( रिश्तों का सच ) कहानी पहली किश्त
शंकर प्रसाद अग्रवाल अब 45 वर्ष के हो चुके हैं । भिलाई शहर के पावर हाउस इलाके में उनकी हार्ड वेयर की बड़ी दुकान है । उनका व्यापार का दायरा बहुत ही बड़ा है । उनकी कमाई करोड़ों में होती है। नेहरुनगर भिलाई में उनका आलिशान बंगला है । वे सुबह लगभग 10 बजे घर से दुकान के लिए निकल जाते और रात साढे नौ बजे तक ही वापस घर आ पाते थे । उनके पुराने दोस्त जो उनके साथ स्कूल से कालेज तक की पढाई की थी बताते थे कि शंकर अग्रवाल अपने कालेज लाइफ़ में बड़े ही उच्चशृंखल स्वभाव के थे । उस समय उनमें बहुत सारे ऐब थे। कालेज के ज़माने में वे लड़कियों से दोस्ती करने में सबसे अव्वल रहते थे । अलग अलग समय में उनकी दोस्ती अलग अलग लड़कियों से थी ।वे कालेज लाइफ़ में बिना घर में बताये कभी कभी 10/15 दिनों तक गायब रहते थे । वे उस समय कहां रहते थे और क्या करते थे ये तो केवल वही जानते थे ?
कालेज की पढाई समाप्त करके कुछ वर्ष वे आवारगी की हवा में बहते रहे । उसके बाद जब पैसा कमाने की धुन सर पे सवार हुई तो वे 30 वर्ष की उम्र में व्यापार करने हेतु प्रयास करने लगे । 2 से 3 बार उन्हें अपने व्यापार में असफ़लता का मु:ख देखना पड़ा । तब उन्हें अपने माता पिता से कड़वी बातें भी सुननी पड़ी । उनके माता पिता ने उसे अंतिम बार यह कह कर पावर हाउस में दुकान खुलवा कर दी कि अगर यह काम तुम्हारा फ़ेल हुआ तो फिर हमसे कोई और उम्मीद मत रखना । उसके बाद से शंकर अग्रवाल जी ने मन ही मन सोच लिया था कि अपने इस काम को बड़ी ही गंभीरता , होशियारी व लगन से करुंगा। दो साल में ही उनकी ये नई दुकान अच्छे से चलने लगी । समय गुज़रता गया शंकर जी का व्यापार बढता ही गया और वे अपने काम धंधे में इतना व्यस्त रहने लगे कि शादी विवाह के बारे वे सोचते ही नहीं थे । उनके बड़े भाई शिव अग्रवाल जी सुपेला में किराना की दुकान चलाते थे । सुपेला में ही उन्होंने अपना घर बनवा लिया था ।
कुछ बरस गुज़र गये । इस बीच शंकर के माता पिता अपने छोटी बहू को देखने की लालसा लिए ही स्वर्ग सिधार गये । अब शंकर जी घर में अकेले ही रह गए थे । वैसे अपने बड़े भाई से व उनके परिवार से उनका संबंध बहुत ही अच्छा था । लोगों का दबाव बढा था तो 40साल की उम्र में उन्होंने बलौदाबाज़ार के नंदनी अग्रवाल जी से विवाह कर लिया । यह विवाह पूरी तरह से सामाजिक दायरे में हुआ ।
शंकर और नंदनी जी का विवाह हुए 5 बरस गुजर गये पर उन्हें पुत्र या पुत्री धन की प्राप्ति नहीं हुई । उन्होंने अपना इलाज भी बहुत सारे चिकित्सकों से कराया साथ ही झाड़ फ़ूंक भी कराया और घर में यज्ञ भी कराया पर नतीज़ा सिफ़र ही रहा । अब उन्होंने किसी पुत्र पुत्री की प्राप्ति की आशा छोड़ दिए थे । अब वे दोनों सामाजिक कार्य में भी रुचि लेने लगे थे ।
दिसंबर एक की ठंडी रात। चारों तरफ़ सन्नाटा पसरा था । लोग अपने अपने घर में रजाई ओढकर गहरी नींद में सो रहे थे । रात के 2 बजे के लगभग शंकर अग्रवाल के घर के सामने एक जीप आकर रुकी । जीप से 5 व्यक्ति उतरे और चौकीदार को धमकाते हुए उसके हाथ पैर बांध दिये। फिर उनमें से चार व्यक्ति उपर जाकर शंकर अग्रवाल के बेड रुम में घुस गए । फिर उन लोगों ने शंकर अग्रवाल और उनकी पत्नी नंदनी जी को धमकाते हुए उनके घर के आलमारी की चाबी ले लिए । फिर आलमारी के लाकर से बहुत सारा पैसा निकालकर जल्द ही वहां से छूमंतर ओ गए ।
