वह
पचास वर्ष से ऊपर था| तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठ और
दृढ़ था| चमड़े पर झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं| वर्षा की झड़ी में, पूस की रातों की छाया में, कड़कती हुई जेठ की धुप में, नंगे शरीर घूमने में वह सुख मानता था| उसकी चढ़ी हुई मूंछ बिच्छू के डंक की तरह, देखनेवालों के आँखों में चुभती थीं| उसका सांवला रंग सांप की तरह चिकना और चमकीला था| उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमी किनारा दूर से ही ध्यान
आकर्षित करता| कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमें सीप की मूंठ का बिछुआ खुंसा रहता था| उसके घुंघराले बालों पर सुनहरे पल्ले के साफे का छोर उसकी
चौड़ी पीठ पर फैला रहता| ऊंचे कंधे पर टिका हुआ चौड़ी धार
का गंड़ासा, यह थी उसकी धज! पंजों के बल जब वह
चलता, तो उसकी नसें चटाचट बोलती थीं| वह गुण्डा था| ईसा की अठारहवीं शताब्दी के अंतिम
भाग में वही काशी नहीं रह गई थी, जिसमे उपनिषद् के अजातशत्रु की
परिषद में ब्रह्मविद्या सीखने के लिए विद्वान ब्रह्मचारी आते थे| गौतम बुद्ध और शंकराचार्य के वाद-विवाद, कई शताब्दियों से लगातार मंदिरों और मठों के ध्वंस और
तपस्वियों के वध के कारण, प्रायः बंद हो गए थे| यहाँ तक कि पवित्रता और छुआछूत में कट्टर वैष्णव-धर्म भी उस
विश्रृंखलता में नवागंतुक धर्मोन्माद में अपनी असफलता देख कर काशी में अघोर रूप
धारण कर रहा था| उसी समय समस्त न्याय और बुद्धिवाद
को शस्त्र-बल के सामने झुकते देखकर, काशी के विछिन्न और निराश नागरिक
जीवन ने; एक नवीन सम्प्रदाय की सृष्टि की| वीरता जिसका धर्म था, अपनी बात बात पर मिटना, सिंह-वृत्ति जीविका ग्रहण करना, प्राण-भिक्षा मांगनेवाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए
प्रतिद्वंदी पर शस्त्र न उठाना, सताए निर्बलों को सहायता देना और
प्रत्येक क्षण प्राणों को हथेली पर लिए घूमना, उसका बाना था|
उन्हें लोग काशी में ‘गुण्डा’ कहते थे| जीवन की किसी अलभ्य अभिलाषा से वंचित होकर जैसे प्रायः लोग
विरक्त हो जाते हैं ठीक उसी तरह किसी मानसिक चोट से घायल होकर, एक प्रतिष्ठित ज़मींदार का पुत्र होने पर भी, नन्हकूसिंह गुण्डा हो गया था| दोनों हाथों से उसने अपनी संपत्ति लुटाई| नन्हकूसिंह ने बहुत सा रुपया खर्च करके जैसा स्वांग खेला था, उसे काशीवाले बहुत दिनों तक नहीं भूल सके|
वसंत
ऋतु में यह प्रहसनपूर्ण अभिनय खेलने के लिए उन दिनों प्रचुर धन, बल, निर्भीकता और उच्छश्रृंखलता की
आवश्यकता होती थी| एक बार नन्हकूसिंह ने भी एक पैर
में नूपुर, एक हाथ में तोड़ा, एक आंख में काजल,
