मेरी एक कविता खो गयी है
ढूंढती फिर रही हूं सब जगह
किताबो के बीच में
मेज़ की दराज में पर्स की जेब में
हैरान हूं परेशान हूं
मिल नहीं रही
उलझन है भरी
क्या लिखा था कुछ याद नहीं
पर जो भी था आप सब पढ़ते
तो शायद खुश होते
आनंद उठाते औरो को भी पढ़वाते
पर क्या अब कहु की खो गयी है
मेरी एक कविता खो गयी है
किस रस में थी पगी
अब भूल गयी
सच कहू तो थी बड़ी रसीली
चटपटी भी थी
एकदम मज़ेदार
खनकी खनकी सी खनक थी
शायद पायल की
महकी महकी कुछ महक थी
शायद फूलों की
गरजते थे बादल
चमकती थी बिजली
छायी थी घटा घनघोर
नहीं नहीं
कुछ याद है पड़ता
धूप थी चमकी
चतुरंगी काव्य में
अभी तो शरद की जिल्द थी उलटी
अंदर के पन्नो को पढ़ना बाकी था
अभी तो पारिजात के पुष्प ने
टप टप टपक कर
कैसी सुन्दर सेज़ बिछाई थी
की मन मयूर डोला था
अभी तो कुछ गर्माता जाड़ा
था खड़ा दरवाजे की ओट में
देखता चोर निगाहों से
सब से बचकर अंदर आता
देख लिया था मैंने उसे
मुझे देख धीरे से मुस्काता
जैसे हो करता चिरौरी मेरी
दृश्य दीखता बड़े मनोरम
क्या कहु कुछ याद नहीं पड़ता
ओफ्फो क्यों खो गयी है
मेरी एक कविता खो गयी है
मुझे पता है की देख रही
यही कही है छुपी हुई
उलझन मेरी समझ रही है
कहती है देखो पड़ी तो हु इस ओर
तुम्ही ने तो रख के छोड़ दिया मुझे
अब व्यर्थ में क्यों रो रही हो
उठा लो मुझे या करो वक़्त का इंतज़ार
इंतज़ार उस पल का जब
टप से गिरूंगी तुम्हारे आगे
हां पर ये वादा लो
की भुला न देना मुझे
की मेरा अस्तित्व तुम्ही से है
मेरी एक कविता खो गयी है
खो गयी है . . .
शिप्रा राहुल चन्द्र