यह लेख , अपने गुरू प्रोफेसर मसूद साहब , जिनका हाल में स्वर्गवास हो गया ,
के लिए , एक सादर श्रद्धांजलि के तौर पर मैं उनकी याद में
लिख रहा हूं।। और वह मेरे रोल मॉडल रहे है और सच कहूं तो मैंने नीचे अपने लेख में जिन
उस्तादों के नाम गिनाए हैं उनके लिए मेरे
मन में सदैव अत्यंत आदर रहा ।
और यह बात करीब सन 69 की है।
उन दिनों एक अच्छे शिक्षण संस्थान में
प्रवेश मिल जाना बहुत अच्छी बात समझी जाती थी और अत्यंत अच्छे और अच्छी तरह ही
मुद्रित नोट्स चंदौसी आदि स्थानों के मिलते थे, जोकि कथ्य की बोधगम्यता, भाषा की पहचान और भाषा की
प्रान्जलता की कसौटी पर खरे उतरते थे ।
सन 69 बैच के मेरे सहपाठी , श्री अब्दुल मन्नान खान का हालिया चित्र
मैंने इंटर कृषि विषय
से पास किया था,
पृष्ठभूमि एसी थी कि
न अंग्रेजी बोल सकता
था न लिख
सकता था , और मैं बी. ए . में अलीगढ़ मुस्लिम
विश्वविद्यालय में अंग्रेजी मेन से दाखिल हुआ।
पहले कुछ दिन मैं आर्ट फैकल्टी में
लड़कों के बीच अपना परिचय देता रहा (
जो कि जीवन
भर तएहज़ीब और
कई बातों में
काम आए ,
सीनियर का अदब
और सीनियर कि
जिम्मेदारी बहुत होती
थी , लेकिन
अब चीजें बदल
गयीं हैं और
आज यह बंधित है ) , सीनियर छात्र उन दिनों जिस तरह परिचय लेते थे , मैं उसी की बात कर रहा हूं ।
एक अध्यापक डॉ एमके लोदी , जिनसे मुझे कुछ काम था , को मैंने पीछे से आवाज देकर कहा : मास्साब
। पहले उन्होंने अनसुना किया , जब मैंने दूसरी, तीसरी बार पुन : मास्साब, मास्साब कहकर पुकारा, तब वे रुके और मेरे पास पहुंचने पर उन्होंने बड़े
तरीके से समझाया कि आगे से मास्साब नहीं कहोगे, अगर संबोधन करना है तो सर करके बोलो।
उन दिनों अमीन अशरफ साहब फ्रांसिस बेकन
के निबंधों में “ऑफ स्टडीज “पढ़ा रहे थे और पढ़ाने के बाद उन्होंने एक छोटी सी
परीक्षा ली कि क्या समझ में आया उन्होंने प्रत्येक छात्र से कहा कि वह अपनी कॉपी
पर जो भी पढ़ाया है उसे लिखें और प्रस्तुत करें।
क्योंकि मुझे अंग्रेजी आती ही नहीं थी तो लिखना
बहुत दूर की बात थी इसी स्थिति से बचने के लिए मैंने अपने करीबी छात्र की कॉपी पर
पहला वाक्य देखा और उसे ज्यों की त्यों अपनी कॉपी पर लिख दिया, मेरे साथी को इसका आभास हुआ
और उसने अपनी कॉपी फिर मुझे नहीं देखने दी और उसका परिणाम यह हुआ कि केवल उसी
वाक्य के साथ मुझे भी अपनी कॉपी सबमिट करनी पड़ी।
सब की कॉपी वापस जांच करने के बाद उन्हें लौटा
दी लेकिन मुझे एकांत में उन्होंने बहुत समझाया के अभी आप का दाखिला हिंदी विभाग
में हो जाएगा और मैं आपको वहां लिए चलता हूं , इसलिए यहां साल खराब ना करें।
मुझे यह बात जो सही
थी , बड़ी चुनौती- वाली लगी और मैंने फैसला किया कि मुझे अंग्रेजी सीखनी
है। इसे सीखने के क्रम में मैंने पीयर्स
एनसाइक्लोपीडिया, जो कि कहीं मुझे मिल गई थी, उसे देखना शुरू किया
अंग्रेजी के अखबार पढ़ना शुरू किया अर्थात कह सकते हैं कि मैंने वोकैबलरी और इसके
व्याकरण आदि पर ध्यान देना शुरू किया ।
चलते -चलते मैंने बी ए किया और जब मैं
एम ए में आया , तब मैं कह सकता हूं कि मेरे अंदर अंग्रेजी में उत्कृष्टता जागृत
करने की तीव्र अभिलाषा मेरी एक साथी , विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर अली मोहम्मद
