उसको, चाहिये भी क्या था, मुझसे,क्या था ऐसा, जो नहीं था, पास उसके,मुझमें था भी क्या कि दे सकूं उसको,पा कर, मिल भी जाता क्या ऐसा कुछ,ना दे सकूं ऐसी जिद भी कहां थी मेरी,फिर यह लेन-देन की आरजू थी भी कहां,यह तो फितूर है कि रिश्तों के दरमियां,होते हैं बाहम, कारोबारी तोलमोल के दस्तूर,वह चाहता भी कहां था कि
मिर्जा तुम्हारी याद बहुत आती है...चले तो गये तुम पर जो तुमपे गुजरी,वह अब भी, मेरा भी दिल दुखाती है...वही हरेक बात पे कहना कि तू क्या है,तुम तो कह भी देते थे, हमसे नहीं होता,कि अंदाजे-गुफतगूं की जिद कहां से आती है।कहते हैं कि मरने के वक्त मल्हार गाते हो?समझते नहीं, आखीरियत को आह्लाद लुभाती है...चलते