हिमालय की छत्रछाया में
- पूनम महाजन ( उत्तर मध्य मुंबई लोकसभा सांसद की कलम से )
अनुवाद - संजय अमान
बापजी चले गए आज फिर एक बार मेरे सर से पिता का साया उठ गया। एकदम अकल्पनीय दुख का दूसरा आघात आज मुझ पर हुआ है।
मेरा मन एक पल में भूतकाल में चला गया। भाजपा की स्थापना और मेरा जन्म एक ही वर्ष १९८० का. मुझे समझ मे आने के पहले से ही बाबा दिल्ली में पार्टी का काम करते थे। मेरे लिए "कमल का फूल" का मतलब अटलजी और अडवाणीजी. हम उन्हें बापजी और दादा कहते थे. हमारे लिए भाजपा एक परिवार ही थी। बापजी और दादा इस परिवार के लिए पितृतूल्य व्यक्तित्व. बापजी हमारे परिवार के पीछे हमेशा मजबूती से खड़े रहे। बाबा के निधन के बाद महाजन परिवार ने अनेक दुःख देखे। दुर्दैव से इस दौरान सिर्फ बापजी का आश्वस्त करनेवाला करोडो भारतीयों के दिल पर अधिराज्य करने वाली धीरगंभीर आवाज शांत थी, यह भी सिर्फ उनकी तबियत खराब रहने की वजह से। पर उनका आधार हमेशा ही गुंजायमान था, पर आज उनका आधार हमेशा हमेशा के लिए टूट गया है। वैसे बापजी से जुड़ी मेरे एकदम बचपन की स्मृतियां तो धूमिल है। पर जो याद है वे 90 के दशक की है। तब मैं यही कोई 14- 15 साल की रही होउंगी। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में अटलजीं के नाम की घोषणा हो गई थी। भाजपा का मुंबई में राष्ट्रीय अधिवेशन मुंबई में था और इस अधिवेशन में मुझें अपने साथ ले गए थे।. बाबा ने इस अधिवेशन में अति आत्मविश्वास पूर्ण एक घोषणा की की "रेसकोर्स से निकला अटलजी का अश्वमेध अश्व अब ७ रेसकोर्स रोड़ पर ही जाकर रुकेगा " उस समय अधिवेशन में तालियों की गड़गड़ाहट जो शुरू हुई वह् बहुत देर बाद ही रुकी। लिहाजा बापजी के प्रति मेरी धारणा और भी मजबूत हो गई। १९९६ में केंद्र में भाजपा की सरकार आई. १३ दिन अटलजी प्रधानमंत्री रहे. पर बहुत न होने के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। उस समय बाबा की आखों में आए आंसू आज भी मुझे याद हैं। उसके बाद के समय मे बाबा द्वारा अटलजी की सरकार बनाने के लिए किए गए प्रयास, उसके लिए बापजी के साथ हुई चर्चा, इस दौरान हुए विवाद आदि सब कुछ मेरी आँखों के सामने आ रहे हैं। दरअसल भाजपा एक प्लॅटफॉर्म थी. सभी का सभी से बोलना होता था, चर्चा होती थी. मैंने बाबा को अटलजी के साथ हल्की फुल्की गपशप करते हुए भी देखा है और गंभीर विषयों पर विचारो का आदान प्रदान करते हुए भी। कभी कभी बाबा आवेश में आकर कुछ करते और सबकुछ सुनने के बाद बापजी सिर्फ इतना ही कहते 'प्रमोद"। बाबा क्या कह रहे हैं उन्होंने उसे समझ लिया, इसका यही मतलब होता था। दरअसल दोनों में एक अलग किस्म का ऋणानुबंध था।
सन 1999 में एनडीए की स्थिर सरकार आई. एक परिवार की तरह हमारा बापजी के घर आना जाना होता था। प्रधानमंत्री निवास में जाना हमारे लिए ननिहाल जाने जैसा होता था। गुन्नो दीदी (अटलजी की मानस पुत्री) बाबा की राखीबन्द बहन थी। एक बार दिवाली में बाबा ने मुझें मिठाई का डिब्बा लेकर बापजी के पास भेजा। मैं गई और मैंने बापजी के हाथ मे डिब्बा दिया। तब उन्होंने पूछा कि इसमें क्या है? मैंने बोल दिया कि इसमें दिवाली की मिठाई है। बापजी ने डिब्बे में हाथ डाला। उसमे से चकली निकालकर मेरी तरफ देखते हुए हंसते हुए शुद्ध मराठी में बोले "चकली मीठी नहीं होती." भाषा पर उनका प्रभुत्व देखकर मुझे बेहद आश्चर्य हुआ।