खुसरो की सुपुत्री , तस्नीम खुसरो भी पढ़ती थी, जो पढ़ने में भी तेज थी , पहले सेमेस्टर में संभवत : 16वीं शताब्दी की प्रोज और ड्रामा पर पेपर बाहर गए , संभवतः लखनऊ विश्वविद्यालय में डॉक्टर महेश चंद्र जी के पास, और तसनीम जी के नंबर मेरे से करीब 4 या 5 अधिक आए , तब मैं इस बात के प्रति आश्वस्त हुआ कि
उनकी जानकारी मेरे से कहीं अच्छी है अन्यथा इससे पहले, मैं अपने मन में इस
पूर्वाग्रह से ग्रसित था के दूसरे समुदाय का होने के कारण अध्यापक वर्ग उसे ही
ज्यादा अंक दे रहे हैं ।
मैं विश्वास पूर्वक
यह बात लिखने में कोई संकोच नहीं करूंगा गुरु- शिष्य परंपरा का जो शिक्षा मंदिरों
में पालन होना चाहिए, ऐसा आजकल देखने में नहीं
मिल रहा है। मेरे प्रोफेसर डॉ ओ पी गोविल, प्रोफेसर असलूब अहमद अंसारी, प्रोफेसर मसूद हसन,प्रोफेसर मुनीर अहमद प्रोफेसर सलम तुल्ला खान, प्रोफेसर जाहिदा जैदी , प्रोफेसर सकीना ए हसन ,डॉ ओ पी गोविल एवम हरीश
चंद्र रायज़ादा , ये सब एक माला के मोती थे। ट्यूशन प्राइवेट ट्यूशन
अथवा नोट्स का जमाना तो कोसों दूर था ।
वह समय ऐसा था कि आसानी से आसपास क्या
दूर तलक जेरॉक्स मशीन नहीं थी, तो मेरे मन में एक विचार आया मौलाना आजाद
लाइब्रेरी की विषय संबंधित पुस्तकों में जो अति महत्वपूर्ण सामग्री है उसको मैं
ब्लेड से काटने लगा, इसका पता नहीं चल पाता था , लेकिन इससे छात्र और अध्यापक समुदाय का
बहुत बड़ा नुकसान हो रहा था और एक दिन प्रोफेसर मसूद हसन साहब ने पढ़ाते वक्त, जो चौसर की कहानियां पढ़ा रहे थे , बताया के लड़के इतने उस्ताद
हो गए हैं कि वह बहुत चालाकी से किताबों के पन्ने काट रहे हैं । कि मैं जो कर रहा हूं उससे स्थाई क्षति
हो रही है और मैंने तुरंत ही महत्वपूर्ण नोट अपनी कॉपियों पर लेना ठीक समझा जो भी
हो मेरा सुधार हो मेरे उन पन्नों को
काटने का सिर्फ
आशय यह था
कि जो मैं
पढ चुका उसे
और कोई कोट
न करे ।
मैं बिना संकोच के यह
बात कह सकता हूं कि प्रोफेसर मसूद हसन साहब को अंग्रेजी भाषा की विद्वता तो थी ही ,साथ ही उन्हें इस्लामिक धर्म शास्त्र और
वैदिक धर्म शास्त्रों की समान रूप से बेहद अच्छी जानकारी थी । वह एक काबिल और
मुकम्मल इंसान थे और मानवीयता से ओतप्रोत थे। जैसा मैंने उनको उस समय देखा ओज से
परिपूर्ण व्यक्तित्व था । वे सच में एक पारस पत्थरथे। व्यक्ति का समाज के उत्थान
में बगैर भेदभाव के समान रूप से समाज में प्रकाश फैलाना बहुत बड़ा धर्म का काम है ।
और समान रूप से यही व्यक्तित्व मुझे मेरे गुरु भाई डॉक्टर ए आर किदवई जो एकेडमिक स्टाफ कॉलेज के
डायरेक्टर हैं के व्यक्तित्व में देखने को मिला।
इसी क्रम में एक शाम प्रोफेसर मसूद साहब
ने चांसलर साहब नवाब छतारी जी को बुलाया वह शेरवानी में टोपी लगाए और एक बैंत हाथ में लिए
शाम 4:00 बजे के करीब कक्षा में आए , मैं सच कहता हूं इतना बढ़िया संबोधन ,
उस समय , मैंने पहली बार सुना।
नवाब छतारी साहब ने कहा कि यह जो धरती
पर सारी चीजें हैं वह विधाता की बनाई हुई आप पीपल की पत्तियों को देखो नीम की
पत्तियों को देखो रंगो को देखो धरती पर सारी चीजों को ऊपर नीचे जहां तक नजर जाती है आप
देखें तो पाएंगे कि वह सबसे बड़ा कलाकार है उसने नीम की पत्तियों की डिजाइन एक ही
रखी है पीपल की पत्तियों की डिजाइन एक से रखी है और यह जो डिजाइन है कितनी खूबसूरत