एक कान में हज़ारों के मोती तथा
दुसरे कान में फटे हुए जूते का तल्ला लटकाकर, एक में जड़ाऊ मूठ की तलवार, दूसरा हाथ आभूषणों से लदी हुई अभिनय करनेवाली प्रेमिका के
कंधे पर रखकर गया था- “कही बैगनवाली मिले तो बुला देना|” प्रायः बनारस के बाहर की हरियालियों में, अच्छे पानीवाले कुओं पर, गंगा की धारा में मचलती हुई डोंगी पर वह दिखलाई पड़ता था| कभी-कभी जुआखाने से निकलकर जब वह चौक में आ जाता, तो काशी की रंगीली वेश्याएं मुस्कुराकर उसका स्वागत करतीं
और दृढ़ शरीर को सस्पृह देखतीं| वह तमोली की ही दुकान पर बैठकर
उनके गीत सुनता, ऊपर कभी नहीं जाता था| जुए की जीत का रुपया मुट्ठियों में भर-भरकर, उनकी खिड़की में वह इस तरह उछालता कि कभी-कभी समाजी लोग
अपना सर सहलाने लगते, तब वह ठठाकर हंस देता| जब कभी लोग कोठे के ऊपर चलने के लिए कहते, तो वह उदासी की साँस खींचकर चुप हो जाता| वह अभी वंशी के जुआखाने से निकला था| आज उसकी कौड़ी ने साथ न दिया| सोलह परियों के नृत्य में उसका मन न लगा| मन्नू तमोली की दुकान पर बैठे हुए उसने कहा-”आज सायत अच्छी नहीं रही,मन्नू|” “क्यों मालिक! चिंता किस बात की है| हमलोग किस दिन के लिए हैं| सब आप ही का तो है|” “अरे बुद्धू ही रहे तुम! नन्हकूसिंह जिस दिन किसी से लेकर
जुआ खेलने लगे उसी दिन समझना वह मर गए|
तुम हटे नहीं कि मैं जुआ खेलने कब
जाता हूँ| जब मेरे पास एक पैसा नहीं रहता; उसी दिन नाल पर बहुंचते ही जिधर बड़ी ढेरी रहती है, उसी को बदता हूँ और फिर वही दांव आता भी है| बाबा कीनाराम का यह वरदान है|” “तब आज क्यों मालिक?” “पहला दांव तो आया ही, फिर दो-चार हाथ बदने पर सब निकल गया| तब भी लो, यह पांच रुपये बचे हैं| एक रुपया तो पान के लिए रख लो और चार दे दो मलूकी कथक को, कह दो कि दुलारी से गाने के लिए कह दे| हाँ, वही एक गीत-” “विलमी विदेश रहे|”
नन्हकूसिंह की बात सुनते ही मलूकी, जो अभी गांजे की चिलम पर रखने के लिए अंगारा चूर कर रहा था, घबराकर उठ खड़ा हुआ| वह सीढ़ियों पर दौड़ता हुआ चढ़ गया| चिलम को देखता ही ऊपर चढ़ा, इसलिए उसे चोट भी लगी; पर नन्हकूसिंह की भृकुटी देखने की शक्ति उसमें कहाँ| उसे नन्हकूसिंह की वह मूर्ती न भूली थी, जब इसी पान की दुकान पर जुएखाने से जीता हुआ, रुपये से भरा तोड़ा लिए वह बैठा था| दूर से बोधीसिंह की बारात का बाजा बजता हुआ आ रहा था| नन्हकू ने पूछा-”यह किसकी बारात है?” “ठाकुर बोधीसिंह के लड़के की|” – मन्नू के इतना कहते ही नन्हकू के होंठ फड़कने लगे| उसने कहा-”मन्नू! यह नहीं हो सकता| आज इधर से बारात न जाएगी| बोधीसिंह हमसे निपटकर तब बारात इधर से ले जा सकेंगे|” मन्नू ने कहा-”तब मालिक, मैं क्या करूं?”
