कविता
तुम्हारी याद
तुम यादों से विस्मृत हो जाओ
सम्भव नहीं है ये ,
तुम पटल से उतर जाओ
स्वीकृत नहीं है ये ।
न करो याद तुम
फ़र्क पड़ता है क्या ?
न करो विश्वास तुम
समय रुकता है क्या ?
श्वास तो चलते हैं
हृदय भी धड़कता है
दोनों ही के स्पंदन में
ध्वनि हो या प्रतिध्वनि
तुमसे ही होकर आती है ।
करता हूं मैं तुमसे प्रेम
कहना ये आसान नहीं ,
शब्दों के जंजालों से
होना मुक्त ,दुश्वार नहीं ।
अतंर्वेधित व्यथा है ये
जीवन का विश्राम नहीं ,
निकल भागना इससे यूं
असम्भव है , विराम नहीं ।
अंतर्मन में डूब कर देखो
उपवन कुछ, हरे - हरे से पाओगे
झूठ के जंगल हट जाएंगे
निर्मल धारा में इठलाओगे ।
सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
साहिबाबाद ।