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क़ुरबानी तो लगती है रोज़ अरमानो की,...

29 मई 2020

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क़ुरबानी तो लगती है रोज़ अरमानो की,...


क़ुरबानी तो लगती है रोज़ अरमानो की,

सफ़र का क़ाफ़िला, कम या ज़्यादा,

एहसासों का भी होता है बलिदान,

सब काल्पनिक, रहती नहीं कोई मर्यादा,


उसी दौर से, गुज़र रहें हैं सब हम,

गुनाहों का कारवाँ, होता है मुकर्रम,

रंग भी यहाँ, बेरंग भी यहाँ,

चुनना है हमें, किसे भरें हम, कब और कहाँ,


काँच के आइने, दिखाते सब नहीं,

ज़िंदगी करती वही, उसे जो लगे सही,

मोहरे हैं हम, अल्फ़ाज़ों के, जो कभी हैं निखरते,

होते कभी इधर, तो कभी उधर बिखरते,


एक ऊँचाई को खोजते हैं पाने की,

सफ़र में, चढ़तें हैं सीढ़ियां ज़माने की,

कभी गिरते हैं, तो कभी फिसलते भी यहीं,

क़दमों को, मगर रोक सकते नहीं,


कैसी अनुभूति, होती है इस रंजिश में,

जहाँ मन कहे कुछ और दिल करे सब कुछ,

टूट जाता है इंसान, अपने विचारों के साथ,

कुछ बढ़ भी जाते हैं, अपने हालातों के साथ,

समय तकल्लुफ़ ना करें हम,

अपना लें, ज़िंदगी को, कुछ ज़्यादा कुछ कम,


क़ुरबानी तो लगती है रोज़ अरमानो की,

सफ़र का क़ाफ़िला, कम या ज़्यादा,

एहसासों का भी होता है बलिदान,

सब काल्पनिक, रहती नहीं कोई मर्यादा,


क़ुरबानी तो लगती है रोज़ अरमानो की,....



सुमंत पोद्दार

1210pm / 5.10.19



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