नन्हकू गंड़ासा कंधे पर से और ऊंचा
करके मलूकी से बोला-”मलुकिया देखता है, अभी जा ठाकुर से कह दे, कि बाबू नन्हकूसिंह आज यहीं लगाने के लिए खड़े हैं| समझकर आवें, लड़के की बारात है|” मलुकिया कांपता हुआ ठाकुर बोधीसिंह के पास गया| बोधीसिंह और नन्हकू में पांच वर्ष से सामना नहीं हुआ है| किसी दिन नाल पर कुछ बातों में कहा-सुनी होकर, बीच-बचाव हो गया था| फिर सामना नहीं हो सका|
आज
नन्हकू जान पर खेलकर अकेले खड़ा है| बोधीसिंह भी उस आन को समझते थे| उन्होंने मलूकी से कहा-”जा बे, कह दे कि हमको क्या मालूम कि
बाबूसाहब वहां खड़े हैं| जब वह हैं ही, तो दो समधी जाने का क्या काम है|” बोधीसिंह लौट गए और मलूकी के कंधे पर तोड़ा लादकर बाजे के
आगे के आगे नन्हकूसिंह बारात लेकर गए| ब्याह में जो कुछ लगा, खर्च किया| ब्याह कराकर तब, दूसरे दिन इसी दुकान तक आकर रुक गए| लड़के को और उसकी बारात को उसके घर भेज दिया| मलूकी को भी दस रुपया मिला था उस दिन| फिर नन्हकूसिंह की बात सुनकर बैठे रहना और यम को न्योता
देना एक ही बात थी| उसने जाकर दुलारी से कहा-”हम ठेका लगा रहे हैं, तुम गाओ, तब तक बल्लू सारंगीवाला पानी पीकर
आता है|” “बाप रे, कोई आफत आई है क्या बाबू साहब? सलाम|” -कहकर दुलारी ने खिड़की से
मुस्कराकर झाँका था कि नन्हकूसिंह उसके सलाम का जवाब देकर, दूसरे एक आनेवाले को देखने लगे| हाथ में हरौती की पतली-सी छड़ी, आँखों में सुरमा,
मुंह में पान, मेंहदी लगी हुई लाल दाढ़ी, जिसकी सफ़ेद जड़ दिखलाई पड़ रही थी, कुव्वेदार टोपी;
छकलिया अंगरखा और साथ में लैंसदार
परतवाले दो सिपाही| कोई मौलवी साहब हैं| नन्हकू हंस पड़ा|
नन्हकू की ओर बिना देखे ही मौलवी
ने एक सिपाही से कहा-”जाओ,दुलारी से कह दो कि आज रेजीडेंट साहब की कोठी पर मुजरा करना
होगा, अभी चले,देखो तब तक हम जानअली से कुछ इत्र ले रहे हैं|” सिपाही सीढ़ी चढ़ रहा था और मौलवी दूसरी ओर चले थे कि
नन्हकू ने ललकार कर कहा-”दुलारी!हम कब तक यहाँ बैठे रहें| क्या अभी सरंगिया नहीं आया?” दुलारी ने कहा-”वाह बाबूसाहब!आपही के लिए तो मैं
यहाँ आ बैठी हूँ, सुनिए न| आप तो कभी ऊपर…”
मौलवी जल उठा| उसने कड़ककर कहा_”चोबदार! अभी वह सूअर की बच्ची उतरी
नहीं| जाओ, कोतवाल के पास मेरा नाम लेकर कहो कि मौलवी अलाउद्दीन कुबरा
ने बुलाया है| आकर उसकी मरम्मत करें| देखता हूँ तो जब से नवाबी गई, इन काफ़िरों की मस्ती बढ़ गई है|” कुबरा मौलवी! बाप रे-तमोली अपनी दुकान सँभालने लगा| पास ही एक दुकान पर बैठकर ऊंघता हुआ बजाज चौंककर सर में चोट
खा गया| इसी मौलवी ने तो महाराज चेतसिंह से
साढ़े-तीन सेर चींटी के सर का तेल माँगा था| मौलवी अलाउद्दीन कुबरा! बाज़ार में हलचल मच गई| नन्हकूसिंह ने मन्नू से कहा-”क्यों चुपचाप बैठोगे नहीं|” दुलारी से कहा-वहीँ से बाई जी! इधर-उधर हिलने का काम नहीं| तुम गाओ| हमने ऐसे घसियारे बहुत से देखे हैं| अभी कल रमल के पासे फेंककर अधेला-अधेला मांगता था, आज चला है रोब गांठने|” अब कुबरा ने घूमकर उसकी ओर देखकर कहा-”कौन है यह पाजी!”
