shabd-logo

कभी थी आशा की रौशनी

29 मई 2022

23 बार देखा गया 23
कभी थी आशा की रौशनी, कभी थे निराशा के अँधेरे,
मुल्क आज़ाद कराने वो, इंकलाब का नारा लेकर चले.

कभी खुशियों का कारवां न था, थे सिर्फ़ गम के मेले,
न थे कोई महफ़िलों के रंग, वो तो थे तन्हाई में अकेले.

मुल्क को आज़ाद कराने की, ख्वाहिशें दिल में थे पाले,
वतन से थी मोहब्बत उन्हें, दुनियां दारी के न थे झमेले.

यूं चलते रहें शहीदों की, ज़िन्दगी के सफ़र के सिलसिले,
कभी मिल गया कोई साथी, तो कभी चल पड़े अकेले.

कभी अपनों के दर्द देखे, कभी गोरों के अत्याचार झेले,
वतन को आज़ाद कराने को, वो फांसी के फंदे पर झूले.

शहीदों की चिता पर तो अब, हर साल लगे रहते हैं मेले,
भगत सुखदेव राजगुरु को खोने के रंज है हितेंद्र ने झेले.

~ हितेंद्र ब्रह्मभट्ट ©



Hitendra Brahmbhatt की अन्य किताबें

किताब पढ़िए