चले तो गये तुम पर जो तुमपे गुजरी,
वह अब भी, मेरा भी दिल दुखाती है...
वही हरेक बात पे कहना कि तू क्या है,
तुम तो कह भी देते थे, हमसे नहीं होता,
कि अंदाजे-गुफतगूं की जिद कहां से आती है।
कहते हैं कि मरने के वक्त मल्हार गाते हो?
समझते नहीं, आखीरियत को आह्लाद लुभाती है...
चलते वक्त ही तो खुदी अपना संगीत बनाती है...
तन्हाई रागदारी से अपना आखिरी ईश्क निभाती है।
उन्हे तो मोमिन की वह बेबाकी भी याद नहीं कि,
आखिरी वक्त में मुसलमां नहीं, मेघ-मल्हारियत होती है।
उनसे कोई बहुत मोहब्बत से यह कह तो आये,
खुदा न इब्तदा में न इंतहां में बल्कि हमेशा ही होता है,
वक्त कब आखिरी हो, सुर इस पे महदूद नहीं होता है,
कोख से कब्र तक सुर में हों, यही मुनासिब होता है,
तर्जे-गालिब, डूब जाता है इसंान खुद के होने में,
खुदा होता है, सुरीली यादें होती हैं, जब वो नहीं होता है...