“तुम्हारे चाचा
बाबू नन्हकूसिंह!”- के साथ ही पूरा बनारसी झापड़ पड़ा| कुबरा का सर घूम गया| लैस के परतले वाले सिपाही दूसरी ओर
भाग चले और मौलवी साहब चौंधियाकर जानअली की दुकान पर लड़खड़ाते, गिरते-पड़ते किसी तरह पहुँच गए| जानअली ने मौलवी से कहा-”मौलवी साहब! भला आप भी उस गुण्डे
के मुंह लगने गए| यह तो कहिये उसने गंड़ासा नहीं तौल
दिया|” कुबरा के मुंह से बोली नहीं निकल
रही थी| उधर दुलारी गा रही थी “….विलमि रहे विदेस…”
गाना पूरा हुआ, कोई आया-गया नहीं|
तब नन्हकूसिंह धीरे-धीरे टहलता हुआ, दूसरी ओर चला गया|
थोड़ी
देर में एक डोली रेशमी परदे से ढंकी हुई आई| साथ में एक चोबदार था| उसने दुलारी को राजमाता पन्ना की आज्ञा सुनाई| दुलारी चुपचाप डोली पर जा बैठी| डोली धुल और संध्याकाल के धुंए से भरी बनारस की तंग गलियों
से होकर शिवालय घाट की ओर चली| श्रावण का अंतिम सोमवार था| राजमाता पन्ना शिवालय में बैठकर पूजा कर रही थीं| दुलारी बाहर बैठी कुछ अन्य गानेवालियों के साथ भजन गा रही
थी| आरती हो जाने पर,फूलों की अंजलि बिखेरकर पन्ना ने भक्तिभाव से देवता के
चरणों में प्रणाम किया| फिर प्रसाद लेकर बाहर आते ही
उन्होंने दुलारी को देखा| उसने खड़ी होकर हाथ जोड़ते हुए
कहा-”मैं पहले ही पहुँच जाती| क्या करूं, वह कुबरा मौलवी निगोड़ा आकर
रेजीडेंट की कोठी पर ले जाने लगा| घंटों इसी झंझट में बीत गया, सरकार!” “कुबरा मौलवी!जहाँ सुनती हूँ उसी का
नाम| सुना कि उसने यहाँ भी आकर कुछ…”-फिर न जाने क्या सोचकर बात बदलते हुए पन्ना ने कहा-”हाँ, तब फिर क्या हुआ? तुम कैसे यहाँ आ सकी?” “बाबू नन्हकूसिंह उधर से आ गए|” मैंने कहा-”सरकार की पूजा पर मुझे भजन गाने को
जाना है और यह जाने नहीं दे रहा है| उन्होंने मौलवी को ऐसा झापड़ लगाया
कि उसकी हेकड़ी भूल गई| और तब जाकर मुझे किसी तरह यहाँ आने
की छुट्टी मिली|” “कौन बाबू नन्हकूसिंह?” दुलारी ने सर नीचा करके कहा-”अरे, क्या सरकार को नहीं मालूम! बाबू
निरंजनसिंह के लड़के! उस दिन, जब मैं बहुत छोटी थी, आपकी बारी में झूला झूल रही थी,जब नवाब का हाथी बिगड़कर आ गया था, बाबू निरंजनसिंह के कुंवर ने ही तो उस दिन हमलोगों की रक्षा
की थी|” राजमाता का मुख उस प्राचीन घटना को
स्मरण करके न जाने क्यों विवर्ण हो गया,
फिर अपने को संभालकर उन्होंने
पूछा-”तो बाबू नन्हकूसिंह उधर कैसे आ गए?” दुलारी ने मुस्कराकर सर नीचा कर लिया| दुलारी राजमाता पन्ना के पिता की ज़मींदारी में रहनेवाली
वेश्या की लड़की थी| उसके साथ कितनी ही बार
झूले-हिंडोले अपने बचपन में पन्ना झूल चुकी थी| वह बचपन से ही गाने में सुरीली थी|
सुंदरी होने पर चंचल भी थी| पन्ना जब काशिराज की माता थी, तब दुलारी काशी की प्रसिद्ध गानेवाली थी| राजमहल में उसका गाना-बजाना हुआ ही करता| महाराज बलवंतसिंह के समय से ही संगीत पन्ना के जीवन का
आवश्यक अंग था| हाँ, अब प्रेम-दुःख और दर्द भरी विरह-कल्पना के गीत की ओर अधिक
रूचि न थी| अब सात्विक भावपूर्ण भजन होता था|
