लघुकथा
किरायेदार
" भैया ये छह पाईप हैं जो पास की दूकान पर ले चलने हैं , ले चलोगे ? " मैंने ई - रिक्शे वाले को रोककर कहा ।
" जी, ले चलेंगे । "
" बताओ किराया क्या लोगे ? "
" सत्तर रुपए लगेंगे ।"
" भैया , पचास लो । सत्तर का काम तो नहीं है । "
" ठीक है , पचास दे दीजिएगा ।"
" तो फिर लाद लो । "
वो अपने काम पर लग गया ।
" भैया ! संभाल कर लादो , वरना इन पाइपों का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा , अलबत्ता तुम्हारे रिक्शा की गद्दी जरूर छिल जाएगी तब तुम्हें मरम्मत में पैसे खर्च करने पड़ेंगे ......देखो छिल गई न ! "
" लग तो रहा है कि छिल गई है ।"
" रिक्शा तुम्हारी अपनी है या किराए पर लेते हो ? " मैं उसकी लापरवाही पर झल्लाया ।
" बाबू? यहां अपना क्या है ? जिंदगी हो या फिर उससे जुड़ा ये शरीर , सभी कुछ तो किराए का ही है । " कहकर वो उधड़ी हुई रेक्सीन पर हाथ फेरने लगा ।
वो अजीब सी नज़रों से मुझे देख रहा था और मुझमें अब उससे कुछ भी पूछने या कहने की हिम्मत नहीं थी ।
सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
साहिबाबाद ।