क्या था ऐसा, जो नहीं था, पास उसके,
मुझमें था भी क्या कि दे सकूं उसको,
पा कर, मिल भी जाता क्या ऐसा कुछ,
ना दे सकूं ऐसी जिद भी कहां थी मेरी,
फिर यह लेन-देन की आरजू थी भी कहां,
यह तो फितूर है कि रिश्तों के दरमियां,
होते हैं बाहम, कारोबारी तोलमोल के दस्तूर,
वह चाहता भी कहां था कि उसकी जिद हो पूरी,
बस उम्मीद कि हो जिद की चाहत का एहतराम...
जिद की उम्र ही भला कितनी होती है,
वजूद भरोसे का होता है, उम्रदराजी उसकी चाहिए,
जब अंधेरा हो, रिश्तों के दाग चमकने लगते है,
दरमियां खालीपन हो, वहम के गड्ढे फैल जाते हैं,
प्यार उलट जाता है, हादसे बेलगाम हो जाते हैं।
चाहत की भी अपनी ताकत और कमजारियां हैं,
तसव्वुर, जुबां पर आते-आते तक बिखर जाता है,
दो जमा दो चार होता नहीं जब आंखें चार होती हैं,
फिर भी, दुश्वारियों से इतर कामयाबी संवरती है,
गर बात करनी बहुत मुश्किल भी हो तब भी,
संग बैठिये, तसव्वुर को खुशगवारी का मौका दीजिये,
कहते रहिये, मुझे फिक्र है तुम्हारी, मैं हूं यहां,
क्यूं कि हम-तुम हांे, नामुमिकिन कुछ भी नहीं होता...