उन लुटेरों के जाने के लगभग घंटे भर बाद शंकर जी और उनकी पत्नी सन्नीपात की स्थिति से उभर पाए । तब उन्होंने पोलिस और अपने रिश्तेदारों को उनके घर में हुई घटना के बारे में सूचना दी । शंकर जी ने अपनी आलमारी का जायजा लिया तो उन्हें पता चला कि लुटेरों ने लाकर से लगभग 5 लाख रुपिए निकालकर ले गये । जबकि वहीं कुछ सोने के गहने और पांच लाख रुपिए और रखे थे । जिन्हें पता नहीं क्यूं लुटेरों ने हाथ भी नहीं लगाया था । पोलिस वाले आये तो सारे घर का जायजा लेकर और पूछताछ करके वहां से घंटे भर के अंदर चले यह कहते हुए चले गये कि लुटेरों को बहुत जल्द ही पकड़ लिया जायेगा ।
उधर शंकर जी के बड़े भाई भी वहां पहुंच गये और सारी बातों को सुनने के बाद कहा कि इस लूट की ज्यादा चिंता मत करो । आगे से अपने घर में सेक्यूरिटी बढा लो ।
पन्द्रह दिन गुज़र गए पर पोलिस वालों के हाथ कुछ नहीं आया । उधर शंकर अग्रवाल जी को लग रहा था कि उनके घर में डकैती किसी पहचान वाले लोगों ने ही की थी । एक खास बात जो उनके मन को साल रही थी कि उन डकैतों न ही घर में तोड़ फ़ोड़ की थी न ही किसी सदस्य को नुकसान पहुंचाया था । साथ ही सिर्फ़ पांच लाख रुपिए ही ले गये थे जबकि घर में और भी बहुत सारे पैसे व गहने आंखों के सामने थे। पर उन्हें उन डकैतों ने हाथ भी नहीं लगाया था । कभी कभी अकेले में जब शंकर अग्र्वाल जी उस घटना को याद करते थे तो उन्हें लगता था कि उन चारों डकैतों में एक डकैत की आवाज़ उन्हें जानी पहचानी लगती थी । पर वे समझ नहीं पा रहे थे कि वह आवाज़ किसकी हो सकती थी ।
समय गुज़रता गया । शंकर जी उस डकैती की घटना को भूलने लगे थे । हां उन्होंने घर की सुरक्षा हेतु रात्री पाली में 2 चौकीदार और बढा लिए थे । साथ ही उन्होंने घर में दो जर्मन शेफ़र्ड डाग्स भी रख लिये थे ।
एक दिन वे अपनी दुकान में दोपहर लगभग 3 बजे के आसपास खाली बैठे थे कि उनका भतीजा गणेश अग्रवाल उनकी दुकान पर आयाऔर वह शंकर जी से एक ज़रूरी काम के लिए 5 हज़ार रुपिए मांगने लगा । गणेश उनके बड़े भाई शिव अग्रवाल जी का पुत्र था । गणेश बी.ई.करने के बाद खुद का काम करने लगा था । उसके पास 3 जेसीबी व 2 क्रेनें थीं । जिन्हें वह किराये पर दिया करता था । जिससे उसकी अच्छी खासी आमदनी हो जाती थी । शंकर ने बिना हिचके व बिना कुछ ज्यादा पूछे अपने भतीजे गणेश को पांच हजार रुपिए दे दिए । गणेश उन्हें धन्यवाद देते हुए यह कहते हुए उनसे विदा लिया कि 2 सप्ताह के भीतर आपका पैसा मैं लौटा दूंगा । गणेश के जाने के बाद अचानक शंकर जी को याद आई कि डकैती वाले दिन जो आवाज़ें मैंने सुनी थी, उनमें से एक आवाज़ तो गणेश की आवाज़ से हू-ब-हू मिलती है । लेकिन उन्हें यह भी लगा कि आखिर गणेश ऐसा क्यूं करेगा ? 5 लाख रुपिये गणेश के लिये बहुत बड़ी रकम तो थी नहीं
सोचते सोचते वे फिर अपनी दुकानदारी में व्यस्त हो गए। रात को वे घर में रात्री भोज के बाद सोने की तैयारी कर रहे थे तब फिर उनके दिमाग में वही बात घूमने लगी कि डकैती वाले दिन जितनी आवाज़ें उन्होंने सुनी थी । उसमें से एक आवाज़ ख़ुद के भतीजे गणेश की थी ।
( क्रमशः )