है कितनी हसीन है और हमको सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि विधाता की बनाई हुई
चीजों में कोई दखलअंदाजी ना करें और उसकी जो डिजाइन है उसमें क्यों कुरूपता पैदा
ना करें। प्रकृति बहुत शक्तिशाली है और इसमें छेड़छाड़ ठीक नहीं जब आदमी के चीजें
वश में नहीं रह जाती तब दिव्य शक्तियां अर्थात प्रकृति ठीक करने के लिए हस्तक्षेप
करती है ।
साख और बट्टा
यह तो हम सभी जानते हैं के समाज में
व्यवहार से एक दूसरे को लोग जान ही जाते हैं और उनके आचरण ,कर्म पर ही उनकी साख टिक्की होती है
दुर्गा दास बसु प्रसिद्ध संविधान-
मर्मज्ञ के अनुसार ,व्यक्ति की सामाजिक हैसियत और साख उनके सरकारी ओहदे से होती है , इसका क्रमानुसार उत्तराधिकार नियत किया जाए तो :
1 सरकारी पद के अनुसार
हैसियत
2 धन और संपत्ति की ,
3 खानदान
4 समाज कल्याण की सेवा
इसकेपश्चात जो सबसे ज्यादा धनी होते हैं
उनका क्रम आता है , इसके पश्चात समाज का कल्याण समाज सेवी शिक्षक आते हैं , समाज में आयु का क्रम भी,
तत्पश्चात निर्धारक
तत्व आपके आचरण, आपकी कथनी व करनी , आपकी वादा खिलाफी , दोहरी बात करना और घिनौने काम करना आदि
पर भी निर्भर करता है ।
संबंधों को बनाए रखना
बहुत बड़ी बात है यह आसानी से नहीं बनते ।
इस संबंध में बशीर बद्र जी का एक शेर नहीं भूलना चाहिए
कई बार ऐसा होता है कि शनि
की तरह , अपने ही सगे संबंधी धोखा दे जाते हैं और इस बात का पता भी बहुत समय
के बाद चलता है। कुछ विरले मनुष्य ऐसे भी होते हैं जो मित्र होते हुए सगे
संबंधियों से ज्यादा निकटता प्राप्त कर लेते हैं।
कुछ ऐसे होने के समझदार और प्रबुद्ध अधिकारी ओहदे मे उच्च होकर भी इतने नीच कर्म कर जाते हैं क्यों उनकी समाज में साख नहीं बचती। कुछ अपने कर्मों के कारण ही गिर जाते हैं, जबकि उनको कोई गिराता नहीं , हां इस काम में समय अवश्य लग जाता है।
राजा बलि को उनके
गुरू ने कई बार मना किया पर उन्होंने वामन अवतार को
देने के लिए मना नहीं किया क्योंकि परम कल्याण उनके आसन्न था ।
अभी मान लेना चाहिए कि दक्ष एक राजा थे
और उनके दामाद, जो शिव के नाम से जाने जाते
हैं , आचरण वह जो कि
सत्यम शिवम और सुंदरम वाला । न केवल राजा
की गरिमा के कारण बल्कि एक वरिष्ठ और संबंधों में वरिष्ठ व्यक्ति के मान का पहले
आदर रखा जाना चाहिए, ऐसा नहीं हो सकता कि बड़े
लोग, छोटों के पैर पूजने लग जाए ।
इस संबंध में मैं अनेक दृष्टांत गिना
सकता हूं,, जैसे विश्वनाथ प्रताप सिंह
एवं देवीलाल जी के संबंध, और अन्य अनेक उदाहरण। समय कभी एक जैसा
रहता नहीं , रह भी नहीं सकता और यह अपने कालचक्र के अनुसार आपके साथ रहता है, तो कभी आपके सामने आकर खड़ा
हो जाता है ।
सम्मान
अभी एक संगोष्ठी
में एक महानुभाव ने एक
जाने - माने व्यक्ति से सम्मान
स्वीकार नहीं किया , स्प्ष्टीकरण में
यह सामने आया
कि हमारी संस्कृति कहती
है कि अपने
घर / स्थान , अपने परिवारी जनों से , गुरूओं से अपना सम्मान न कराए ।
लेकिन सम्मान
मौका मिले , तो
यथायोग्य व्यक्तियों का
अवश्य करे । एक सज्जन बता रहे
थे कि मौका
मिलता हो तो राज
सभा में
जरूर जाना चाहिए , एक तो पता
नहीं कब कृपा हो
जाए दूसरे सभा
में श्रेष्ठ व्यज्क्तियों के दर्शन सुलभ हो
जाएं ।
सन्मार्ग, हिंदी समाचार पत्र
, ( कलकत्ता )
में दशक पूर्व छपे
लेख भी, भारतीय संस्कृति की
ही एक झलक थे
।