पत्थर की दीवारे
ऊँचे किनारे सन्नाटे गलियारे
एक मुक्कमल जहाँ
कभी थी रौनके खिलखिलाती थी हंसी
कभी शाम ढलते ही
जगमगाते थे आले
दिए भर रौशनी लिए
चुपचाप बैठे है ऐसे आज
गोया कोई काम ही नहीं
ख़ूबसूरती है कायम
अंदाज़ वोही
हज़ारो हाथ लगे थे इन्हे बनाने में
हज़ारो पेट भरे थे मैहँताने में
नाम के पीछे कई नाम थे अन्जान
आज है सन्नाटे कभी सजती थी महफ़िलें
उँगलियों से छू के इन पत्थरों को
उठती है एक तरंग
देख रही है हज़ारो आँखें जैसे
हम भी थे यही पर पन्नों पर नहीं आ पाये
घर थे गुलज़ार हमारे भी
की चेहरे हमारे सज नहीं पाये तस्वीरों में
दफन हो गये आशियाने हमारे
की अब तो बस इमारत बची है
फुसफुसाती है आवाज़ें
तैरती है परछाई
जी करता है पकड़ लू दामन
जो अभी अभी लहराया था
गुनगुनाउ वो ही नगमा
जो अद्रश्य स्वर लह्रीयो में आया था
इतरा के चलूँ अंदाज़ से बैठूँ
एक ताली बजा के
दुनिया भर की खवहीशे पा लू
पत्थर की दीवारें ......
एक मुकम्मल जहान .....
शिप्रा राहुल चंद्र