लेखक, कवि और शायर
निःशुल्क
कभी थी आशा की रौशनी, कभी थे निराशा के अँधेरे,मुल्क आज़ाद कराने वो, इंकलाब का नारा लेकर चले.कभी खुशियों का कारवां न था, थे सिर्फ़ गम के मेले,न थे कोई महफ़िलों के रंग, वो तो थे तन्हाई में अकेले.मुल्क को
आज नदियां और तालाब कूद जाऊं तो अच्छा हैंयां तो आज समंदर में ही डूब जाऊं तो अच्छा हैंअक्कड़ खड़ा हूं आज आईने के सामने रहकर मैंकांच की तरह आज पुरा ही टूट जाऊं तो अच्छा हैंघनघोर वृक्ष की तरह में आज खुद क