आज नदियां और तालाब कूद जाऊं तो अच्छा हैं
यां तो आज समंदर में ही डूब जाऊं तो अच्छा हैं
अक्कड़ खड़ा हूं आज आईने के सामने रहकर मैं
कांच की तरह आज पुरा ही टूट जाऊं तो अच्छा हैं
घनघोर वृक्ष की तरह में आज खुद को मानता मैं
डालियों की तरह थोडा झुक जाऊं तो अच्छा हैं
पंछियों की तरह आज आज़ाद तो गुम रहा हूं मैं
बस वृक्षों की डालियों पर झूल जाऊं तो अच्छा हैं
बहुत ही गहरे घांव दिए हैं यहां पे ज़माने ने मुझे
बस आज सारे गमों को भूल जाऊं तो अच्छा हैं
भूल भुलैया की तरह रास्ते हो गए हैं ज़िंदगी में
बस अपनी मंज़िल तक पहुंच जाऊं तो अच्छा हैं
मेरे हाथों में लकीरें तो खुदा ने यहां खूब बनाई है
लकीरें मिटाकर खुद तकदीर बना लूं तो अच्छा हैं
हर मुकाम पर जीत की ख्वाहिशें तो सबको हैं
मैं हार कर भी सिकंदर बन जाऊं तो अच्छा हैं.
~ हितेंद्र ब्रह्मभट्ट ©