राजमाता
पन्ना का वैधव्य से दीप्त शांत मुखमंडल कुछ मलिन हो गया| बड़ी रानी का सापत्न्य ज्वाला बलवंतसिंह के मर जाने पर भी नहीं बुझी| अंतःपुर कलह का रंगमंच बना रहता, इसी से प्रायः पन्ना काशी के राजमंदिर में आकर पूजापाठ में
अपना मन लगाती| रामनगर में उसको चैन नहीं मिलता| नई रानी होने के कारण बलवंतसिंह की प्रेयसी होने का गौरव तो
उसे था ही, साथ में पुत्र उत्पन्न करने का सौभाग्य
भी मिला, फिर भी असवर्णता का सामाजिक दोष
उसके हृदय को व्यथित किया करता| उसे अपने ब्याह की आरंभिक चर्चा का
स्मरण हो आया| छोटे से मंच पर बैठी, गंगा की उमड़ती हुई धारा को पन्ना अन्यमनस्क होकर देखने लगी| उस बात को, जो अतीत में एक बार, हाथ से अनजाने में खिसक जाने वाली वस्तु की तरह लुप्त हो गई
हो;सोचने का कोई कारण नहीं| उससे कुछ बनता-बिगड़ता भी नहीं;परन्तु मानव स्वभाव हिसाब रखने की प्रथानुसार कभी-कभी कह
बैठता है,”कि यदि वह बात हो गयी होती तो?” ठीक उसी तरह पन्ना भी राजा बलवंतसिंह द्वारा बलपूर्वक रानी
बनाई जाने के पहले की एक सम्भावना सोचने लगी थी| सो भी बाबू नन्हकूसिंह का नाम सुन लेनेपर| गेंदा मुंहलगी दासी थी|वह पन्ना के साथ उसी दिन से है, जिस दिन से पन्ना बलवंतसिंह की प्रेयसी हुई| राज्य-भर का अनुसन्धान उसी के द्वारा मिला करता| और उसे न जाने कितनी जानकारी भी थी| उसने दुलारी का रंग उखाड़ने के लिए कुछ आवश्यक समझा| “महारानी! नन्हकूसिंह अपनी सब ज़मींदारी स्वांग, भैंसों की लड़ाई,
घुड़दौड़ और गाने-बजाने में उड़ाकर
अब डाकू हो गया है| जितने खून होते हैं, सबमें उसी का हाथ रहता है|जितनी….”उसे रोककर दुलारी ने कहा-”यह झूठ है| बाबूसाहब के ऐसा धर्मात्मा तो कोई
है ही नहीं| कितनी विधवाएं उनकी दी हुई धोती से
अपना तन ढंकती हैं| कितनी लड़कियों की ब्याह-शादी होती
है| कितने सताए हुए लोगों की उनके
द्वारा रक्षा होती है|” रानी पन्ना के हृदय में एक तरलता
उद्वेलित हुई| उन्होंने हंसकर कहा-”दुलारी, वे तेरे यहाँ आते हैं न?इसी से तू उनकी बड़ाई…|” “नहीं सरकार!शपथ खाकर कह सकती हूँ कि बाबू नन्हकूसिंह ने आज
तक कभी मेरे कोठे पर पैर भी नहीं रखा|”
राजमाता न जाने क्यों इस अद्भुत
व्यक्ति को समझने के लिए चंचल हो उठी थीं| तब भी उन्होंने दुलारी को आगे कुछ न कहने के लिए तीखी
दृष्टि से देखा| वह चुप हो गई|पहले पहर की शहनाई बजने लगी| दुलारी छुट्टी मांगकर डोली पर बैठ गई| तब गेंदा ने कहा-”सरकार!आजकल नगर की दशा बड़ी बुरी
है| दिन दहाड़े लोग लूट लिए जाते हैं|सैंकड़ो जगह नाल पर जुए चलने के लिए टेढ़ी भौवें कारण बन जाती
हैं| उधर रेजीडेंट साहब से महाराजा की
अनबन चल रही है|”राजमाता चुप रहीं| दूसरे दिन राजा चेतसिंह के पास रेजीडेंट मार्कहेम की चिट्ठी
आई, जिसमे नगर की दुर्व्यवस्था की कड़ी
आलोचना थी| डाकुओं और गुंडों को पकड़ने के लिए
