हे माँ, तुझे समर्पण ...
विरानियत की खोज में, मैं चल पड़ा एक दिन,
अंधकार की मदहोशी में, पहचान ना पाया कोई चिन्ह,
मैं चला सीधा आगे, क़दम मेरे नहीं लड़खड़ाय,
दूर देखा मैंने, एक नारी बैठी शिव मुद्राएँ,
थोड़ा सोचा, फिर पहुँच गया उसके पास,
मानो मुझे, एक जन्नत का हुआ एहसास,
वो चेहरे की चंद्रमा, वो लहराती ज़ुल्फ़ें,
एक कशिश थी पाक उन्मे,
थका मैं, बैठ गया पैरों तल,
एक उम्मीद जागी, पाना था कोई फल,
हवा का झौंका, रूप बदल आया मेरे पास,
कहा उसने, कौन हो मुसाफ़िर, क्या है तेरी आस,
असमंजस की उँगली पकड़, मैं देखा हैरान,
लगा सब अचानक अपना, नहीं कोई मेहमान,
उठ खड़ा हुआ, नाथ मस्तक कर आगे,
एक उजाला का हुआ प्रतीक, मेरा वो क्या लागे,
सूर्य की तरंग, हुई तेज़ और अलंकृत,
चरो तरफ़, जीवन हुए पुलकित,
पंछियों का चहचहाना, पत्तों का लहराना,
सब कुछ था रोशन, ना कोई बहाना,
देवी ने आँखें खोली, लगा मुझे मिला सौभाग्य,
मेरी आँखें हुई बंध, मिला जैसे मुझे आराध्य,
हवा जो चला था पुण्य, रुक गया एक दम,
पंछियों की उड़ान भी गयी थम,
मेरा मन भी, रुक गया वही पल,
महसूस हुआ, पाओं तले, सरक गया थल,
मेरी रोशनी, कुछ वापस आयी,
आँखें खोली, देखा, खड़ी थी मायी,
लम्बे घने लहराते बाल, हाथों में सुनहरी थाल,
एक तरफ़ सौंदर्य आशीष, दूजे तरफ़ महाकाल,
माँ ने, मुस्कुरा कर पूछा, कौन हो तुम,
क्यूँ भटक गए हो, राह गुम-सुम,
समय नहीं आया है तुम्हारा,
जाओ अभी, वक़्त के साथ लो नज़ारा,
उम्मीदों के सागर, में डुबकी लगाओ,
उम्र खड़ी है आगे, मात मत खाओ,
मुझे अब जाना है, उनके पास, जिन्हें कुछ पाना है,
कई सालों की मुद्दत बाद, मेरे लिए परोसा खाना है,
ऐ मुसाफ़िर, तेरी भी रोट, हो गयी है ठंडी,
जाते समय, हो कर जाना मंडी,
तेरी बहु, इन्तज़ार में है आलू के,
संग ले जाना कुछ फूल और बेल पत्ते,
फूलों से सजाना उसके रेशम बाल,
बेल पत्तों से करना मेरे रूद्र का श्रिंगार....
बेल पत्तों से करना मेरे रूद्र का श्रिंगार...
डॉक्टर सुमन्त पोद्दार
दुर्गा पूजा / 28.9.19