( धर्मपुरा ) दूसरी क़िश्त।
( अब तक -- पूर्वी बेहोश थी इसलिये धार्मिन रात भर फनउठाकर उन तीन अंडों की रक्षा करने लगी जिसे पूर्वी ने जन्म दिया था)
सुबह जब पूर्वी की नींद खुली तो उसके चेहरे पर ताज़गी नज़र आई । अब उसे दर्द या अन्य कोई तकलीफ़ नहीं हो रही थी । उसने धर्मिन से कहा कि तुम इन अंडों की देखभाल करो , रक्षा करो । मैं 15 मिन्टों में अपना भोजन चुगकर और कुछ भोज्य पदार्थ ज़माकर यहां लाती हूं । धर्मिन ने कहा कि तुम अंडों की तरफ़ से बेफ़िक्र रहो । मेरे जीते जी किसी कि भी मजाल नहीं हो सकती कि वो अंडों की तरफ़ तिरछी नज़र से भी देखे। जो ऐसा काम करने की सोचेगा उसे अपने प्राण गंवाना पड़ेंगे। ये तुम्हें तुम्हारी सहेली धर्मिन नागिन का वादा है । इतना सुनकर पूर्वी बहुत ख़ुश हुई । फिर वह अपने भोजन की तलाश में निकल गई । धर्मिन अंडों की रक्षा में सजग बैठी रही । समय गुज़रता रहा आधे घंटे , एक घंटा , फिर दो घंटा बीत गया पर पूर्वी वापस नहीं आई तो धर्मिन फ़िक्रमंद हो गई । वह सोचने लगी आखिर इतनी देरी क्यूं ? देखते देखते चार घंटे गुज़र गये पर पूर्वी के नामो-निशान नज़र नहीं आये । अब धर्मिन को डर सताने लगा कि कहीं पूर्वी के साथ कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई है । वह पेड़ से उतर कर कुछ पता लगाने की कोशिश की पर उसकी मेहनत का कोई परिणाम नही मिला । उसे कहीं से भी पूर्वी की कोई जानकारी हासिल नहीं हुई । उसे नीचे जाने से यह पता चला कि इस गांव में पिछले दो दिनों से बहलियों की एक टोली आई है । वे लोग अलग अलग जगह ज़ाल बिछा कर परिन्दों को पकड़ कर अपने साथ ले जा रहे हैं । इस गांव के अधिकान्श परिन्दे उनकी गिरफ़्त में आ गये हैं । अब उनके साथ क्या सलूक वे करेंगे ये तो वे ही जानें ? ये सुनकर धर्मिन बेहद घबरा गई और उसका दिल भर आया । वह सोचने लगी कि यह कैसी ज्यादती है कि एक मातृशक्ति को दुनियावाले उसके होने वाले बच्चों से जुदा करना चाहते हैं । क्या हम जन्तुओं को इस जग में जीने का अधिकार नहीं है ? क्या इस संसार को भगवान ने सिर्फ़ इंसानों के लिए बनाया है ? अब कौन उन अंडों को संभाल पायेगा और कौन छोटे बच्चों को पाल पोसकर बड़ा करेगा ? फिर धर्मिन ने दिल को कड़ा करके प्रण लिया कि अंडों व बच्चों की सारी जिम्मेदारियां मैं उठाऊंगी । आखिर मेरे अंदर भी ममता की नदी का प्रवाह तो है । भले मैंने प्रसव के दर्द को नहीं जाना पर बच्चों के प्रति प्यार मुहब्बत की भावनाएं तो मेरे अंदर भी बहुत हैं । चाहे कुछ भी हो जाये अपनी सबसे प्यारी सहेली के बच्चों को बचाना और बड़ा करना अब मेरी जिम्मेदारी है । मेरा कर्तव्य है । क्या मुझे दोस्ती के फ़र्ज़ को नहीं निभाना चाहिए ? क्या मैं ख़ुदगर्ज़ बनकर अपनी सहेली की अमानत को खतरे में छोड़कर यहां से दूर चली जाऊं ? फिर वह भगवान शिव को याद करते हुए प्रार्थना करने लगी कि हे भगवान मुझे इतनी शक्ति प्र्दान करें कि मैं अपनी सहेली पूर्वी के अंडों और बच्चों को बचा सकूं और फिर बच्चों को बड़ा कर सकूं ताकि वे अपनी टांगों पर खड़ा हो सकें । वे बड़े हो जाये तो मैं उन्हें अपनी ज़िन्दगी अपने हिसाब से जीने के लिए स्वतंत्र कर