उनपर कड़ा नियंत्रण रखने की सम्मति भी थी| कुबरा मौलवी वाली घटना का भी उल्लेख था| उधर हेस्टिंग्स के आने की भी सूचना थी|शिवालय घाट और रामनगर में हलचल मच गई| कोतवाल हिम्मतसिंह, पागल की तरह, जिसके हाथ में लाठी लोहांगी, गंड़ासा, बिछुआ और करौली देखते, उसी को ही पकड़ने लगे| एक दिन नन्हकूसिंह सुम्भा के नाले के संगम पर, ऊंचे-से टीले की हरियाली में अपने चुने हुए साथियों के साथ
दूधिया छान रहे थे| गंगा में उनकी पतली डोंगी बड़ की
जटा से बंधी थी|कथकों का गाना हो रहा था| चार उलांकी इक्के कसे-कसाए खड़े थे| नन्हकूसिंह ने अकस्मात कहा-”मलूकी!गाना जमता नहीं है|उलांकी पर बैठकर जाओ, दुलारी को बुला लाओ|” मलूकी वहां मंजीरा बजा रहा था| दौड़कर इक्के पर जा बैठा| आज नन्हकूसिंह का मन उखड़ा था| बूटी कई बार छानने पर भी नशा नहीं| एक घण्टे में दुलारी सामने आ गयी| उसने मुस्कराकर कहा-”क्या हुक्म है बाबूसाहब?” “दुलारी!आज गाना सुनने का मन कर रहा है|” “इस जंगल में क्यों?”उसने सशंक हंसकर कुछ अभिप्राय से पूछा| “तुम किसी तरह का खटका न करो|”-नन्हकूसिंह ने हंसकर कहा| “यह तो मैं उस दिन महारानी से भी कह आई हूँ|” “क्या किससे?” “राजमाता पन्नादेवी से”-फिर उस दिन गाना नहीं जमा| दुलारी ने आश्चर्य से देखा कि तानों में नन्हकू की ऑंखें तर
हो जाती हैं|गाना-बजाना समाप्त हो गया था वर्षा
की रात में झिल्लियों का स्वर उस झुरमुट में गूँज रहा था| मंदिर के समीप ही छोटे से कमरे में नन्हकूसिंह चिंता में
निमग्न बैठा था| आँखों में नींद नहीं| और सबलोग तो सोने में लगे थे, दुलारी जाग रही थी| वह भी कुछ सोच रही थी| आज उसे अपने को रोकने के लिए कठिन प्रयत्न करना पड़ रहा था; किन्तु असफल हो कर वह उठी और नन्हकू के समीप धीरे-धीरे चली
आई|कुछ आहट पाते ही दौड़कर नन्हकूसिंह
ने पास ही पड़ी हुई तलवार उठा ली|तब तक हंसकर दुलारी ने कहा-”बाबूसाहब,यह क्या?स्त्रियों पर भी तलवार चलायी जाती है|” छोटे से दीपक के प्रकाश में वासना-भरी रमणी का मुख देखकर
नन्हकू हंस पड़ा|उसने कहा-”क्यों बाई जी! क्या इसी समय जाने की पड़ी है| मौलवी ने फिर बुलवाया है क्या?” दुलारी नन्हकू के पास बैठ गई| नन्हकू ने कहा-”क्या तुमको डर लग रहा है?” “नहीं,मैं कुछ पूछने आई हूँ|” “क्या?” “क्या..यही कि..कभी तुम्हारे हृदय
में…” “उसे न पूछो दुलारी! हृदय को बेकार
ही समझकर तो उसे हाथ में लिए फिर रहा हूँ| कोई कुछ कर देता-कुचलता-चीरता-उछालता!मर जाने के लिए सबकुछ
तो करता हूँ पर मरने नहीं पाता|” “मरने के लिए भी कहीं खोजने जाना
पड़ता है|आपको काशी का हाल क्या मालूम! न
जाने घड़ी भर में क्या हो जाए|उलट-पलट होनेवाला है क्या, बनारस की गलियां जैसे काटने को दौड़ती हैं|” “को नई बात इधर हुई है क्या?” “कोई हेस्टिंग्स आया है|सुना है उसने शिवालयघाट पर तिलंगों की कंपनी का पहरा बैठा
दिया है|राजा चेतसिंह और राजमाता पन्ना
वहीँ हैं|कोई-कोई कहता है कि उनको पकड़कर
कलकत्ता भेजने…” “क्या पन्ना भी….रनिवास भी वहीँ है”-नन्हकू अधीर हो उठा था| “क्यों बाबूसाहब,
आज रानी पन्ना का नाम सुनकर आपकी
आँखों में आंसू क्यों आ गए?”