अटलजी ७ रेसकोर्स रोड स्थित प्रधानमंत्री निवास में रहने के लिए गए. वे ७, सफदरजंग मार्ग के जिस बंगले में रहते थे, उसे उन्होंने आग्रह पूर्वक बाबा को लेने के लिए कहा। वह् बंगला और उसमे का बापजी का सामान उनकी की विरासत थी. अटलजी चूंकि महान शिवभक्त थे लिहाजा वे रोज जिसकी पूजा करते थे वह् शिवलिंग बंगले में था. बाबां ने वहां पर उस शिवलिंग का मंदिर वहीं बनाया। बाबा तो बंगले के सामान बदलने के लिए कतई तैयार ही नहीं हुए। बापजी की वहां पर एक गोल लकड़ी की टेबल थी। चूंकि वह् टेबल पुरानी थी लिहाजा मां का आग्रह था कि उसे बदल दिया जाए पर बाबा ने टेबल बदलने से साफ इंकार कर दिया. इसी टेबल के पास बैठकर अनेक राजनैतिक फैसले लिए गए थे। इसी टेबल के पीछे बैठकर देश के लिए अभिमान करने वाला पोखरण परमाणु विस्फोट का भी फैसला लिया गया था। हमारे वहां पर रहने लगने के बाद भी बापजी के परिवार के लोग वहां पर लगातार आते रहते थे। बापजी की मानस पुत्री की लड़की नेहा के प्रिय बिल्ली के निधन के बाद इसी घर के आंगन में दफनाए गए थे। उनपर पुष्प अर्पित करने के लिए नेहा वहां पर हमेशा आती थी।.
अटलजी से मेरी आखिरी मुलाकात उनके सहस्रचंद्र दर्शन समारोह में १४ जनवरी २००६ में हुई थी। बाबा इस कार्यक्रम के मेजबान थे। उस समय बाबा की हालत यह थी कि क्या करूँ और क्या न करूं। अटलजी की पसंदीदा हर चीज बाबा ने खुद अपनी निगरानी में बनवाई थी। देश भर से सभी दलों के नेता इस अजातशत्रु नेता को शुभकामनाएं देने के लिए पधारे। पंडित जसराज अटलजी के पसंदीदा गायक. उनके सुरों की महफ़िल में बापजी खो गए थे. तब मैं वहाँ अपने दो साल के बच्चे आद्य को भी लेकर आई थी। मैंने बापजी से उसे आशीर्वाद देने का निवेदन किया। बापजी उसे कंधे पर बिठा कर बहुत देर तक खेलते रहे। इससे ज्यादा क्या चाहिए मुझे ?
अटलजी अडवाणीजी के साथ के ऐसे कितने ही अविस्मरणीय क्षण मेरी पूंजी हैं. बाबा के पिता उनके बचपन मे ही चल बसे थे, अटलजी और अडवाणीजी ने बाबा पर बच्चे सरीखा प्रेम बरसाया इससे बाबा को कभी भी आपने पिता के न रहने का दुख ही नहीं हुआ. हरेक मौके पर वे मां और बाबा के पीछे मजबूती से खड़े रहे। मेरे लिए उस समय बापजी और दादा का मतलब ही भाजपा, संघपरिवार था. रजत जयंती अधिवेशन में राजनीति से निवृत्ति की घोषणा करते हुए अटल जी ने भाजपा के आगामी नेतृत्व के लिए लक्ष्मण के रूप में सम्मान किया। उस समय शिवाजी पार्क पर उपस्थित हरेक इंसान की आंखे आंसुओ से भर आईं थी। यह एक निष्काम कर्मयोद्धा का स्थायी शस्त्रसन्यास लेने जैसा था। इसके बाद साल भर के भीतर ही बाबा का निधन हो गया। उस समय बोलते हुए वे बोले थे कि बादल न होते हुए भी विजली की गड़गड़ाहट हुई है और लक्ष्मण चला गया। और आज बाप जी रूपी के धीर -गंभीर हिमालय की आवाज़ हमेशा के लिए शांत हो गया मेरे बाबा को गए १२ वर्ष हो गए है, खुद हाज़िर नहीं रह सकते थे फिर भी बाप जी हमारे लिए आधारस्तम्भ थे। पिछले १२ वर्षो से महाजन परिवार को अपने अपने पंखो के छाया में सँभालने वाले गरुड आज हमेशा के लिए शांत हो गए। आज मैं फिर से अपने आपको अनाथ महसूस कर रही हूँ।
१९५२ वर्ष में जनसंघ के स्थापन दिन से २००५ में राजसंयास लेने तक कई अंधी तूफ़ान अपने ऊपर लेकर कई घाव झेलते हुए भाजपा परिवार की छाँव बने हुए ये हिमालय जैसे भारत रत्न अटलबिहारी वाजपेयी नामक महान शिखर आज शांत हो गए। इस महान शिखर की शीतलछाया मात्र भाजपा के ऊपर हमेशा क़ायम रहेगी।