दूंगी । आखिर देड़ दो महीनों की ही तो बात है । बस क्या था वह वापस उस पेड़ पर चढकर अंडों की सुरक्षा में बैठ गई और अंडों को अपने शरी से ढंक कर उन्हें गर्मी प्रदान करने लगी । वह प्रति दिन इसी तरह लगभग 20/ 22 घंटे अंडों के पास बैठी रहती और कुछ समय के लिए ही भोजन की तलाश में पेड़ से नीचे उतरती । बहुत कम समय में ही वह अपना पेट भरती और पूर्वी के आने वाले बच्चों के लिए खाद्य प्रदार्थ एकत्रित करती । इस तरह एक प्रकार की तपस्या करते हुए कुछ दिन गुज़र गये । अब उसे लगने लगा कि बच्चे अंडों से जल्द ही बाहर आने वाले हैं । अब तो उसने नीचे जाना भी छोड़ दिया । और बहुत ही सतर्कता से अंडों के चारों ओर अपने शरीर को फ़ैला कर बैठे रहती । वह थोड़ी देर के लिए भी वहां से हटती नहीं थी । साथ ही उस पेड़ पर ज़रा भी आहट का एहसास होने पर वह इतनी ज़ोर व तेज़ी से फ़ुफ़कारती थी कि कोई दुश्मन आसपास हो तो डर कर भाग जाये ।
11वें दिन पहला बच्चा अंडा से बाहर आया , और बाहर आते ही धर्मिन के शरीर से लिपट कर खेलने लगा । धर्मिन ने उसे बड़े ही प्यार से सहलाया और उसका नाम दिया विशिष्ट । अगले 2 दिनों में और दो बच्चे अंडे फ़ोड़कर बाहर आ गये । उसमें से जो पहले आया उसका नाम धर्मिन ने द्रोणाचार्य और जो सबसे आखिरी में आया यानी जो सबसे छोटा बच्चा था उसना नाम दिया परषु राम । तीनों बच्चों के दुनिया में सही सलामत ,आने से धर्मिन बहुत ख़ुश हुई । बच्चों के सुरक्षित बाहर आने से धर्मिन को बहुत ही सतुष्टि मिली । उसे लगा कि उसका आधा फ़र्ज़ तो पूरा हो गया है । अब वह बड़े ही जतन से उन बच्चों को अपने द्वारा इकट्ठे किये गय उनके भोज्य पदार्थ को उनके मुंह में डालने लगी ताकि बच्चे भूखे न मर जायें । बच्चे भी धर्मिन के साथ अपने आप को सुरक्षित महसूस करने लगे । उनका पेट जब भर जाता तो वे आपस में खेलने लगते । वे कभी कभी धर्मिन को भी तंग करते थे । वे कभी धर्मिन के सर पर बैठ जाते तो कभी उसकी पूंछ पर चिकोटी काटते। उनकी बाल्य क्रिया को देखकर धर्मिन भी बहुत ख़ुश होती । लेकिन जब बच्चे सो जाते तब उसे पूर्वी की बड़ी याद आती थी । उसका मन कभी सोचता था कि आखिर पूर्वी अभी कहां होगी ? वह ज़िन्दा भी है या नहीं । इस तरह धीरे धीरे 1 महीना बीत गया । अब बच्चे बड़े दिखने लगेए । उनके पंखों में भी जान आने लगी । वे शरीर से भी कुछ मजबूत दिखने लगे थे । वे अब डालियों पर फ़ुदकते भी थे और आस पास के पेड़ों तक उड़ने भी लगे थे । वे जब भी दूसरे पेड़ों की तरफ़ उड़ते हुए जाते तो भी लगातार धर्मिन की ओर देखते रहते । और वे हर दस मिन्टों में वापस आकर धर्मिन को अपना चेहरा दिखाते । उसके बाद फिर दस मिन्टों के लिए उड़ने चले जाते । वे तीनों बच्चे अब धर्मिन को ही अपनी माता समझने लगे थे । इधर धर्मिन भी उन तीनों को अपना ही पुत्र मानने लगी थी । उन तीनों पुत्रों में सबसे बड़ा विशिष्ट और दूसरा नंबर का पुत्र द्रोणाचार्य की कद काठी बुलंद थी । वहीं सबसे छोटे पुत्र परषुराम शरीर से ज़रा कमज़ोर था । उसके एक पैर में जन्मजात कोई समस्या थी जिसके कारण वह थोड़ा लंगड़ा कर चलता था ।
अगले दस दिनों में तीनों बच्चे सक्षम हो गये ।
( क्रमशः )