिर झुका कर वहां से ख़ामोशी से आगे बढ जायेगा । अगर कोई बेटा ऐसा कोई तरीका अपनाता है तो वह बेटा कहलाने के लायक नहीं । ऐसे बेटे पर दुनिया थू करेगी । मैं भी ऐसे बेटों पर थू करता हूं । मां जब तक मेरे तन में प्राण है। मैं इस दुष्ट बाज़ पर वार करता रहूंगा और साथ ही मां भवानी से प्रार्थना करता हूं कि मुझे कम से कम दस मिन्टों के लिए इतनी शक्ति प्रदान कर दे कि इस दुष्ट बाज़ को मौत के घाट उतार दूं । उसके बाद चाहे तो मां भवानी मेरे प्राण हर ले मुझे मंज़ूर है । इतना कहते हुए फिर मां भवानी , जय अंबे और जय मां काली कहते हुए वह उस बड़े बाज़ की ओर पूरी शक्ति से झपटा । जैसे ही धर्मिन का छोटा पुत्र परसुराम उस बड़े बाज़ की ओर हुंकार भरता हुआ झपटा, उतने में ही वहां एक धमाका हुआ और उसके बाद वह स्थान पूरी तरह से गुलाबी रौशनी से नहा गया । जिससे वहां उपस्थित सभी लोगों की आंखें चौन्धिया गईं । और दो मिन्टों के बाद जब आंखे देखने लायक हुईं तो धर्मिन और परसुराम ने देखा कि बड़े बाज़ की जगह वहां पर भगवान विष्णु खड़े थे । उन्होंने परसु को अपनी गोद में बिठाया और कहने लगे हे पुत्र मैं तुम लोगों की मातृ प्रेम से बेहद प्रभावित हूं । तुम तीनों यह जानते हुए भी मौत निश्चित है , अपने कर्तव्य से डिगे नहीं । ये बहुत बड़ी बात है । अपनी माता की रक्षा करने तुम लोगों ने जो जज़्बा दिखाया है वह वंदनीय है । जाओ मैं तुम्हारी माता को आज़ाद करता हूं और तुम्हारे दोनों भाइयों को ज़िन्दा करता हूं । मैं तो सिर्फ़ तुम लोगों की मातृ प्रेम की परीक्षा ले रहा था । मैं तुम तीनों को् दीर्घायु होने का वरदान देता हूं । साथ ही यह वरदान भी देता हूं कि तुम लोगों का नाम इस गांव में अनंत काल तक स्थापित रहेगा । यहां के लोग तुम तीनों की वीर गाथा सदा गाते रहेंगे । आज से इस गांव का नाम शंकरपुर की जगह तुम्हारी दोनों माता धर्मी और पूर्वी के नाम से होगा । आज से मैं इस गांव को एक नया नाम देता हूं धर्मपुरी । कुछ दिनों के अंदर यहां एक भव्य मंदिर का निर्माण होगा । जिसके अंदर नाग देवता की मूर्ति स्थापित होगी और मंदिर के बाहर द्वारपाल के रुप में बाज़ों की मूर्तियां स्थापित होंगी । इस गांव को एक और वरदान प्राप्त होगा कि यहां के नाग- नागिनों की सुरक्षा बाज़ ही करेंगे । ये भारत वर्ष का अकेला ऐसा गांव होगा । जहां बाज़ और सर्प मिलजुलकर दोस्त व रिश्तेदारों की तरह रहेंगे । यहां के निवासी भी नाग नागिन व बाज़ों की पूजा करेंगे और नाग नागिन भी उन्हें कभी भी नुकसान नहीं पहुंचायेंगे ।
भगवान विष्णु के इतना कहते ही परसुराम के दोनों भाई विशिष्ट व द्रोणाचार्य ज़िन्दा हो गये और भगवान विष्णु अंतरध्यान हो गये । तीनों भाई और उनकी माता धरमी आपस में गले मिलकर अपनी ख़ुशी का इज़हार करने लगे । इसके साथ ही भगवान विष्णु को धन्यवाद देते रहे । इसके बाद तो तीनों भाई विशिष्ट , द्रोण व परसुराम ने धरमपुरी छोड़कर कहीं और जाने का इरादा त्याग दिया । और वहां के सापों ने भी उनका विरोध करना छोड़ दिया । धमधा तहसील के बहुत से अन्य गांव के लोग अक्सर यह कहते हुए आपको मिल जायेंगे कि वे जब भी धर्मपुरी गांव से गुज़रते हैं तो उन्हें वहां के बड़े से बरगद की उपरी डाली में तीन बाज़ बैठे दिखते हैं। साथ ही उस बरगद के नीचे बहुत सारे नाग नागिन भी विचरण करते नज़र आ ही जाते हैं ।
समय के साथ ग्राम धर्मपुरी को लोग किस कारण से धर्मपुरा कहने लगे ये तो मालूम नहीं । लेकिन सारे धमधा इलाके में ग्राम धर्मपुरा का नाम लोग बड़ी ही इज़्ज़त से लेते है। वहां पिछले लंबे समय से शिवरात्रि के दिन एक बड़ा सा मेला लगता है । उस दिन वहां बाज़ों की दौड़ की प्रतियोगिता होती है । जो बाज़ इस प्रतियोगीता में प्रथम आता है उसे उस गांव में जीवन भर रहने हेतु आश्रय मिलता है । साथ ही उन्हें गांव में स्थित नाग मंदिर में कभी भी आने जाने की छूट भी मिलती है ।
( समाप्त)