सहसा
नन्हकू का मुख भयानक हो उठा| उसने कहा-”चुप रहो,तुम उसको जानकर क्या करोगी?”वह उठ खड़ा हुआ|उद्विग्न की तरह न जाने क्या खोजने
लगा|फिर स्थिर होकर उसने कहा-”दुलारी!जीवन में आज यह पहला ही दिन कि एकांत रात में एक
स्त्री मेरे पलंग पर आकर बैठ गयी है,
मैं चिरकुमार!अपनी एक प्रतिज्ञा का
निर्वाह करने के लिए सैंकड़ों असत्य,अपराध करता फिर रहा हूँ|क्यों?तुम जानती हो?मैं स्त्रियों का घोर विद्रोही हूँ और पन्ना!…किन्तु उसका क्या अपराध!अत्याचारी बलवंतसिंह के कलेजे में
बिछुआ मैं न उतार सका|किन्तु पन्ना!उसे पकड़कर गोरे कलकत्ते
भेज देंगे!वहीं….|” नन्हकूसिंह उन्मत्त हो उठा था|दुलारी ने देखा,नन्हकू अंधकार में ही वतवृक्ष के
नीचे पहुंचा और गंगा की उमड़ती हुई धारा में डोंगी खोल दी-उसी घने अंधकार में| दुलारी का हृदय कांप उठा| १६ अगस्त सन १७८१ को काशी डांवाडोल हो रही थी| शिवालयघाट में राजा चेतसिंह लेफ्टिनेंट स्टाकर के पहरे में
थे|नगर में आतंक था|दुकानें बंद थीं|घरों में बच्चे अपनी माँ से पूछते
थे-”माँ आज हलुए वाला नहीं आया|”वह कहती-”चुप बेटे!….” सड़कें सूनी पड़ी थीं|तिलंगों की कंपनी के आगे-आगे कुबरा मौलवी कभी-कभी आता-जाता
दिखाई पड़ता था|उस समय खुली हुई खिड़कियाँ बंद हो
जाती थीं|भय और सन्नाटे का राज्य था| चौक में चिथरूसिंह की हवेली अपने भीतर काशी की वीरता को बंद
किए कोतवाल का अभिनय कर रही थी|उसी समय किसी ने पुकारा-”हिम्मतसिंह!” खिड़की में से सिर निकालकर
हिम्मतसिंह ने पूछा-”कौन?” “बाबू नन्हकूसिंह!”
“अच्छा, तुम अब तक बाहर ही हो?” “पागल!राजा क़ैद हो गए हैं|छोड़ दो इन सब बहादुरों को!हम एक बार इनको लेकर शिवालयघाट
जाएँ|” “ठहरो”-कहकर हिम्मतसिंह ने कुछ आज्ञा दी, सिपाही बाहर निकले|नन्हकू की तलवार चमक उठी|सिपाही भीतर भागे|नन्हकू ने कहा-”नमकहरामों चूडियाँ पहन लो|” लोगों के देखते-देखते नन्हकूसिंह चला गया|कोतवाली के सामने फिर सन्नाटा हो गया| नन्हकू उन्मत्त था|उसके थोड़े से साथी उसकी आज्ञा पर जान देने के लिए तुले थे| वह नहीं जानता था कि राजा चेतसिंह का क्या राजनैतिक अपराध
है|उसने कुछ सोचकर अपने थोड़े से
साथियों को फाटक पर गडबड मचाने के लिए भेज दिया| इधर अपनी डोंगी लेकर शिवालय की खिड़की के नीचे धारा काटते
हुआ पहुंचा| किसी तरह निकले हुए पत्थर में
रस्सी अटकाकर,उस चंचल डोंगी को उसने स्थिर किया
और बन्दर की तरह उछल कर खिड़की के भीतर हो रहा|
उस
समय वहां राजमाता पन्ना और राजा चेतसिंह से बाबू मनिहारसिंह कह रहे थे-”आपके यहाँ रहने से हमलोग क्या करें, यह समझ नहीं आता|पूजापाठ समाप्त करके आप रामनगर चली
गयी होतीं तो यह…” तेजस्विनी पन्ना ने कहा-”अब मैं रामनगर कैसे चली जाऊं?” मनिहारसिंह दुखी होकर बोले-”कैसे बताऊँ?मेरे सिपाही तो बंदी हैं|” इतने में फाटक पर कोलाहल मचा| राज-परिवार अपनी मंत्रणा में डूबा था कि नन्हकूसिंह का आना
उन्हें मालूम हुआ|सामने का द्वार बंद था|नन्हकूसिंह ने एक बार गंगा की धारा को देखा_उसमें एक नाव घाट पर लगने के लिए लहरों से लड़ रही थी| वह प्रसन्न हो उठा| इसी की प्रतीक्षा में वह रुका था| उसने जैसे सबको सचेत करते हुए कहा-”महारानी कहाँ हैं?”
सबने घूमकर देखा-एक अपरिचित वीर
मूर्ति!शस्त्रों से लदा हुआ पूरा देव|
चेतसिंह ने पूछा-”तुम कौन हो?” “राजपरिवार का एक बिना दाम का सेवक!” पन्ना के मुंह से हलकी सी एक साँस निकलकर रह गयी|उसने पहचान लिया|
इतने वर्षों बाद!वही नन्हकूसिंह| मनिहारसिंह ने पूछा-”तुम क्या कर सकते हो?” “मैं मर सकता हूँ|पहले महारानी को डोंगी पर बिठाइए|नीचे दूसरी डोंगी पर अच्छे मल्लाह हैं|फिर बात कीजिए|”_मनिहारसिंह ने देखा, जनानी ड्योढ़ी का दारोगा एक डोंगी पर चार मल्लाहों के साथ
खिड़की से नाव सटाकर प्रतीक्षा में है|उन्होंने पन्ना से कहा-”चलिए, मैं साथ चलता हूँ|” “और….”चेतसिंह को देखकर पुत्रवत्सला ने
संकेत से एक प्रश्न किया, उसका उत्तर किसी के पास न था|मनिहारसिंह ने कहा-”तब मैं यहीं?”नन्हकू ने हंस कर कहा-”मेरे मालिक आप नाव पर बैठें|जबतक राजा भी नाव पर न बैठ जाएँगे, तब तक सत्रह गोली खाकर भी नन्हकूसिंह जीवित रहने की
प्रतिज्ञा करता है|” पाना ने नन्हकू को देखा|एक क्षण के लिए चारों आँखें मिलीं, जिनमें जन्म-जन्म का विश्वास ज्योति की तरह जल रहा था| फाटक बलपूर्वक खोला जा रहा था|नन्हकू ने उन्मत्त हो कर कहा-”मालिक जल्दी कीजिए|” दूसरे क्षण पन्ना डोंगी पर थी और नन्हकूसिंह फाटक पर स्टाकर
के साथ|चेतराम ने आकर चिट्ठी मनिहारसिंह
के हाथ में दी|लेफ्टिनेंट ने कहा-”आपके आदमी गडबड मचा रहे हैं|अब मैं अपने सिपाहियों को गोली चलाने से नहीं रोक सकता|” “मेरे सिपाही यहाँ कहाँ है साहब?”मनिहारसिंह ने हंसकर कहा|बाहर कोलाहल बढ़ने लगा| चेतराम ने कहा-”पहले चेतसिंह को क़ैद कीजिए|” “कौन ऐसी हिम्मत करता है?” कड़ककर कहते हुए बाबू मनिहारसिंह ने तलवार खींच ली| अभी बात पूरी न हो सकी थी कि कुबरा मौलवी वहां आ पहुंचा|यहाँ मौलवी की कलम नहीं चल सकती थी, और न ये बाहर ही जा सकते थे|उन्होंने कहा-”देखते क्या हो चेतराम!” चेतराम ने राजा के ऊपर हाथ रखा ही था कि नन्हकू के सधे हुए
हाथ ने उसकी भुजा उड़ा दी|स्टाकर आगे बढ़े, मौलवी साहब चिल्लाने लगे|नन्हकू ने देखते-देखते स्टाकर और उसके कई साथियों को धराशाई
किया|फिर मौलवी साहब कैसे बचते!
नन्हकूसिंह ने कहा-”क्यों, उस दिन के झापड़ ने तुमको समझाया नहीं?पाजी!”-कहकर ऐसा साफ़ जनेवा मारा कि कुबरा
ढेर हो गया|कुछ ही क्षणों में यह भीषण घटना हो
गई, जिसके लिए कोई प्रस्तुत न था| नन्हकूसिंह ने ललकारकर कहा-”आप क्या देखते हैं?उतारिये डोंगी पर!”-उसके घावों से रक्त के फुहारे छूट रहे थे|उधर फाटक से तिलंगे भीतर आने लगे थे|चेतसिंह ने खिड़की से उतरते हुए देखा कि बीसों तिलंगों की
संगीनों में वह अविचल खड़ा होकर तलवार चला रहा है|नन्हकू के चट्टान सदृश शरीर से गैरिक की तरह रक्त की धारा
बह रही है|गुण्डे का एक-एक अंग कटकर वहीं
गिरने लगा| वह काशी का गुण्डा था!